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परीक्षा गुरु

 

आधुनिक हिंदी साहित्य में प्रवेश करते ही एक उपहार हिंदी जनता के हाथ लगता है जो कि गद्य साहित्य का आरंभ है। इसी के साथ हिंदी साहित्य में उपन्यास का आरंभ भी होता है। इसीलिए इस लेख में हम परीक्षा गुरु उपन्यास की समीक्षा करेंगे। 

सर्वप्रथम इस उपन्यास के कथानक पर एक नज़र डाल लेते हैं। उपन्यास लाला मदनमोहन के जीवन पर आधारित है। जो अपने जीवन को अंग्रेज़ी ढंग पर या यह कहिए कि दिखावे का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। जिनके आसपास चाटुकार लोगों की एक फ़ौज मौजूद है। पर उनके एक सच्चे मित्र उनको समय-समय पर समझाते हैं और अंत में उनकी एक परीक्षा लेकर मदन मोहन को सब असलियत स्पष्ट करते हैं। उन के मित्र का नाम है ब्रजकिशोर जो उपन्यास के दूसरे मुख्य चरित्र हैं इसके अलावा मदन मोहन की पत्नी और उनकी फ़ौज में कई सारे लोग भी इस उपन्यास में आते हैं। 

दूसरा इस उपन्यास का उद्देश्य शायद उस वक़्त कि जनता, भारतीय समाज का मानसिक रूप को अभिव्यक्ति प्रदान करना है। यह उपन्यास यह भी स्पष्ट करता है कि इस वक़्त के लोग उपनिवेशवाद को किस नज़र से देख रहे थे। भारतीय जनता को एक सीख भी देना इसका एक उद्देश्य था। 

इस उपन्यास की समीक्षा करने के पूर्व हम इसके आसपास रचित एक बहस पर नज़र डाल लेते हैं। 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसको ‘अंग्रेज़ी ढंग का प्रथम उपन्यास’ माना है। इसको अंग्रेज़ी ढंग का उपन्यास कहते हैं तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि एक भारतीय ढंग का उपन्यास भी उपस्थित था, तो, उसका प्रतिनिधित्व कई आलोचकों ने देवकीनंदन खत्री के उपन्यास चंद्रकांता को माना है। एक बात और यहाँ कहनी आवश्यक हो जाती है कि इस अंग्रेज़ी ढंग के उपन्यास में क्या ऐसा अलग था जो यह भारतीय उपन्यासों के विपरीत खड़ा किया गया। इसका जवाब भी इसी तरह समझें कि यह यथार्थवाद के अधिक निकट है या यह कहिए कि इसकी मूल चेतना में यथार्थवाद की नींव नज़र आ जाती है। जबकि चंद्रकांता जैसे उपन्यास अय्यारी और अतीत पर लिखे थे। परन्तु राजेंद्र यादव की आलोचना याद की जाए तो चंद्रकांता में भी अपने वक़्त की चेतना मजूद है पर वह अय्यारी कथा का आवरण ओढ़े हुए है। परीक्षा गुरु उस युग पर सीधे बात करता है। परन्तु फेड्रिक जेम्सन उपन्यास को राष्ट्रीय रूपक कहते हैं जो बात एक हद तक सही लगती है। पर बेन बेनेडिक्‍ट एंडरसन राज को कल्पित समुदाय मानते हैं। तो यह उपन्यास किसको निर्मित करता है, किस का प्रतिनिधित्व करता है? यह प्रश्न सरल रूप से अवतरित होते हैं और जब आप एक-एक करके जवाब की तरफ़ बढ़ते हैं तो यह बात पाते हैं कि उपन्यास बदलते ही राष्ट्र की कल्पना बदलती है इसलिए यह कहना ज़्यादा सटीक होगा कि राष्ट्र की जगह यथार्थ उपन्यास के भीतर है, सबका अपना यथार्थ होता है। बुद्ध ने कहा था ‘हर किसी का अपना सत्य होता है’। उसी प्रकार हर किसी का अपना यथार्थ होता है परीक्षा गुरु उपन्यास में नई उभरती वर्गीय चेतना का यथार्थ छिपा हुआ है। साथ ही पूँजी, जो पूँजीवादी सभ्यता जो अंग्रेज़ी शासन या यूरोपियन सभ्यता की देन है उस से निर्मित हुई है, ना कि ज़मीन या ज़मीनदारी से प्राप्त हुई है। यह नए पूँजी के पतियों की चेतना का उपन्यास भी है। यह नए धन के सम्राट मुग़ल साम्राज्य के जागीरदार या ज़मींदार नहीं है बल्कि इनकी धन संपदा का स्रोत ब्रिटानिया शासन है। 

अब हम इसकी समीक्षा की तरफ़ रुख़ कर के इस के कुछ मुख्य अंशों पर बात करेंगे। 

इस उपन्यास की रचना 1882 में हुई इसीलिए हम इसकी कहानी का वक़्त भी वही मान रहे हैं। यह कहानी दिल्ली नामक शहर में घटित है और इस लेख के अंत में हम दिल्ली शहर और इस उपन्यास की चर्चा भी करेंगे इसकी भाषा सरल हिंदी और कई जगहों से अलग-अलग भाषाओं के उद्धरण प्रस्तुत हैं जिसकी विस्तार पूर्ण चर्चा इस लेख में होगी। उपन्यास उपदेश परक और प्रतीकात्मक शैली का है जहाँ यथार्थ कूट-कूट कर भरा है इस पर भी लेख में चर्चा होगी। 

उपन्यास की अंतर्वस्तु पर अब हम चर्चा कर लेते हैं। 

उपन्यास में हर प्रकरण की शुरूआत में एक उद्धरण प्रस्तुत किया गया है। साथ ही में ब्रजकिशोर जगह जगह अलग-अलग पुस्तकों का और कहानियों का प्रयोग करते हैं। अपनी बात को पुष्ट करने के लिए। लाला श्रीनिवास दास जी ने इस उपन्यास के अंत में पुस्तक सूची प्रस्तुत की है। अगर आप उस पर ग़ौर करें तो तीन तरह के बौद्धिक वर्गों से अपने उपन्यास की स्वीकृति प्राप्त करने का प्रयास किया गया है। पहला, वर्ग फ़ारसी उर्दू भाषी लोग हैं। दूसरा, हिंदी भाषा और अंत में सर्व महत्त्वपूर्ण अंग्रेज़ी जनता की किताबों का प्रयोग किया गया है। इस को पढ़ते हुए मुझे बार-बार मैथिलीशरण गुप्त की किताब भारत भारती की याद आती है इसका कारण भी स्पष्ट है कि दोनों लेखक एक ही युग के बौद्धिक वर्ग से सम्बन्ध रखते हैं और नवजागरण की विचारधारा स्पष्ट नज़र आती है। साथी ब्रजकिशोर के संवादों को पढ़ते हैं तो आप पाते हैं कि वह अतीत में है क्योंकि इस वक़्त तक आते-आते अतीत एक ऐसी जंग भूमि बन गया था जहाँ पर सारे युद्ध बौद्धिक स्तर पर लड़े जा रहे थे और यह सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा था कि हम अतीत में महान थे तो हम आगे भी महान हो सकते हैं। गुप्त जी की मशहूर पंक्तियाँ तो आपको याद ही होगी जो भारत भारती में थी:

हम क्या थे क्या है क्या होंगे 
आओ विचारे मिलकर इसको

सवाल असल में यह है कि उपन्यास किस आधार पर इस नवजागरण की विचारधारा को स्पष्ट करता है तो सर्वप्रथम इस उपन्यास में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति एक आकर्षण और विकर्षण भाव का होना स्पष्ट नज़र आता है। आप ब्रजकिशोर के कई लंबे उबाऊ भाषणों में ब्रिटिश साम्राज्य की तारीफ़ और बुराई दोनों देख सकते हैं। इस बात से सम्बन्धित एक बात यह है कि घरे–बाहर का द्वंद्व पार्थ चटर्जी लिखते हैं। इस का सरल सा अर्थ है घर में हम भारतीय रहेंगे और बाहर हम अंग्रेज़ी या पश्चिमी सभ्यता का पालन करेंगे। इस बात को चैटर्जी लिंग के स्तर पर ले जाकर, इस तरह स्पष्ट करते हैं कि हमारी महिलाएँ भारतीय रहेंगी और पुरुष दोनों सभ्यताओं के मध्य संतुलन बनाए बनाएँगे। ब्रजकिशोर को मदन मोहन के आचरण से इसलिए भी आपत्ति है क्योंकि वह घर में अंग्रेज़ी ढंग का सामान लगा रहा है। ब्रजकिशोर यहाँ अवतरित हो ही गए हैं तो उन पर भी एक चर्चा कर लेते हैं। वह एक सटीक ‘टाइप’ है कि मनुष्य को इस सभ्यता में कैसा होना चाहिए। वह घर से बाहर वकील है परन्तु अपने अंदर भारतीय संस्कार सम्मिलित रखते हैं। असल में वह जनता को यह समझाना चाह रहे हैं कि व्यक्ति कैसा हो क्योंकि जब भी वह कुछ समझाते हैं उपन्यास में तो सब उनसे पूछते हैं फिर क्या करें; यह प्रश्न इनको एक सही आचरण का मानव बनाता है। जो सबको इस द्वंद्व की तलवार पर ठीक ढंग से चलना सिखा रहा है। 

घरे–बहरे के द्वंद्व में मदन मोहन की बीवी का किरदार बड़ा रोचक है। वह सीधा ब्रजकिशोर से मिलने नहीं जाती जब ब्रजकिशोर ग़ुस्सा होकर मदन मोहन की बैठक में कभी वापस ना आने का फ़ैसला लेकर जाते हैं। पहले वह अपने बच्चों को भेजती है फिर ख़ुद आती है और ब्रजकिशोर को भाई के रिश्ते से संबोधित करती है। जहाँ पर लेखक के दिमाग़ में व्याप्त पितृसत्ता साफ़ दर्शन दे रही है। इस पितृसत्ता का एक उदाहरण यह भी है कि जब मदन मोहन की पत्नी मायके चली जाती है तो घर अस्त-व्यस्त हो जाता है क्योंकि घर की व्यवस्था निर्मित रखना स्त्रियों का काम है। 

इस उपन्यास की एक बात बड़ी ग़ज़ब की है कि इसमें नई पूँजीवादी आ रही सभ्यता की भी व्याख्या सटीक ढंग से मौजूद है। प्रेमचंद ने अपने लेख महाजनी सभ्यता में इस सभ्यता की आलोचना पेश करते हैं। उनका वक़्त अलग था उनकी नज़र अलग थी परन्तु उनकी एक बात है कि यह सभ्यता सबको पूँजी के लिए लालची और स्वार्थी बना देती है और यह मदन मोहन के फ़ौज जिसके साथ वह करते थे सारी मौज। सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने स्वार्थ के लिए उनके साथी थे। जैसे ही उनकी सारी दौलत समाप्त हुई, वह अब उनको अकेले छोड़कर भाग गए परन्तु उनके सच्चे मित्र ने उनका साथ दिया। यह जो प्रेमचंद लिख रहे थे उसकी नींव नवजागरण के साहित्य से देखी जा सकती है। हम ऊपर लेख में प्रतीकात्मक बात कर आए हैं तो मेरे हिसाब से ब्रजकिशोर उस आइडियल टाइप का प्रतीक है जो जनता को किस तरह होना चाहिए यह बताते हैं। तो साथ ही मदनमोहन उस सामंती वर्ग और पूँजीवादी वर्ग का प्रतीक है। और मदन मोहन की पत्नी आदर्श नारी का प्रतीक मानी जा सकती हैं। श्रीनिवास दास की नज़र के आधार पर। जिस तरह श्रीनिवास दास नारी को देखते थे, उस वक़्त में जिस तरह नारी को देखा जाता था उसी तरह यहाँ पर चित्रित किया है और मदन मोहन के बैठक के लोगों को इस पूँजीवाद से ग्रस्त स्वार्थ प्रति लोगों का प्रतीक बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। 

अब एक अंतिम विषय दिल्ली और इस उपन्यास का आपसी सम्बन्ध पर चर्चा कर लेते हैं। 

सर्वप्रथम प्रश्न यह प्रस्तुत होता है कि यह कहानी दिल्ली शहर में ही क्यों लिखी गई? 

इस प्रश्न का जवाब सरल है क्योंकि लेखक दिल्ली शहर में रहता और अपने शहर की बात लिखना ज़्यादा आसान होता है। 

अब उपन्यास और दिल्ली के सम्बन्ध की बात करें तो साफ़-साफ़ की यह कहानी पुरानी दिल्ली की है क्योंकि 1882 तक नई दिल्ली की छवि हमारे सामने नहीं आती है। इस पुरानी दिल्ली में एक सत्ता का केंद्र लाल क़िला है जिस पर अभी 1857 के बाद अंग्रेज़ी हुकूमत का राज है और सत्ता का मुख्य केंद्र दिल्ली ना होकर बंगाल बन चुका है परन्तु वह सत्ता के अंश अभी भी दिल्ली में मौजूद हैं 1857 के बाद और नई आती हुई सभ्यता जहाँ पर फ़ारसी, अंग्रेज़ी और हिंदी बोलने वाले एक साथ रहते हैं। जो मुग़ल सभ्यता, हिंदी सभ्यता और अंग्रेज़ी सभ्यता के प्रतीक है। इन सब चीज़ों के चित्र दिल्ली के बारे में उपन्यास में भरपूर है। यहाँ की जनता 3 भाषाएँ बोलती है फ़ारसी, हिंदी और अंग्रेज़ी। इस बात का पता दो चीज़ों से लगा सकते हैं कि लाला श्रीनिवास दास ने इन तीनों भाषाओं की किताबों का इस्तेमाल करते हैं और मदन मोहन को सिखाने के लिए फ़ारसी और अंग्रेज़ी के अध्यापक उनकी मंडली में मौजूद हैं। अब सिर्फ़ सीख कर काम नहीं चलेगा क्योंकि सत्ता की नई भाषा अंग्रेज़ी है और अंग्रेज़ी में आपको कामकाज करना पड़ेगा। सब लोग अदालत में न्याय लेने जाते हैं और अदालत अंग्रेज़ी क़िस्म की है ना कि किसी राजा की, जहाँ पर वकील है और जज है जो आपकी दलीलें सुनकर न्याय देगा पर सबके हिसाब किताब रखने का सलीक़ा मुझे पुराने ढंग का लगा। यहाँ पर मिस्टर ब्राउन भी रहते हैं जो अंग्रेज़ी ढंग के सामान की दुकान चलाते हैं और उपन्यास में दिल्ली का जो चित्रण है वहाँ अब एक नई सभ्यता उभरती हुई नज़र आती है। जहाँ पर नया पॉवर सेंटर अंग्रेज़/ ब्रिटिशर्स खड़े हैं और पुरानी फ़ारसी सभ्यता अभी लोगों के साथ चल रही है और इसी को ग़ालिब ने शायद अपने शेर में बहुत बख़ूबी दिल्ली के बारे में बयान किया है:

ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे

तो इस उपन्यास से दिल्ली का चित्रण खींचें और सारांश में चित्रण को प्रस्तुत करें तो हम यह कह सकते हैं कि यहाँ पर फ़ारसी हिंदी और अंग्रेज़ी भाषा और इन भाषाओं से जुड़े संप्रदाय जो ब्रिटिशर्स ही जुड़े हैं वह बहुत बख़ूबी तरीक़े से मौजूद थे और जो यह बदलाव का समय दिल्ली का था वह इस उपन्यास में बहुत अच्छी तरह अंकित हुआ है जिसको ऊपर ग़ालिब ने अपने शेर में व्यक्त किया है। 

अगर अब हम इस लेख के सारांश ही बात करें तो मैं सिर्फ़ यह कहना चाहूँगा कि अंग्रेज़ी ढंग का पहला उपन्यास होने के बावजूद इसमें अपने युग की सारी चेतनाओं का भरपूर तरीक़े से चित्रण है और साथ में दिल्ली के जो बदलाव के दौर का चित्रण इसमें मौजूद होना चाहिए, दिल्ली का उपन्यास होने के कारण; वह भी यहाँ पर मौजूद है। 

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