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कवि मृत्युंजय: आत्मीयता और पाठक के सारथी कवि 

 

“मैं रोना चाहता हूँ! 

आँसू भरे हुए दिमाग़ पर ज़ोर डाल रहा हूँ 
कि बूँद भर भी नहीं निकलेगा आँसू

रोना तो हमेशा किसी के सामने चाहिए

अपने ही सामने बैठ कर रोना 
हमेशा की तरफ़ इस बार भी कम टिका

जब कि मैं चाहता हूँ ख़ूब रोऊँ

इधर उधर देख कर रोना भी 
अंततः अपनी तरफ़ देख कर रोना बन जाता है

इसमें सोने की तुक मिला दूँ क्या? 
या फिर खोने का?”1

ऊपर अंकित कविता कवि मृत्युंजय की है। इस कविता को पढ़ते ही यह महसूस होता है कि इस कविता में बेहतरीन रूप से नाटकीयता को गढ़ा गया है। यह कविता पहली है जो मेरे सामने आई थी। इसके बाद तलाश की गई और मृत्युंजय का काव्य संग्रह हाथ लगा। काव्य संग्रह ‘स्याह हाशिए’ नाम से प्रकाशित तथा इस लेख के लिए मैंने उनके काव्य संग्रह एवं कुछ हिंदी समय पर प्रकाशित कविताओं का प्रयोग किया है। 

इस आलेख को हम पाँच हिस्सों में विभाजित करते हैं। सर्वप्रथम कवि मृत्युंजय की भाषा पर चर्चा होगी। दूसरा उनकी कविता की संरचना एवं रूप को समझने का एक प्रयास करते हुए तीसरे अंश के भीतर कविता की आंतरिक अंतर्वस्तु की पड़ताल की जाएगी। चौथे हिस्से में हम मृत्युंजय के आदर्श लोक या स्वप्नलोक समझने का प्रयास करेंगे। अंतिम एवं पाँचवें हिस्से में समकालीन दौर और कवि मृत्युंजय की कविताओं को एक साथ रखकर उनकी कविताओं का मूल्यांकन किया जाएगा। यह बात अवश्य ध्यान देने योग्य है कि यह पाँच हिस्से कोई एयरटाइट कंटेनर नहीं है आप इनकी बातों को एक दूसरे में मिलते जुलते देखेंगे। 

कवि मृत्युंजय की कविताओं के पहले हिस्से पर अगर हम बातचीत करें तो दो बातें निकल कर सामने प्रकट होती हैं। सर्वप्रथम, उनकी भाषा की ख़ासियत है कि वह सरल, सटीक एवं साफ़ भाषा है। उनकी कविताओं की भाषा आपको आम जनता आमतौर पर सड़क पर बोलती हुई मिल जाएगी। मृत्युंजय की कविताओं में आपको तीन प्रकार के शब्द देखने को मिलेंगे। वह तीन भाषाएँ हिन्दी, उर्दू और भोजपुरी हैं। इस बात को यहाँ रेखांकित करने का कारण बस इतना सा है, कि, इन्हीं अल्फ़ाज़ का प्रयोग वह पानी में शक्कर की तरह करते हैं। वह तीन भाषाओं में मिश्रित कविता लिखते हैं और उनके शब्दों का चयन कुछ अलग है। आपको एक बार पढ़ने पर साधारण अर्थ प्रदान करेगा परन्तु उसके साथ ही वह आपको विभिन्न अर्थ की तलाश करने के लिए भी प्रेरित करेगा। जब इस तरह की कविता पढ़ते हैं जो शब्दों से अर्थ के जाल बुनती हो, वह अपने पाठक के मन में एक बैचेनी, एक सवाल कौंधा जाती है। भाषा से खेलते हुए नज़र आते हैं। कवि मृत्युंजय की कविताओं से कुछ हिस्से नीचे उद्धृत कर रहा हूँ:

“मैंने कभी उसको देखा नहीं 
उसके बारे में लिखे हुए शब्द, 
यादें और क़िस्से
मेरे विश्वास के दरवाज़े से भीतर ही नहीं जा पाते

तसव्वुर में फ़र्क़ है

उबलती भट्ठियों सी 
बुलबुलों में लहकती हैं भावनाएँ 
रोंगटों में भरी जाती
खड़ी सिहरन”2

“आगि क बाट अकास अंगार चला सखि देस के रौरव बीचे
पेड़े पे रैती इनारे में रेती पराती में रेती बरौनी के नीचे
ऊसर काँकर बंजर पाथर हड्डी से तोरि पसीना से सींचे
फाँसी के फूल कपास उगे गोइयाँ चला मौत के खेतहिं बीचे”3 

इससे पहले कि कविता की संरचना के बारे में बात हो, उससे पूर्व टेरी ईगलटन के द्वारा रचित लेख पर चर्चा कर लेते हैं। उस लेख का शीर्षक है ‘लेखक एक उत्पादक के रूप में’। इस लेख में कहते हैं कि लेखक इस व्यापार की दुनिया से मुक्त नहीं है। लेखक उसी की रचना करता है जो प्रकाशक के द्वारा प्रकाशित किया जाएगा और प्रकाशक वही छापता है जिस की बाज़ार में बिक्री होती है। इसलिए लेखक की कोई भी रचना बाज़ार से मुक्त नहीं होती है। रचना केवल एक उत्पाद ही है। उसकी कोई स्वतंत्र अस्मिता नहीं होती है। इसके चलते हर उत्पाद की तरह रचना को भी लेखक से अलग करने का प्रयास किया जाता है। रचना लेखक और पाठक की त्रय को तोड़ने का प्रयास भी होता है। जो अधिकतर आलोचक करते हैं। रचना को एक स्वतंत्र वस्तु के रूप में देखकर उसकी व्याख्या की जाती है। परन्तु जब आप कवि मृत्युंजय की कविताओं की संरचना की बात करते हैं तब यह बात स्पष्ट होती है कि उन्होंने ख़ुद को कविता में गढ़ा है। उनकी कविताओं में आत्मीयता कुछ अधिक स्तर पर ही है इसके बारे में हम इस लेख के अगले हिस्से में बात करेंगे। 

मृत्युंजय की कविताओं में मुझे तीन चीज़ें नज़र आती हैं—सर्वप्रथम, नाटकीयता, फ़ैंटेसी और अंतिम छंदों का प्रयोग। आप में से कुछ व्यक्ति यह प्रश्न अवश्य कर रहे होंगे कि फ़ैंटेसी और नाटकीयता को मैंने दो अलग-अलग स्वतंत्र चीज़ों के रूप में क्यों रेखांकित किया है। इस प्रश्न के उत्तर में नीचे उद्धरण दे रहा हूँ:

‘फ़ैंटेसी’ मनोविज्ञान का शब्द है। इसका सम्बन्ध स्वप्न और अवचेतन मन में घटित होने वाली घटनाओं की विघटित और बेतरतीब दिग्बावलियों से है। साहित्य या काव्य में यह एक टेकनीक के रूप में प्रयुक्त की जाती है। इसमें भी विम्बों, प्रतीकों, मिथकों आदि को अतर्कानुमोदित पद्धति पर उपस्थित किया जाता है। एक फेंटसी रूपक हो सकती है। पर जहाँ पूरी कविता में फैटेसियों ही फैटेसियाँ ही वहाँ उनके टैक्श्चर में काफ़ी भिन्नता होती है। एक टैक्श्चर दूसरे टैक्श्चर का विपरीतार्थक या विसंगत्यात्मक कुछ भी हो सकता है फ़ैंटेसी की केवल मानसिक शक्ति नहीं है, उसकी बिम्बात्मक और निगूढ़ अर्थवत्ता उसके विघटन और विशृंखलन पद्धति में निहित होती है।”4

“देखो, देखो, छू मत जाना, 
जनता से! 

बंद कक्ष की कठिन तपस्या खंडित होगी 
पोथे पत्रे क्रांतिकारिता के सब गंदे हो जाएँगे
मंदे पड़ जायेंगे धंधे क्रान्ति व्रान्ति के 
सात हाथ की चौकस दूरी हरदम रहो बनाए 
छाया भी न कहीं पड़ जाये . . .। 

जनता संघी, जनता पागल, जनता है बदमाश 
मध्य वर्ग कैंडिलधारी है, निम्न वर्ग बकवास 
दिल्ली, बंबई, बंगलोर में लघु कमरों के अंदर 
पाँच पाँच रहते हैं सब है अन्ना टीम के बन्दर 
नौजवान नवयुवती करते पिकनिक में आंदोलन 
तुम पवित्र अति धीर भाव करते विचार उत्तोलन

यह जनता अब काम न देगी
जनता नयी गढ़ाओ कुछ सुमेरु कुछ मंगल ग्रह से
कुछ नेपाल से कुछ क्यूबा से जनता माँग ले आओ
क्रान्ति की अलख जगाओ! 

देखो बँधूँ, छू मत जाना
मत शरमाना
जनता नयी मँगाना 
फिर बदलना जमाना।”5

“मेरा शरीर एक देश है
सागर से अम्बर तक, पानी से पृथ्वी तक
अनुभव जठराग्नि के खेत में 
झुकी हुई गेहूँ की बाली

मेरे हाथ, मेरा दिल, मेरी ज़ुबान
मेरी आँखें, त्वचा और जाँघें सब 
अब इतनी हसरत से ताकते हैं मेरी ओर 
जी भर आता है। 
इन्हीं में तुम्हारे निशान हैं सर्द सख़्त
इसी ठौर दिल है। 
लदा फँदा
दुःख और इच्छा से 
मोह से बिछोह से

सिर्फ़ साधन नहीं है मेरी देह, 
न सिर्फ़ ओढ़ने की चादर
मुझे इससे बहुत, बहुत इश्क़ है

इसी घर के साये में 
कोई बैठा है
चुपचाप

अपना ही, लगाए घात
छोटा सा
बामुलाहिजा अदव के साथ, 
इंतज़ार करता हुआ वाजिब वक़्त का”6 

इन उदाहरणों से यह तो बात स्पष्ट की कवि मृत्युंजय की कविता जहाँ तक फ़ैंटेसी गढ़कर अपने रसिक के मस्तिष्क पर अंकित होती है, वहीं अपनी नाटकीयता के कारण आपको रोमांचित भी कर जाती है। इनकी फ़ैंटसी मुक्तिबोध के निकट की भी है, इस बात को हम अंतर्वस्तु की चर्चा के दौरान समझने का प्रयास करेंगे कि कवि मृत्युंजय मुक्तिबोध के निकट कैसे पहुँचते हैं। अब तक की बातचीत यह स्पष्ट करती है कि कवि मृत्युंजय पाठक को एक कविता से नहीं बल्कि ख़ुद से मिलाते हैं। इस नाटकीयता के कारण मृत्युंजय अपने पाठक के मस्तिष्क पर अंकित हो जाते है। बशीर बद्र का शेर है जिस को में नीचे उद्धृत कर रहा हूँ। ऐसा प्रतीत होता है की कवि मृत्युंजय ने इस सलीक़े को अपने क़ाबू में कर लिया है। 

“यहाँ लिबास की क़ीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे”

इस अंश की अंतिम वस्तु पर चर्चा कर लेते हैं। समकालीन हिंदी कविता में छंद का ज्ञान रखने और उनका प्रयोग करने वाले कवि कम ही नज़र आते हैं। परन्तु कवि मृत्युंजय की कविता में आपको केवल छंद ही नहीं प्राप्त होते हैं, बल्कि वह नए रूप लेकर आपके सामने प्रस्तुत होते हैं। मृत्युंजय छंदों के संग खेलते, प्रयोग करते नज़र आते हैं। इस बात का अर्थ है कि छंद अक्सर अपने साथ एक तरह के अर्थ की ज़मीन रखते हैं जैसा कि कुछ छंद सिर्फ़ वीर रस के काव्य को व्यक्त करने के लिए लिखे जाते हैं परन्तु कुछ कवि उसके द्वारा प्रेम भी व्यक्त करते हैं। इसलिए कवि मृत्युंजय इन छंदों को नया अर्थ प्रदान करते हैं। जब आप इनके काव्य से अवगत होते हैं तो यह महसूस करते हैं कि कवि मृत्युंजय छंदों के नाद, ध्वनि से अवगत हैं और इसको अपने पक्ष में प्रयोग करने में सफल भूमिका अदा करते हैं। मैं नीचे कुछ उद्धरण प्रस्तुत कर रहा हूँ:

“माटी में खेलत खात नहात ई माटी के नेह ह माटी क लीला/माटी क फूल अकास पताल भ धूरि के बादर से मन गीला/माटी के नहीं में माटी क नाव माटी के सुग्गा के बोल रसीला/प्लास्टिक पन्नी के राज गली कभो माटी के राज होई अलबीला”7 

“ई बिजुरी चमकावति दुःख ई बादर तोप बनूक चलाई/रोपत रोवत देहिं गलै औ कभू न मिलै तिन सेर रोपाई/धाने के खेत के टूटल मेंड़ पे कर्ज के खारिज दाखिल माई/देसे के दीया फतिंगा मजूर क पाँख जरै करपूर की नाई”8 

यह छंदों के साथ एक कवि का खेल उसको मुक्त छंद की कविता में भी नाद एवं ध्वनि से खेलना सिखा देता है। उनकी कविता में भी यह ध्वनि की रोचकता नाटकीयता में एक उत्तम रूप से इज़ाफ़ा कर उसको और रोचक ओर रसिक प्रिय बनाती है। अब तक हमने कवि मृत्युंजय की कविताओं के शरीर का माप लिया है, परन्तु, इस शरीर के भीतर जो आत्मा बसती है उसको खोजना-समझना भी उतना ही आवश्यक है। इस आलेख के अगले हिस्से में उनकी कविताओं की अंतर्वस्तु पर चर्चा की जाएगी। 

अब अंतर्वस्तु की चर्चा करते हुए हम ऊपर छंदों की परंपरा की चर्चा करके आए हैं। इस से एक बात तो स्पष्ट है कि कवि मृत्युंजय को अपनी काव्य परंपरा के ज्ञान सागर की काफ़ी गहराई तक समझ है। वह केवल साहित्यिक परंपराओं से ही नहीं बल्कि सामाजिक परंपराओं से भी उतने ही परिचित हैं। उनकी कविता पढ़ते हुए आपको कुछ बातें स्पष्ट रूप से नज़र आएँगी। सर्वप्रथम वह अपने से पूर्व, बीते हुए कवियों को बार-बार अपनी कविता में अंकित करते हैं साथ ही उनकी रची हुए रचनाओं के प्रयोग से नए मायने प्रदान करते हैं। इस के कुछ उद्धरण में नीचे उद्धृत कर रहा हूँ:

“केकरे काने कोइल कूके केकरे अम्मलतास
टेसू लसलस कवन गली कहवा अफनाए साँस 

कौन कहावे देशभक्त और कौन कहावे द्रोही
कइसन केकर चौक चाँदनी केकरे अँगना सोही 

कहाँ से आवे पैसा-कौड़ी कहवाँ से कानून 
कहँ विकास कै बजे बधावा जुरै न रोटी-नून

सुस्शासन कै बाघ कहाँ दूनों आँखिन से आन्हर 
कहँ बौराया जिउधर घूमै ज्यौं पलिहर के बानर

केकर बिटिया नैहर लूटै के कर बेटवा खेती 
कौन देश में जेपी मिलवें सिरमिट बीचे रेती

बे-दंता कहँ दाँत गड़ावै धान पान औ माटी 
के खदान के जख्म हरियरा खुरदुर जीभी चाटी”9

“साधी, भ्रष्टन के कहँ लाज!/चाल चरित्र चित्र सब चकचक, चौचक चपल समाज/कर्नाटक की कुञ्ज गलिन में किलकत है बेल्लारी।/येदुरप्पा के पदचिन्हन पर सदानंद की बारी/अडवानी के परम दुलरुवा, सुषमा दीन्हा राज,/बरन बरन के खनिज मँगाए, बाँह गहे की लाज/लूटत, खात, अघात परसपर साधत हैं सब काज।/देशभक्ति के नव परिभाषा संघ गढ़त है आज/कलि कराल में भ्रष्ट महासुख, भ्रष्टन ही कै राज।/साखामृग इतराय फिरें सब, यही बात के नाज”10

दूसरी बात और दिलचस्प है क्योंकि गोरख पाण्डे की कविताओं को पढ़ते हुए आपको महसूस होगा की वह जनता से लेकर जनता को ही लौटा रहे हैं। मतलब जनता की भावनाओं को सिर्फ़ अल्फ़ाज़ देने का कार्य वह करते हैं। इसस बात को प्रो. प्रणय कृशन निम्न शब्दों में लिखते हैं: 

“गोरख के लिए लोककथाएं, क़िस्से, मुहावरे और मिथक न तो अलंकरण हैं और न ही दृष्टांत बल्कि वे सामंती समाज के लोकमन की संरचनाएँ हैं। वे इन संरचनाओं के भीतर से लोकमन के द्वंद्वमय गतिविज्ञान को उघाड़ देते हैं। 

उनकी भाषा सामंतों और ग्रामीण ग़रीबों, दोनों ही वर्गों की आंतरिकता को जानती है, जनाती है। वह कभी मिथक को तोड़कर उसके सारभूत यथार्थ को प्रकट कर देती है और कभी यथार्थ को ही मिथक में बदल देती है।”11 

इस बात को कवि मृत्युंजय की कविताओं में भी देखा जा सकता है। उस के कुछ उद्धरण इस प्रकार हैं: 

“बस्तरिया मैना के कंठ में उग आये काँटे
मस्त मगन अरना भैंसा थक कर के चूर हुआ 
मैनपाट में जल समाधि ले ली नदी ने 
गहरी और छोटी वन मेखलाएँ जिनका अभी नाम भी नहीं पड़ा 
पहली बार लादी गयीं नंगी कर रेलों में 
सूर्य को देखे बिना बीत गयी जिनकी उमर 
उन वनवृक्षों की छालें उतारकर 
रखी गयी गिरवी
घोटल समुदाय गृहों पर हुई नालिश
कैसी है आयी ऋतु अबकी बसंत में”12 

परन्तु प्रश्न यह है कि मृत्युंजय की परंपरा है क्या? यह किस काव्य धार के कवि है? इस का उत्तर पाने के लिए आप को लौटना पड़ेगा उनकी कविताओं की ओर। मैं नीचे कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ:

“सोडियम क्लोराइड के द्रव और/ऑक्सीजन गैस का दबाव बढ़ाते/विशेषज्ञ आये/मलबे के बोझ से सिहर रहा है विचार तंत्र/लम्बी सिरिंजों पर लाभ का निशान चटख/डाली गयीं लम्बी और पतली नलिकायें/दुश्मनों के गढ़ तक पहुँचने की ख़ातिर/घर में आहत हुए भस्मासुर/नज़र तनिक फिरी नहीं कि गोली चली नहीं/मेरे भीतर मेरी ही लाशें भरी हैं/बावन अंगुल की बावन लाशें/इतने सब के बाद भी/फिर फिर पलट पड़ता है हत्यारा खेल/शरीर के भीतर ही बर्बर नरसंहार/दुश्मन से लड़ने के/आदिम सलीक़े से/पूरा पूरा नगर जला दिया बानरों ने/पूरा वन प्रांतर, गिरिखोह/सब कुछ उजाड़ दिया/अँकुवाई धरती भी वृक्षों संग जल मरी/लाख बेगुनाहों की क़ीमत पर/पकड़ा गया है संभावित गुनाहगार/तंत्रों से, यंत्रों से, अधुनातम मंत्रों से”13

यह पंक्तियाँ पढ़ते ही आप के दिमाग़ में कौंधी होगी मुक्तिबोध की कविताओं की झलक या आए होंगे गोरख एक कविता के संघ या फिर सर्वेसवाल दयाल सक्सेना की कोई कविता। इस परंपरा को प्रणय कृशन जी ने गोरख की कविता को समझते हुए बहुत संक्षिप्त और बेहतरीन रूप से प्रस्तुत किया है। मैं उस को नीचे उन्हीं के शब्दों में उद्धृत कर रहा हूँ: 

“मुक्तिबोध ने हिंदी कविता को इस हद तक क्रांति का सहयात्री बना दिया था कि कविता को उस रास्ते आगे बढ़ाने का काम बहुत लंबी साँस और बड़े जिगर की माँग करता था। हिंदी कविता इस उत्सर्गमय रास्ते से बड़ी तेज़ी से पीछे हटी है, लेकिन गोरख और उनके हमसफ़र इस कठिन चुनौती को स्वीकार करके चले।”14 

कवि मृत्युंजय भी इस क्रांति की कविता-धारा के ही कवि हैं जो समाज में व्याप्त असंगतियों, सत्ता के सताये हुए लोगों की आवाज़ है। टी.एस. एलियट का एक लेख है जिसमें वह परंपरा और इंडविजुअल टैलेंट की बात करते हैं। यह बात भी ठीक है कि लिखी-लिखाई बातों को बार-बार करने से क्या फ़ायदा होगा? पहले यह समझना ज़रूरी है कि मुक्तिबोध की जिस परंपरा को गोरख पाण्डे आगे बढ़ा रहे है उसके भीतर गोरख का नया क्या लाते हैं? 

“गोरख का क्रांतिकारी कविकर्म, मुक्तिबोध की ही तरह इस तथ्य से लगातार उलझता है कि अभिव्यक्ति मध्यमवर्ग के पास है जबकि गहन गंभीर अनुभव ग़रीब और उत्पीड़ित वर्गों के पास हैं। मुक्तिबोध की काव्ययात्रा के आरंभ में ही उनके सामने यह समस्या खड़ी है—‘मैं उनका ही होता जिनसे रूप भाव पाए हैं’।”

मुक्तिबोध के भीषण आत्मसंघर्ष ने इस समस्या को हल करने की दिशा में एक मंज़िल पार कर ली थी। उन्होंने गोरख जैसों के लिए ज़मीन साफ़ की थी। मुक्तिबोध की सीख थी कि क्रांति को कविता के एजेंडे पर सबसे ऊपर रखकर चलने वाले रचनाकार के लिए इस अंतर्विरोध को हल करना सबसे ज़रूरी है। 

जहाँ मुक्तिबोध अन्तर्वस्तु और रूप के द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध में गहरे उतरकर फ़ैंटेसी के शिल्प को उपलब्ध करते हैं, वहीं गोरख के लिए संप्रेषण की समस्या केन्द्रीय चिंता बन जाती है। 

गोरख के शब्दों में, “कलात्मकता और लोकप्रियता एक दूसरे की विरोधी नहीं बल्कि सहयोगी है। हम मध्यवर्ग के लिए या उच्‍चवर्ग के लिए किसान और मज़दूर के जीवन और संघर्ष से जुड़ी रचनाएँ नहीं करते, हमारे प्राथमिक श्रोता और पाठक ख़ुद मज़दूर और किसान हों, इस पर ध्यान देना चाहिए।”15

इसी क्रम और द्वंद्व में कवि मृत्युंजय अलग तरह का तरीक़ा निकालते हुए नज़र आते हैं। वह अपने आपको ही कविता में गढ़ देते हैं। आप कोई कविता ना पढ़ रहे हों, बल्कि उनकी ही आवाज़ या ज़ुबान से वो कविता सुन रहे हों ऐसा प्रतीत होता है। कवि मृत्युंजय कविता में व्याप्त भाव को अपने भीतर इतने भीतर तक बसा लेते हैं की कविता में वह ख़ुद उस भाव के सारथी के रूप में नज़र आते हैं। अक्सर सारथी योद्धा का रास्ता सरल ही करता है और वह कविता को इतना सरल बना देते हैं। इसलिए उनको अपने पाठक का सारथी कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। परन्तु मुक्तिबोध की फांतासी ओर गोरख की सरल बानी का मिलन ही कवि मृत्युंजय का अपना टैलेंट समझ आता है। 

मृत्युंजय की कवितों में केवल क्रांति ही नहीं है बल्कि कुछ प्रेम कविताएँ भी नज़र आती हैं। वह इतनी सरल हो जाती हैं कि प्रेम के भीतर की सारी चीज़ों को अस्त-व्यस्त करके नए सिरे से आपको सोचने और समझने के लिए मजबूर करेंगी। में नीचे कुछ उद्धरण पेश कर रहा हूँ जो आप को यह बात समझने में सहायता करेंगे: 

“‘मैं तुमसे प्यार करता हूँ’
निश्छल इस वाक्य के नीचे 
कई कई सौ हज़ार ग़ायब तहख़ाने हैं 
बेपनाह ताक़त और बेशुमार आदत 
अरबों हत्यानुभाव 
सदियों की कुंठा और अपनी कमजोरियाँ
 . . . . . .।

प्रेम के हज़ार अर्थ 
दमन का यह एक ही 
भाषा की सीमा से परे 
किसी काव्यभाषा के बस में नहीं यह सब 
कह पाना”16
 
“यही होता है हमेशा 
हमेशा यही होता है
तुम्हारे बारे में सोचते-सोचते
मैं अपनी बातें सोचने लगता हूँ
तुम्हारे बारे में सोचना
आज तक नहीं आया मुझे”17 

हर कवि का अपना एक संसार होता है जैसे कि तुलसी का राम राज्य है, सूर का कृशन की नगरी, रविदास का बेगमपुरा है। इसी को सैद्धांतिक भाषा में आदर्शलोक (utopia) कहते हैं। कवि मृत्युंजय का आदर्शलोक भी उनकी तरह रोचक ही है। उनकी कविता पढ़ के लगता है कि वह कम्युनिस्ट विचार धारा से सम्बन्ध रखते हैं इसलिए उनका आदर्शलोक वैसा ही होगा जैसा एक कम्युनिस्ट विचार धारा वाले व्यक्ति का होता है। परन्तु मुझे उनका काव्य लोक थोड़ा महिन लगता है उनकी कविताओं से मुझे लगता है की उनके आदर्श लोक में आने वाली पीढ़ी की देखभाल होगी, उसकी असुरक्षाओं का समाधान होगा। नारी चेतना भी और सुदृढ़ होगी। उनका आदर्शलोक मुझे किसी चाय की टपरी-सा लगता है जहाँ कोई समस्या नहीं है सब बराबर है हर चीज़ पर बात करने की आज़ादी है। उनका आदर्शलोक, कबीर का आदर्शलोक होगा। कवि मृत्युंजय के आदर्शलोक (utopia) में मज़दूर वर्ग मिडल क्लास की समस्याओं का अंत ज़रूर नज़र आता है। उनके आदर्शलोक की शक्ल इस लेख से समझी जा सकती है:

“मौत की आँखों में नींद के चहबच्चे थे/शिराओं के अंत में थकन भरे बुलबुले/जतन से कसी बँधी चोटी की गाँठें/खुली खुली जाती थीं/घुटनों पर ठुड्डी टिकाये हुए/बेहद उदास और ख़ूबसूरत लग रही थी मौत/दोपहर का खाना खा/ऊँघ रही थी पृथ्वी/हल्के हल्के झूम रहे थे पेड़/शीरीं हवा के संग गलबहियाँ डाल/बादलों की पीठ पर/सुस्ता रहा था सूरज/इन्तजार करते करते थक चुकी थी मौत/अकेलेपन के जाल में छटपटाती/काम के बोझ से लदी फँदी/पूरी कायनात में/न कोई घोड़ा मिला उसे/न राजकुमार/थकी हारी मौत/किसी सखी की गोद में/सर टिका सो ही गयी होती/गर नहीं आता टेलीफ़ोन/व्हाइट हाउस से . . .”18

परन्तु प्रश्न यह है समकालीन दौर के भीतर हम कवि मृत्युंजय की कविताओं को कैसे देखें? इस पोस्ट ट्रुथ के युग में कवि मृत्युंजय कहना क्या चाह रहे है? 

इस का उत्तर भी सरल है यह पोस्ट ट्रुथ (post truth) का जो दौर है इस में केवल कहानी, नेरेटिव, क़िस्से गढ़े जा रहे हैं अपने-अपने कैम्प से। कवि मृत्युंजय की हर कविता हम को एक वैकल्पिक क़िस्सा देती है। जिस से यह ढाढ़स बाँधता है कि हमारे पास भी वो ही हथियार है, इस जंग के लिए जिस से आप लड़ रहे हैं। प्रतिरोध करते रहने की सीख भी देती है। 

इस आलेख को संक्षेप में समेट कर इतना कहा जा सकेगा की कवि मृत्युंजय, मुक्तिबोध की फैन्टेसी का इस्तेमाल करते हुए, गोरख की सरल भाषा में वैकल्पिक क़िस्सा हम को देते हैं। जिस के द्वारा हम प्रतिरोध कर सकें। वह हर कविता को इतने आत्मीय ढंग से रचते हैं कि कविता गढ़ते वक़्त वह ख़ुद को उस में पानी और शक्कर की तरह मिला देते हैं। इस की वजह से वह कवि होते हुए भी पाठक के सारथी के रूप में नज़र आते हैं। 

आलेख के अंत से पूर्व में दो बातें करना आवश्यक समझता हूँ। सर्वप्रथम, ऊपर हम कवि मृत्युंजय के काव्य के बारीक़ से बारीक़ हिस्से को समझ के आए हैं। वह जिस परंपरा का हिस्सा हैं वह अपने आप में साहित्य के भीतर जनतान्त्रिक है। इसलिए मृत्युंजय की कविता और साहित्य में जनतंत्र की पड़ताल करना भी आवश्यक हो जाता है। प्रोफ़ेसर मैन्जर पाण्डे अपने लेख साहित्य में जनतंत्र की कुछ पहचान बताते हैं जिनको में नीचे उद्धृत कर रहा हूँ:

“नागार्जुन कविता को जनता तक पहुँचाने के लिए भक्तिकाल के सन्तों और भक्तों की कविता की पंक्तियों और ढाँचों का उपयोग करते हैं; क्योंकि वे जानते हैं कि भक्ति काल की कविता जन जीवन में रमी हुई कविता है। उनकी एक कविता है अमेरिका के राष्ट्रपति जॉनसन पर जो सन्त रैदास के प्रसिद्ध पद प्रभु जी, तुम चन्दन हम पानी की मदद से लिखी गयी है।”19 

“कविता में जनतन्त्र केवल रूप के माध्यम से ही नहीं आता। उसमें सच्चा जनतन्त्र तब आता है जब कविता में जन हो, उसका जीवन हो, उसके जीवन की वास्तविकताएँ, समस्याएँ, आशाएँ और आकांक्षाएँ हों, उसका सुख-दुख हो और उसके जीवन की प्रकृति, संस्कृति और विकृति भी हो यह सब नागार्जुन की कविता में बहुत है और वह जगज़ाहिर है, इसलिए यहाँ उसकी चर्चा अनावश्यक है। नागार्जुन के समानधर्मा हिन्दी के अनेक कवि, कुमार विकल के शब्दों में ‘जनतन्त्र में उग रहे वनतंत्र’ को देखकर चिन्तित और परेशान होते रहे हैं और उन्होंने अपनी चिन्ता और परेशानियों को अपनी कविताओं में व्यक्त किया है।”20 

“जनतन्त्र का गहरा सम्बन्ध मानवीय संवेदनशीलता से है। अगर वह न हो तो जनतन्त्र के सारे सिद्धान्त और प्रयोग व्यर्थ हैं। देवताले की कविता उसी मानवीय संवेदन शीलता को जगाने वाली कविता है। ऐसी ही कविता पढ़ते हुए कार्ल मार्क्स का यह कथन याद आता है कि कविता मनुष्यता की मातृभाषा है।”21 

ऊपर उलेखित तथ्यों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि कवि मृत्युंजय भी काव्य में जनतंत्र की स्थापना करने का प्रयास कर रहे हैं। लोक के रूप को नया अर्थ प्रदान करके। छंद या सवैये में मेहनतकश समझ की बात करते हैं। कवि मृत्युंजय अपने पूरे काव्य में समझ के अधिक से अधिक हाशिए पर मौजूद व्यक्ति की बात करते हैं। 

दूसरा, जब हम इनको पाठक का सारथी कहते हैं, तब एक चीज़ होती है उसको समझने के लिए हम को यह समझना आवश्यक होगा कि कविता पाठक पर दो तरह की प्रक्रिया करती है। इस को इस प्रकार समझें कि पाठक एक कविता पढ़ता है फिर वह कविता उसके भीतर कुछ भाव उत्पन्न करती है। उसके बाद वह भाव आपको बाहर या फिर अंदर की तरफ़ धकलते हैं। उदाहरण के लिए जब आप राम की शक्ति पूजा पढ़ते हैं तो वह आपको कुछ करने के लिए प्रेरित करती है। यह आप के भाव को बाहर ले जाना हुआ। इस के विपरीत जब आप कोई कविता पढ़ते हैं तब वह आप को सोचने पर मजबूर करती है जैसे की ‘अंधेरे में’ मुक्तिबोध भी पाठक को अपने साथ-साथ रास्ता दिखाते हुए उस अर्थ गहन विचार तक ले जाते है। इसी तरह कवि मृत्युंजय का काव्य पाठक को सोचने, समझने, सवाल उठा कर प्रतिरोध करने का वक़्त देता है। सारथी योद्धा को जिस प्रकार युद्ध भूमि में भीतर लेकर जाता है। उसी प्रकार कवि मृत्युंजय की कविता भी पाठक को अर्थों के चक्रव्यूह के भीतर ले जाती है और कवि मृत्युंजय सारथी होते हैं। शायद सारथी होने के लिए कवि को कविता के भीतर अपने आपको गढ़ना पड़ता है। परन्तु इस में सब से बड़ा जोखिम है कि कवि पाठक पर भारी भी हो सकता है। कवि मृत्युंजय कई बार इस ख़तरे की चपेट में आ जाते हैं। 

इस लेख के अंत में बस इतना ही कहना होगा कि कवि मृत्युंजय अपनी परंपरा के साथ-साथ पाठक से आत्मीय सम्बन्ध स्थापित करते हुए, इस साहित्य के जनतंत्र में हाशिए पर मौजूद व्यक्ति के साथ और पाठक के सारथी हो कर काव्य रचना कर रहे हैं। 

संदर्भ सूची:

  1. https://www.hindisamay.com/content/5417/1/मृत्युंजय-कविताएँ-रोना.cspx

  2. मृत्युंजय, स्याह हाशिए, सांस्कृतिक संकुल, जन संस्कृति मंच, 2014 पृष्ठ संख्या-31 

  3. वही-84 

  4. सिंह, बच्चन, आधुनिक हिन्दी आलोचना के बीज शब्द, वाणी प्रकाशन, 2015 पृष्ठ संख्या-81 

  5. मृत्युंजय, स्याह हाशिए, सांस्कृतिक संकुल, जन संस्कृति मंच, 2014 पृष्ठ संख्या-75 

  6. वही-43 

  7. वही-85 

  8. वही-85 

  9. वही-93 

  10. वही-72 

  11. https://samkaleenjanmat.in/remembering-poet-gorakh-pandey-through-his-poetry/

  12. मृत्युंजय, स्याह हाशिए, सांस्कृतिक संकुल, जन संस्कृति मंच, 2014 पृष्ठ संख्या-21 

  13. वही-45 

  14. https://samkaleenjanmat.in/remembering-poet-gorakh-pandey-through-his-poetry/

  15. https://samkaleenjanmat.in/remembering-poet-gorakh-pandey-through-his-poetry/

  16. मृत्युंजय, स्याह हाशिए, सांस्कृतिक संकुल, जन संस्कृति मंच, 2014 पृष्ठ संख्या-89-90 

  17. वही 88

  18. वही 48 

  19. पाण्डेय, मैन्जर, आलोचना में सहमति-असहमति, वाणी प्रकाशन, 2013 पृष्ठ संख्या-38 

  20. वही-39 

  21. वही-41

ग्रंथ सूची: 

  1. मृत्युंजय, स्याह हाशिए, सांस्कृतिक संकुल, जन संस्कृति मंच, 2014 

  2. https://www.hindisamay.com/writer/मृत्युंजय.cspx? id=2663

  3. https://samkaleenjanmat.in/remembering-poet-gorakh-pandey-through-his-poetry/

  4. टेरी ईगलटन, वैभव सिंह, मार्क्सवाद और साहित्यालोचन, आधार प्रकाशन, पंचकूला, 2013

  5. पाण्डेय, मैन्जर, आलोचना में सहमति-असहमति, वाणी प्रकाशन, 2013

  6. सिंह, बच्चन, आधुनिक हिन्दी आलोचना के बीज शब्द, वाणी प्रकाशन, 2015 

कार्तिक मोहन डोगरा
164, pocket 14 sector 20 rohini delhi
8920458350
Kartikdogra.18@gmail.com

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