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मंथन

 

नहीं चाहिए ख़ुद को
साबित करने के लिए 
औरों का वक्तव्य 
कुछ वक़्त अवश्य लगता है 
यदि कोई प्रस्तुत करता है 
लपेट झूठ को सत्य के कलेवर में 
ईश्वर ने दी है दृष्टि सब में 
सत्य पहचानने की 
ये अलग है कि हम स्वार्थवश 
कब अपनी अंतर आत्मा की आवाज़ 
घोंट देते हैं बस कुछ पल 
इंद्रिय सुखनानुभूति के लिए 
उस पल ओढ़ लेते हो
अपनी आत्मा पर
वो क़र्ज़ जो नहीं उतरता 
जन्मों जन्मों तक 
और निष्कासित हो जाता है 
संत सुख से 
संत स्थिति वो जो तुम्हें बनाती है 
मनुष्य विशेष 
तुम्हारे अंदर विद्यमान है 
सब 
निर्भर करता है 
तुम्हारा समुद्र मंथन 
का वैचारिक लक्ष्य! 

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