अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

हमारे राम की 18 कहानियाँ: 2. राम का चिन्तन

 

राम, सीता, और लक्ष्मण चित्रकूट पर मंदाकनी नदी के किनारे चाँदनी रात का रस ले रहे थे, पवन धीरे-धीरे बह रहा था। पिछले कुछ दिनों से सोने से पहले यहाँ आकर बैठना और विभिन्न विषयों पर चर्चा करना, उनका नित्यकर्म हो गया था। यही वह समय होता जब वे अपने दिनभर के कामों की चर्चा करते, भविष्य की योजनायें बनाते और अयोध्या, मिथिला, गुरु विश्वामित्र, गुरुकुल आदि की बातें करते। 

लक्ष्मण ने कहा, “अयोध्या तो हमारे मन में बसी है, परन्तु इस तरह जंगल में इस उन्मुक्तता का अनुभव करना भी अद्भुत है, मन की सारी अनावश्यक परतें एकएक करके गिरती जाती हैं, जो रह जाता है, वह है शुद्ध चैतन्य, अनंत उत्सुकता, और कोमलता।” 

राम और सीता हँस दिये, “कभी कभी तुम पूरे दार्शनिक हो उठते हो,” राम ने कहा। 

“आप भी तो भैया, जब जंगल वासियों से या ऋषि मुनियों से बातें करते हो तो राजकुमार कहाँ रह जाते हो, एक साधक, एक अन्वेषक हो उठते हो।” 

“तो क्या एक राजा को यह दोनों नहीं होना चाहिए?”सीता ने कहा। 

राम मुस्कुरा दिए, “मेरे विचार से तो राजा को आजीवन विद्यार्थी रहना चाहिए। हमारी प्रजा में कितने संगीतज्ञ, गणतिज्ञ, साहित्यकार, और न जाने कितने गुणीजन हैं, जिनके समक्ष मेरा ज्ञान तृण मात्र भी नहीं, राजा तो बस इन सब के लिए ऐसा वातावरण बनाने का प्रयास करता है, जहाँ यह निश्चिन्त होकर अपनी प्रतिभा का 
विकास कर सकें।” 

“परन्तु यह वातावरण तैयार कर सकना भी तो सरल नहीं,” लक्ष्मण ने कहा। 

“सरल और कठिन होना तो अपनी रुचि पर निर्भर है,” सीता ने कहा। 

“तो क्या मात्र रुचि पर्याप्त है भैया?” लक्ष्मण ने राम को उत्सुकता से देखते हुए कहा। 

“रुचि आरम्भ है लक्ष्मण,” राम के बजाय सीता ने उत्तर दिया। 

“तो भैया, सबसे कठिन क्या है?” लक्ष्मण की दृष्टि राम पर टिकी रही। 

“न्याय देना,” राम ने कहीं दूर देखते हुए कहा। 

“तो क्या न्याय राजा की इच्छानुसार होना चाहिए?” लक्ष्मण अभी भी राम को देखे जा रहे थे, मानो उत्तर के लिए व्याकुल हों। 

“नहीं न्याय सबके लिए समान है, इसलिए वह व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं,” राम ने सोचते हुए कहा। 

“जब क़ानून परिभाषित है तो फिर कठिनाई क्या है?” लक्ष्मण ने बल देते हुए कहा। 

राम मुस्कुरा दिए, “सीता तुम्हारा क्या कहना है इस विषय पर?” 

“मेरे विचार से क़ानून की गहराई से पता चलता है, कि वह समाज बौद्धिक और मानसिक रूप से कितना उन्नत है,” सीता ने सहज मुस्कुरा कर कहा। 

“और यह उन्नत होना क्या है?” लक्ष्मण ने पूछा। 

“उन्नत का अर्थ है उसमें दोषी और निर्दोषी का निर्णय होने के बाद क्षमा और सहानुभूति का कितना 
स्थान है,” राम ने द्रवित होते हुए कहा। 

“अच्छा लक्ष्मण यह बताओ, क़ानून तो नैतिकता पर आधारित होने चाहियें, फिर नैतिक अनैतिक का 
निर्णय कैसे हो?” राम ने लक्ष्मण के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा। 

“भैया, अब आप मुझे उकसा रहे हैं।” 

राम और सीता हँस दिए, “तुम्हारे भैया तुम्हें उकसा नहीं रहे, भविष्य के लिए तैयार कर रहे हैं। यूँ तो हमारे यहाँ शिक्षा जहाँ गुरु शिष्य बैठ जाते हैं, वहाँ आरम्भ हो जाती है, पर एक शिक्षा वो भी होती है, जो मनुष्य ध्यान में, चिंतन द्वारा अपने मन की गहराइयों से पाता है, इस प्रश्न का सम्बन्ध मन की गहराइयों से है,” सीता ने स्नेह से कहा। 

“अर्थात् हम नैतिकता अनैतिकता के ज्ञान के साथ जन्म लेते हैं!”

“हाँ मेरे भाई, और उसी सूक्ष्म नैतिकता के आधार पर हम न्यायप्रणाली का भवन खड़ा कर देते हैं।” 

इससे पहले कि लक्ष्मण अपना अगला प्रश्न रखते, उन्होंने देखा दूर से ढोल, मँजीरे बजाते कुछ स्त्री पुरुषों का झुंड उनकी ओर बढ़ा आ रहा था। 

सीता ने कहा, “इस चाँदनी रात में इनको नींद कहाँ, सारी रात गायेंगे, नाचेंगे।” फिर उन्होंने लक्ष्मण को देखते हुए कहा, “ऐसे अवसरों पर मुझे उर्मिला की बहुत याद आती है। परिस्थतयाँ अक़्सर हमारे हाथ में नहीं होती, तुम दोनों के साथ जो हुआ, वह विषय न्याय-अन्याय से भी परे है।” 

“भाभी, आप अपने पर बोझ न लें, धैर्य का प्रश्न भी नैतिकता से जुड़ा है, हमें अपना कर्त्तव्य निभा लेने दें,” लक्ष्मण ने मुस्कुरा कर कहा। 

राम ने सीता की तरफ़ देखकर आँख की इशारे से उन्हें शांत होने क़े लिए कहा। 

ढोल मँजीरे क़े स्वर एकदम निकट आ गए थे। वे तीनों उनके स्वागत में उठ खड़े हुए। 

जंगल संगीत लहरी में झूम उठा, हर क़दम थरथरा उठा। 

विडियो

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

कविता

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं