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हमारे राम की 18 कहानियाँ: 8. राम, सीता और लक्ष्मण का सपना

 

पूर्णाहुति के पश्चात ऋषि पत्नी मंच पर खड़ी हो गईं, “आप सब अतिथियों को प्रणाम करती हूँ और आभार व्यक्त करती हूँ कि आपने हमारे निमंत्रण का मान रखते हुए, दूर-दूर से यहाँ पधारने का कष्ट किया और हमारे आश्रम का आतिथेय स्वीकार किया। आज यज्ञ का सातवाँ तथा अंतिम दिवस है, पूर्णाहुति दी जा चुकी है, पिछले सात दिन दूर-दूर से आये विद्वतजन विभिन्न विषयों पर अपने विचार रखते रहे, जिन्हें आप सबने आदरपूर्वक सुना, अब समय है प्रश्न पूछने का। प्रश्न का अधिकार दिए बिना यह कार्यक्रम पूर्ण नहीं हो सकता। प्रश्न जानने की पहली सीढ़ी है, दूसरों के विचारों का आदर करना, आत्मिक विस्तार की दूसरी सीढ़ी है, उत्तर देना नए प्रश्नों की ओर ले जाने वाला अगला क़दम है। इस अर्थ में यहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है, प्रश्न पूछने के लिए ओर उत्तर देने के लिए भी, और यही हमारे गुरुकुल का लक्ष्य है, हम जीवन में यह अनुभव कर सकें कि प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी अर्थ में हमारा गुरु है, और प्रत्येक गुरु शिष्य भी है।” 

ऋषि पत्नी ने यह कह कर अपना स्थान ग्रहण किया, कुछ पल तक उस वृक्षों से घिरी विस्तृत यज्ञशाला में घिरी शान्ति, चढ़ते सूरज के साथ जंगल कीचुप्पी को और भी गहरा करती रही। फिर पंद्रह वर्ष का एक तेजस्वी युवक खड़ा हुआ, “मेरा नाम भास्कर है, मैं इसी गुरुकुल का शिष्य हूँ, और मेरा प्रश्न राम से है, यद्यपि उन्होंने पिछले सात दिनों में कोई उपदेश नहीं दिया, अपितु अपने भाई के साथ आश्रम की रक्षा का उत्तरदियत्व सँभाला है, परन्तु उन्होंने उन सब विद्वतजनों को सुना है, जिन्हें मैंने सुना है, और मेरे भीतर जो प्रश्न जन्मा है, उसका उत्तर सम्भवतः उन्हीं के पास है, यदि वे आज्ञा दें तो मैं प्रश्न निवेदित करूँ!” 

राम ने अपना धनुषबाण साथ खड़ी सीता को दे दिया, और स्वयं मंच पर आ गए। 

सबको प्रणाम करने के पश्चात उन्होंने कहा, “पूछो भास्कर, मैं यथासम्भव उत्तर देने का प्रयत्न करूँगा।” 

भास्कर ने प्रणाम करने के पश्चात कहा, “राम वन में आपकी विनम्रता, उदारता, करुणा, साहस की कथाएँ प्रचलित हो रहीं हैं, यहाँ आपने सबको अपना समझा है, और अपनी पत्नी तथा भाई के साथ अपनी कुटिया के द्वार सभी प्रार्थियों के लिए खोल दिए हैं, इसलिए यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि एक दिन आप योग्य राजा बनेंगे, परन्तु आप जैसा मनुष्य हज़ारों वर्षों में एक बार जन्म लेता है, परन्तु राज्य और राजा तो निरंतर बने रहते हैं। नगरों में रहने वाले साधारण जन, प्रायः सम्मानपूर्वक जीवन नहीं जी पाते।” 

उत्तर देने से पूर्व राम की दृष्टि सीता और लक्ष्मण की ओर गई और वे मुस्कुरा दिए, “इस विषय पर हमारी प्रायः चर्चा होती है, और मैं तुम्हारी बात से सहमत हूँ, नगर प्रकृति से टूट जाता है, और नागरिकों में धन जोड़ते चले जाने की लालसा जाग उठती है। एक वर्ग अधिक शक्तिशाली हो जाता है और सारे नियम, क़ानून, वह अपने लाभ के लिए बनाता चला जाता है। मनुष्य ‘सामान्य’ और ‘विशेष’ हो जाते हैं।” कुछ पल राम अपने चिंतन में लीन प्रतीत हुए, फिर उन्होंने कहा, “नगर में मनुष्य का सामर्थ्य अर्थ-व्यवस्था से जुड़ा है, हम ऐसे क़ानून बना सकते हैं, जिसमें कोई व्यक्ति विशेष अपनी आवश्यकताओं से बहुत अधिक न पाए, और न ही कोई दीन-हीन रह जाए।” 

“परन्तु यदि मनुष्य को अपनी प्रतिभा और परिश्रम का उचित पुरस्कार नहीं मिलेगा, तो वह प्रयत्नशील नहीं रहेगा।,” किसी आचार्य ने कहा। 

“सीता तुम इसका उत्तर देना चाहोगी?” राम ने सीता को देखते हुए कहा। 

सबकी दृष्टि सीता की ओर मुड़ गई, सीता राम के धनुषबाण को उठाये मंच पर आ गई, उनके तेज और आत्मविश्वास से यह स्पष्ट था कि वह स्वयं भी धनुर्धर हैं। 

हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए उन्होंने कहा, “आचार्य, आज्ञा दें।” 

“अवश्य देवी सीता, अपने दृष्टिकोण से हमें लाभान्वित करें।” 

“आचार्य, धन की प्रप्ति मात्र परिश्रम से नहीं होती, वह होती है उचित अवसर तथा उचित ज्ञान से, नया ज्ञान पुराने का ऋणी होता है, और यह पुराना ज्ञान समाज के प्रत्येक व्यक्ति की सम्पति होता है, और अनुकूल अवसर भी समाज के सभी भागों के प्रयत्न से धीरे-धीरे तैयार होते हैं, इसलिए किसी को भी सीमा से अधिक धन संचय का अधिकार नहीं होना चाहिए।” 

“उस सीमा का निर्णय कौन करेगा?”आचार्य ने पूछा। 

“उसका निर्णय आप विद्वतजन और प्रजा के योग्य व्यक्ति करेंगे, वास्तव में लक्ष्मण इस चर्चा का भाग बनने के लिए उत्सुक है, नियम कैसे हों, यह समझने के लिए वे कई प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन कर रहे हैं,” जैसे ही राम ने अपनी बात समाप्त की, सबकी दृष्टि एक पल के लिए स्वतः लक्ष्मण की ओर मुड़ गई, और लक्ष्मण ने जहाँ अपना धनुषबाण लिए खड़े थे, वहीं से हाथ जोड़ दिये। 

“परन्तु राम क़ानून चाहे कितने भी श्रेष्ठ क्यों न बना दिए जाएँ, उनकी सफलता उनके पालन करने वालों पर निर्भर करेगी, और चरित्र की दृढ़ता का वचन कोई नहीं दे सकता,” किसी किसान ने खड़े होकर हाथ जोड़ते हुए कहा। 

“इसका उत्तर भी देवी सीता देंगी,” राम ने हाथ जोड़कर मुस्कुराकर कहा, और सीता से धनुषबाण ले लिया। 

सीता ने एक बार फिर से सभा को हाथ जोड़कर कहा, “तो आवश्यकता है हम मनुष्य के आंतरिक निर्माण की प्रक्रिया को समझें, हमारी माताएँ कर्मठ और स्नेहशील हों, मातृत्व का सम्मान हो, और मातायें पहले सात वर्ष अपने शिशु का लालन-पालन स्वयं करें, हमारे शिशु कुछ वर्ष प्रकृति की गोद में विभिन्न कलाओं में पारंगत हों। समय के साथ अन्य व्यवसाय भी सीखें, इन सब में गुरु शिष्य के प्रति स्नेह बनाए रखें, शिक्षा मनुष्य के निर्माण का साधन है, इसका दान प्रतिदान इसी भाव से हो। मनुष्य का चरित्र स्नेह तथा ज्ञान से बनाया जा सकता है।” 

प्रश्न सभी शांत हो गए, तो भोजन पश्चात ये तीनों कुटिया लौट आये, देखा तो भास्कर वहाँ पहले से ही उपस्थित है। 

“क्षमा चाहता हूँ राम, अभी मेरे प्रश्न समाप्त नहीं हुए।” 

“हाँ पूछो,” राम ने उसके लिए आसन बिछाते हुए कहा। 

“राम, मैं ऋषिपुत्र हूँ, वन मेरी माँ भी है और गुरु भी। यहाँ के झरनों, पशु पक्षियों, बादलों की गड़गड़ाहट में संगीत को सुना है। अपने बच्चे को भोजन कराती मैना में नृत्य देखा है। प्रकृति के स्वयं को बार-बार दोहराने में गणित को देखा है। यहाँ की वनस्पति, मिट्टी मेरी नस नस में बसी है और जब मैं ध्यान में इन सबका चिंतन करता हूँ तो मानो ब्रह्मांड स्वयं अपने भेद खोलने लगता है। यहाँ हम तामसिक प्रवृत्तियों से दूर, ज्ञान की पिपासा में जीते हुए अपने जीवन का सुख पा जाते हैं, यहाँ कला, ज्ञान, शान्ति सब हैं, फिर नगर बसाकर जीवन और वातावरण को भ्रष्ट क्यों किया जाय?” 

“इसका उत्तर तो तुम्हें इतिहास में ढूँढ़ना होगा, मैं तो इतना जानता हूँ, कोई अदृश्य नियम इस प्रकृति को चला रहा है, और मनुष्य पल-पल उसके अनुसार ढल रहा है, उसके वश में मात्र इतना है कि वह स्वयं को ब्रह्माण्ड से और समाज से जोड़े रखे, समाज का निर्माण जिन भी कारणों से हुआ हो, अब उसका लौट कर जाना असंभव है, परन्तु नगर जनों को सहज होने का प्रयत्न करना चाहिये, इसीलिये सीता ने आरम्भिक शिक्षा वन में करने की बात कही थी।” 

“जी, मुझे उत्तर मिल गया।” 

भास्कर चला गया, तो लक्ष्मण ने कहा, “प्रश्नों के साथ जन्में हैं हम, और सुख सुविधाओं का मोह भी है, कभी तो ऐसा समाज बनेगा, जब दोनों में संतुलन होगा।” 

राम मुस्कुरा दिए, “हाँ लक्ष्मण हम करेंगे ऐसे समाज का निर्माण।” 

आसमान में बादल घिर रहे थे, वे तीनों अपने विचारों के साथ, शांत बैठे थे। 

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