अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

ख़ामोशी 

 

जब से घर व ज़मीन का बँटवारा हुआ रिंकी हमेशा ही सबसे सुनती, उसकी जिठानी उसके बारे में जाने क्या मनगढ़ंत सबसे कहती रहती छोटी बातें जिनका कोई औचित्य ही ना था। अब जबकि सब बराबर बँट गया फिर भी जिठानी जी को क्या शिकायत रहती, समझ से परे था। सोचती, मौसमी बरसात है, शांत हो जाएगी। लेकिन मानव मन की गुत्थियाँ भला कौन हल कर पाया है। 

“सुना है तुमने अपनी जिठानी का हिस्सा भी ले लिया है, सास के गहने भी तुमने ही रख लिए,” दूर की बहन राखी ने रिंकी से बेरुख़ी से पूछा। 

“तुमसे किसने कहा?” मन में उठते क्रोध को दबा रिंकी ने शान्ति से पूछा। 

“कौन कहेगा, जिसके साथ हुआ होगा वही तो,” कहते हुए राखी के चेहरे पर तिरस्कार की भावना फैल गई। जिसे महसूस कर रिंकी शर्मिंदा हो उठी। वैसे उसे लज्जित नहीं होना चाहिए था। क्यूँकि उसने ईमानदारी से अपने हिस्से का ही लिया था। 

ये सब सुन रिंकी ने सोचा, कभी जिठानी मिलेगी तो उनके झूठ का पर्दाफ़ाश करेगी। अच्छा सबक़ सिखायेगी। बड़ी हैं तो क्या हुआ? मैं उनका झूठ क्यूँ झेलूँ। सोचती रिंकी मन से आवेश में भर उठी। 

“अरे जीजी आप, इस समय?”

रात के ग्यारह बजे अपने दरवाज़े पर जिठानी को देख चिंतित हो उठी। बहुत समय बाद आया देख सारी बातें भूल दौड़ कर गले लग रो पड़ी। इतने दिन बाद देखा जो था। भूल गई गिले-शिकवे, जिठानी की अनर्थक बातें, सामने प्यार था, रिश्ते थे। और सामने खड़ी थी सास सरीखी जिठानी। जिसने सास के ना होने पर डोली से उतार आरती कर गृह प्रवेश करवाया था। जो भी उसकी अपनी थीं। आज कुछ नहीं कहना था उसे। बेकार बातों को ख़ामोशी में ही दफ़्न करना अच्छा था। माफ़ कर तो वो जिठानी को भी जोड़ सकती है। उनका हृदय परिवर्तन भी कर सकती है। 

कहीं फ़ालतू बातों से घर आई जिठानी से रिश्ते फिर ना ख़राब हों, रिंकी मन को समेट पैर छू पलंग पर बिठा बोली, “कहो जीजी कोई दिक़्क़त तो नहीं?”

जिठानी एक टक निहारती अपनी देवरानी को देखती सोचने लगी, ‘कितनी सरल हृदय है रिंकी, मैंने इसके लिये क्या नहीं कहा, आज भी वही सौम्य रिंकी मेरे सामने खड़ी है, कैसे कहूँ की तेरे जेठ जी का व्यापार में नुक़सान हो गया है, भरपाई को पैसे चाहिएँ।’

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं