जीवन संध्या की बेला है
काव्य साहित्य | कविता डॉ. सुनील शर्मा15 Sep 2021 (अंक: 189, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
दिन इक इक करके उड़ चले
हाथों में बची कुछ यादें ही
आँखों में धुंधलके छाने लगे
दिल से उठीं बस फ़रियादें ही
तनहाई की दम घोंटू फ़िज़ा
क्या गुज़रा जिसकी पाई सज़ा
महफ़िलें हमारे गिर्द थीं जो
अब उनके हैं बस वादे ही
जीवन में न थी रंगों की कमी
रस भी थे और रंगायन भी
कुछ ऐसा पटाक्षेप हुआ
भूले हम थे शहज़ादे भी
जीवन संध्या की बेला है
कब उठ कर चलना पड़ जाए
कुछ साज सामान ले जाना नहीं
चल देंगे यूँ ही सादे ही
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