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मीनाक्षी और मुन्नू

भिनभिनाते मच्छरों की टोली लगातार उस पर वार किए जा रही थी। चमकदार रोशनी से दूर अभी वो अँधेरे में बैठी बारात आने का इन्तज़ार कर रही थी। कपड़े के एक थैले को कंधे पर लटकाए वह अपने बच्चे को गोद में लिए बैठी थी। पास में ही एक दूसरी बुझी लाइट के पास उसका पति चरना बैठा था। कोई चार-पाँच साल शादी को हो गए; अभी तक ऐसा कोई साल नहीं गया कि उन दोनों ने किसी बारात में बैंड के पीछे बत्तियाँ न उठायीं हों। 

घर पर दो बच्चों को खाना खिलाकर वो सुला आई थी, लेकिन मुन्नू को वो अपने साथ ले आई, क्योंकि अक़्सर वो रात को बीच-बीच में जाग जाता था। मैली साड़ी के आँचल से ढँके मुन्नू को वो ज़ोर-ज़ोर से हिला रही थी, जिससे उसे गहरी नींद आ जाए। जब बारात आ जाएगी, तो वो उसे सँभालेगी या लाइट उठाएगी। 

मच्छरों की गुत्थमगुत्थी और पास के कूड़ेदान से उठती दुर्गंध के बीच उन दोनों को बैठे लगभग आधा घण्टा हो चुका था। बारात आ गयी थी और दूल्हा घोड़ी पर चढ़ गया था। बैंड वाले की कर्कश आवाज़ ने मीनाक्षी और चरना को बत्ती उठाने का आदेश दिया। मुन्नू सो चुका था। मीनाक्षी ने अब उसे अपने कंधे पर टँगे थैले में लिटा लिया था। अमीरों के चन्द घण्टों का शौक़ उन दोनों को बत्तियों के तारों के बीच कभी आगे तो कभी पीछे खींच रहा था। तारों की इस खींचमखांच में मीनाक्षी के कंधे पर टँगा थैला अचानक हिल उठता था और लाइट की रौशनी से गिरते कीट-पतंगें मुन्नू में झुरझुरी पैदा कर देते थे। 

सारी परेशानियों से बेख़बर मीनाक्षी अपने पति के साथ दूसरे दिन के चूल्हे का जुगाड़ कर रही थी। वह मच्छरों के नुकीले आघातों, मुन्नू के बोझ, बैंड वाले की तरेरती आँखों और नाचने वाले शराबियों के बीच अपनी आबरू को बचाते हुए, मिलने वाले चन्द पैसों के ख़्वाब में व्यस्त थी।

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