अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

हमारे राम की 18 कहानियाँ: 1. वन गमन 

 

इससे पहले कि राम कैकेयी के कक्ष से बाहर निकलते, समाचार हर ओर फैल गया। दशरथ पिता और राजा— दोनों रूपों में प्रजा के समक्ष दोषी घोषित कर दिए गए थे। 

राम के निकलते ही सेवक ने सूचना दी, “सभी आपकी मुख्य कक्ष में प्रतीक्षा कर रहे हैं।” 

राम बिना कोई प्रश्न किये मुख्य कक्ष की ओर मुड़ गए। 

द्वार पर पहुँचते ही लक्ष्मण उनसे लिपट गए, “आप चिंता न करें भ‍इया, पूरा जन समूह और माताओं का आशीर्वाद आपके साथ है।” 

राम शांत मन से कौशल्या के सामने खड़े हो गए, “मेरी माता की क्या आज्ञा है?” राम ने पूछा। 

“आज्ञा नहीं है, विश्वास है, तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे, जिससे निर्दोष मारे जायें,” कौशल्या ने द्रवित होते हुए कहा। 

“और छोटी माँ आप क्या चाहती हैं?” राम ने सुमित्रा के समक्ष खड़े होकर पूछा। 

“राम, मैं न्याय चाहती हूँ,” सुमित्रा ने दृढ़ता से कहा। 

“और न्याय क्या है?” राम ने कहीं दूर देखते हुए पूछा। 

“अपने अधिकार की रक्षा करना न्याय है,” सुमित्रा के स्वर में नियंत्रित क्रोध था। 

“और अधिकार क्या है?” राम ने सुमित्रा की ओर अपनी गहरी आँखों से देखते हुए कहा। 

“अपनी जिजीविषा के लिए संघर्ष करना प्राकृतिक अधिकार है,” सुमित्रा के स्वर में चुनौती थी। 

“तो मेरे वन गमन से उसका हनन कैसे होगा? जिजीविषा तो वन में भी पर्याप्त है,” राम ने सरलता पूर्वक पूछा। 

“परन्तु राजा बनना तुम्हारा अधिकार है,” सुमित्रा ने ज़ोर देते हुए कहा। 

“और यदि इसे मैं अपना कर्त्तव्य मान लूँ तो?” राम ने स्नेह पूर्वक सुमित्रा के समक्ष हाथ जोड़ते हुए कहा। 

“सीता, तुम क्या कहती हो?” राम ने सीता के समक्ष आकर पूछा। 

“पिता और राजा दोनों के आदेश का उल्लंघन मात्र तभी हो, जब जन साधारण का अहित होने का भय हो। अपने व्यक्तिगत हितों को न्याय मानकर, राज्य में अराजकता फैलाना, मानवता के लिए हानिकारक है,” सीता ने राम की आँखों में देखते हुए कहा। 

“और तुम लक्ष्मण क्या कहना चाहते हो?” राम ने लक्ष्मण के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा। 

“वचन का निरादर सभ्यता का निरादर है, पिता की वचन पूर्ति पुत्र को करनी ही चाहिए, वह यदि पिता की सम्पत्ति तथा यश का उत्तराधिकारी है तो, वचन का भी है,” लक्ष्मण ने विनम्रतापूर्वक कहा। 

राम मुस्कुरा दिये और मुख्य द्वार की ओर मुड़े, सीता, लक्ष्मण और मातायें भी उनके साथ चलीं। द्वार के बाहर पूरा नगर उमड़ा खड़ा था, सब ज़ोर-ज़ोर से कह रहे थे, “राम हमारा राजा है।” 

द्वार पर बने एक छोटे मंच पर राम खड़े हो गए, राम ने हाथ जोड़ते हुए कहा, “राम अपनी प्रजा को यह विश्वास दिलाना चाहता है कि पूरा राज परिवार यह मानता है कि, इन स्थितियों में वन गमन एक उचित निर्णय है। मेरा राजद्रोह आप सबको युद्ध, अर्थात् विनाश की ओर ले जायेगा। मेरा कर्त्तव्य आपकी युद्धों से रक्षा करना है, न कि उस ओर झोंकना। जिस राजा ने जीवन भरआपकी सेवा की है, इस आवश्यकता की घड़ी में आप उन्हें मित्र की तरह वचन पूर्ति में सहायता दें, और भरत के आने पर उसे वही स्नेह दें, जिस पर उसका अधिकार है।” 

जनसामान्य शांत हो गया तो राम ने फिर कहा, “जाने से पहले मैं चाहता था, मेरा परिवार और प्रजा मेरे निर्णय से सहमत हों, ताकि आने वाले कठिन समय में हम सबका आत्मबल बना रहे, और हम सब याद रखें कि व्यक्ति कोई भी हो, समाज के हित के समक्ष उसके हित तुच्छ होते हैं।” 

जनता राम के वचन सुनकर जनता भाव विभोर हो उठी, आर्य सुमंत ने आगे बढ़कर कहा, “राम, इस नई यात्रा के लिए शुभकामनाएँ, आज तुमने बहुत कुछ व्याख्यायित किया है, जाते-जाते तुम राजा भी हो उठे हो, क्योंकि राजा प्रजा का दार्शनिक भी होता है। उनके विचारों को दिशा देना और उसमें उनका विश्वास बनाए रखना, उसका मुख्य काम होता है; जो तुमने आज कर दिखाया है।” 

दुख की इस बेला में भी सबके मन परम संतोष से भर उठे। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

कविता

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं