कोल्हू के बैल
काव्य साहित्य | कविता आलोक शंकर12 Sep 2007
अभी धुँधलका है
पगडंडी पर बिछी
ओस बिखराते चतुष्पद
फिर चले
एक वृत्त रचने–
पुट्ठों पर लदा
बोझ, आदत–
वलक्ष काया पर लिखी
कोड़े की फ़ितरत
पगहे से रिसता जूट का स्वाद
त्वचा में चुभतीं पसलियाँ
फिर भी–
अप्रतिहत, अनवरत चलते पाँव–
सर्वविदित,
तथ्य,
कोल्हू ऐसे ही चलता है
बूँद भर
तेल बनाने को
पाव भर
ख़ून जलता है
लिप्सा का एक केन्द्र
त्रिज्या में बँधे– अन्यथा कूष्माण्ड,
परिधि पर लिखते रहते
स्वेद का व्यक्तित्त्व–
कोल्हू ऐसे ही तो चलता है!!
दिनात्यय पर,
गिनता है कोई
परिधि बनाते बिंदुओं को ?
मृत्तिका पर लिखी–
डंडे की चोट पर भागती– पशु–प्रवृत्ति
बेमानी है,
असल बात तो यह है
कि
एक पसेरी तेल निकला।
वृत्त फिर भी चलता है–
और
पास ही खड़ा
डंडे मारता
आदमी
समझता है –
वह नहीं बँधा कोल्हू में ।
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