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लोक-पीड़ा के शब्दचित्र: हरिशंकर सक्सेना के नवगीत

 

हरिशंकर सक्सेना वरिष्ठ नवगीतकार हैं। बरेली में हिन्दी प्रवक्ता के रूप में उन्होंने अपना लंबा समय शिक्षण कार्य में दिया है। गीत, नवगीत, ग़ज़ल, कहानी लघुकथा के साथ-साथ समीक्षाकर्म में भी वे लगातार सक्रिय रहे हैं। उनका एक कहानी संग्रह ‘अंधेरे की परतें’ और नवगीत संग्रह ‘दिन हुए धृतराष्ट्र’ तथा ‘प्रखर संवाद’ प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘पल्लवों की ओर से’, ‘सन्नाटा मत बुनो’, ‘काले दिन’ आदि कृतियों का संपादन भी किया है। बरेली से प्रकाशित होने वाली अनियमितकालीन साहित्यिक पत्रिका निर्झरणी के वह संपादक हैं। हरिशंकर सक्सेना के सम्बन्ध में ‘नवगीत की बुनावट का मुहावरा’ में डॉ. माहेश्वर तिवारी लिखते हैं, “कवि, समीक्षक और सम्पादक हरिशंकर सक्सेना की कविता में उनकी चिन्ता समकालीन जीवन में बढ़ते ख़तरों से जुड़ी है। उनकी कविता में अँधेरे के हाथों आयी संगीनों की दहशत है। वहाँ दिन धृतराष्ट्र हो गए हैं और रातें गांधारी बन चुकी हैं। पूरी सदी की देह ख़ून से रँगी है। शोषण आदमखोर हो चुका है। यह सब अचानक घटित नहीं हुआ है, दादी की गोदी और बापू की चौपाल की वत्सलता मिश्रित सुरक्षा से कट जाना भी इसके कारकों में शामिल है। हरिशंकर सक्सेना के गीतों में नवगीत की बनावट और बुनावट का मुहावरा अपनी पूरी अर्थछवियों के साथ उपस्थित है। हरिशंकर सक्सेना नगर-बोध के कवि हैं, इसलिए उनके गीतों में महानगरीय जीवन की विसंगतियाँ खुलकर व्यंजित हुई हैं। लेकिन संभवतः कवि का काम्य वह नहीं है। वह तो बस्तियों के नाम ख़ुश्बुओं के दिन लिखने का आग्रह करता है। उसके गीतों में पुराख्यानों और इतिहास से उठाये गए प्रतीकों का भी बख़ूबी उपयोग किया गया है, किसी फ़ैशन नहीं, बल्कि सृजनात्मक आग्रह के अन्तर्गत। कविता के ऐसे पाठक जो उसे मनोविलास नहीं, व्यवस्था परिवर्तन का माध्यम मानते हैं, उन्हें इस संग्रह के गीत प्रभावी लगते हैं।”1

बीज शब्द–नवगीत, लोक-पीड़ा, जनसामान्य, भारतीय संस्कार, शोषणवादी व्यवस्था, प्रकृतिपरकता। 

नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर हरिशंकर सक्सेना के नवगीत मानव हृदय के भावों के प्रखर उद्बोधक हैं। उनके नवगीत समसामयिकता, प्रासंगिकता और भाव सम्प्रेषण की सजगता को अपने शब्दों में बाँधकर चलते हैं। गैमर के शब्दों में गीत को परिभाषित किया जाय तो “अन्त:दृष्टि निरूपिणी वैयक्तिक अनुभूतियों में पल्लवित परिष्कृत भावनाओं की अभिव्यक्ति ही गीत है।”2 निज अनुभूतियों को कवि शब्दों में ढालकर समाज के गाने योग्य बना देता है। सांगीतिक अवयव शब्दों को हृदय-तंतुओं से जोड़ने में सहायक होते हैं। ‘प्रखर संवाद’ के गीत-नवगीत भी इन्हीं कसौटियों के सार्थक वाहक हैं। नवगीत ‘आहत बहुत हुए’3 जीवन का विपर्यय दर्शाता है। सकारात्मक तत्त्व कैसे नकारात्मक दृष्टि में बदलते‌ हैं, इसका उदाहरण देखिए:

“हँसते रिश्तों को अपनाकर आहत बहुत हुए
बरगद की छाया में जाकर आहत बहुत हुए
अमराई का मान बढ़ाकर आहत बहुत हुए
इन्द्रधनुष की महिमा गाकर आहत बहुत हुए”

ज्ञातव्य है कि नवगीत, गीति का ही संशोधित, परिवर्द्धित, विकसित संस्करण है। मंचों-गोष्ठियों से बाहर निकलकर गीत जब समाज के शोषित-दमित वर्ग के मध्य आता है, तब वह नवगीत बन जाता है। गीत प्रायः व्यष्टिमुखी होता है, जबकि नवगीत समष्टिमुखी। जनसामान्य से कहीं अधिक जुड़ाव‌ नवगीत का होता है। इस सम्बन्ध में ‘चिन्तन के विविध आयाम’ पुस्तक में हरिशंकर सक्सेना का वक्तव्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, “प्रारंभ में प्रतिवादी युग में मुक्त छंद जनवादी चिंतन से जुड़ा होने के कारण मस्तिष्क को झकझोरने में सफल हुआ परन्तु जैसे-जैसे उसकी लयात्मकता और काव्य सौंदर्य का ह्रास हुआ, वैसे वैसे वह निष्प्रभावी हुआ और बौद्धिकता का दबाव बढ़ जाने के कारण उसमें सम्प्रेषण का संकट भी गहरा गया। इन्हीं सब कारणों से बाबा नागार्जुन को भी यह घोषणा करनी पड़ी कि कविता को फिर तुकों की ओर लौटना होगा। अतः परम्परावादी गीत की भावुकता और मुक्त छन्द की बौद्धिकता के बीच सन्तुलन स्थापित करने की प्रक्रिया में एक नई विधा का जन्म हुआ जिसे नवगीत की संज्ञा दी गई। नवगीत के उदय के साथ ‘गीतांगिनी’ (प्रथम नवगीत संग्रह) के सम्पादक राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने कहा था कि “प्रगति और विकास का पूरक बनकर नवगीत का निकाय जन्म ले रहा है।” यद्यपि राजेन्द्र प्रसाद सिंह का यह कथन पूर्णत: निर्विवाद प्रतीत नहीं होता परन्तु डॉ. शम्भुनाथ सिंह की इस घोषणा से कोई सहमत नहीं हो सकता कि “नवगीत ‘नयी कविता’ का जुड़वाँ भाई है।” दरअसल ‘नयी कविता’ के दबाव से बचकर ही छायावादोत्तर गीतकारों ने गीत को ‘नव’ विशेषण से अलंकृत करके इसे काव्य की एक नवीनतम विधा के रूप में स्थापित किया। काव्य के इस नये स्वरूप में युग-बोध को उभारने का आग्रह, जन-सामान्य की भाषा और शिल्प की ताज़गी नवगीत के आधारभूत तत्त्व माने गये। नवगीत के प्रथम पुरुष महाप्राण निराला की प्रगतिशील परम्परा के तहत जहाँ एक ओर नवगीत को नया तेवर प्रदान किया गया, वहीं प्रो. देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ के शब्दों में, “नवगीत के माध्यम से पाठकों में नया सौन्दर्य-बोध और संस्कार उत्पन्न करने की कोशिश की गई। पारम्परिक गीत के स्वरूप और लक्षणों से हटकर नवगीत ने वैयक्तिक अनुभूतियों की हदों को इतना लचीला और विस्तृत कर दिया कि उनके आइने में समष्टिगत यथार्थ के बहुविध प्रतिबिम्ब भी अनायास झाँकने लगे। विषय-वस्तु, भाषा, बिम्ब-योजना, लयात्मक अनुशासन और लोक-संस्कृति के जो नव्यतम आसंग उद्घाटित होते गये, उन्होंने ही उसको ‘नयापन’ प्रदान किया।” वस्तुतः नवगीत गीत का प्रतिद्वन्द्वी नहीं, अपितु उसका ‘आत्मनेपद से परस्मैपद’ की ओर बढ़ता हुआ क़दम है। प्रो. देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ के अनुसार, “प्रत्येक नवगीत अनिवार्य रूप से एक श्रेष्ठ गीत होता है, परन्तु हर गीत नवगीत नहीं होता।” नवगीत छन्द और लय के अनुशासन से प्रतिबद्ध जनोन्मुखी रचनात्मकता का बढ़ता हुआ क़दम है। नवगीत मुख्यतः बिम्बप्रधान काव्य है। नवगीत की संरचना लक्षणा और व्यंजना शब्दशक्ति पर केन्द्रित है। नवगीत की बिम्बधर्मिता उसे छायावादी गीतों से प्राप्त हुई है। संक्षिप्ति, भाषा-दृष्टि और जनधर्मी चिन्तन उसे निराला के गीतों से प्राप्त हुआ है। नवगीत ने प्रगतिवादी गीतों से सामाजिक प्रेम की दृष्टि को अपनाया। यही उसका नेतृत्व से निकलकर सामाजिकता में विस्तार था। निष्कर्षतः नवगीत छायावादी प्रभाव से मुक्त रहकर, संस्कृतनिष्ठ भाषा का मोह त्यागकर, अपनी लयात्मकता, छान्दसिकता, शिल्पगत सजगता और भारतीय संस्कारों के साथ, गाँवो-नगरों और महानगरों के जन-जीवन का ईमानदारी से साक्षात्कार करता हुआ आगे बढ़ा है और अपनी जड़ों को ज़मीन में गहराई तक जमाने के लिए उसने समय-सापेक्ष और समाज-सापेक्ष जनोन्मुखी दृष्टि को अपनाया है। अतः युग-बोध को उभारने का आग्रह, नयी प्रतीक योजना, बिम्ब-विधान, संवेदना और शिल्प की ताज़गी नवगीत के प्रमुख तत्त्व हैं और नवगीत ही काव्य की सभी विधाओं में सर्वाधिक प्रभावशाली एवं सार्थक विधा है।”4 संग्रह में शीर्षक नवगीत ‘प्रखर संवाद’5 है। प्रस्तुत गीत में नवीन और दैनिक बोलचाल के बिम्बों व प्रतीकों का प्रयोग किया गया है:

“स्वर्ग जैसे पारिजातों की 
फ़सल मिलती नहीं 
कंकाल बोकर
क्या मिलेगा खौलते 
तेज़ाब की काली नदी में 
हाथ धोकर
राजपथ की आँधियों से 
ध्वस्त अनगिन झुग्गियाँ
आबाद कर लो”

यहाँ समसामयिकता की गूँज निश्चित रूप से देखी जा सकती है। नवगीत की एक विशेषता यह भी है कि इसमें बिम्बों और प्रतीकों की सहायता अधिक ली जाती है। जीवन की करुणा और संवेदना को बिम्बों-प्रतीकों में अभिव्यक्ति देता एक नवगीत ‘सूरज के पुत्रो!’6 देखिए:

“छल-प्रपंच में फँसी ‘अहल्या’ पत्थर-सा जीवन
अश्रुगैस के चक्रवात से 
जनता में क्रन्दन
लोकतंत्र का आहत प्रहरी 
सोने वाला है
‘कीचक’ का आतंक ‘भीम’ अब ढोने वाला है”

यहाँ प्रयुक्त प्रतीक पौराणिक हैं, परम्परागत हैं परन्तु कवि की, इन प्रतीकों को वर्तमान भावभूमि पर, प्रयोग करने की विशिष्टता उल्लेखनीय है। देश में होने वाले दंगों-झगड़ों को भी कवि ने अपने काव्य का विषय बनाया है। धुँध का सैलाब, जुनून, बस्ती में जैसी रचनाएँ इसकी साक्षी हैं। ‘गोधरा कांड’7 की याद दिलाता बँध द्रष्टव्य है:

“मुस्कुराती गंध, नफ़रत की 
हवा में खो गई
आस्था भी ‘गोधरा’-सी 
रक्तरंजित हो गई
रैलियों में बँट रहा तेज़ाब
अब तो जागिए”

इन नवगीतों की सरसता और भावप्रवणता प्रतीकों और बिम्बों के प्रयोग से और अधिक बढ़ गई है। वर्तमान शोषणवादी व्यवस्था पर कवि ने सीधा प्रहार किया है:

“नागफनियाँ पंखुरी पर 
लिख रहीं क़ानून
इस व्यवस्था ने पिया है 
आदमी का ख़ून”8

‘विकलांग प्रश्न’9 में महाभारत के पात्रों कीचक, कृष्ण, सव्यसाची के माध्यम से बात रखी गई है। छायावादी गीतों की एक विशेषता थी उनका प्रकृति चित्रण। नवगीतों में भी प्रकृति-चित्रण की छटाएँ हैं, परन्तु ये केवल मनोरम-मनमोहक सुकुमार चित्रण भर नहीं हैं। समय का बोध व पीड़ा यहाँ पूरे रूप में दिखाई देती है। यथार्थ की बात कहने का साहस तो नवगीत ने ही किया है। ‘वृक्ष भूलों के’10 एक ऐसा ही गीत है। बाग़, माली, फूल, हवा, उद्यान, शूल, ख़ुश्बू पक्षी, कलियाँ यहाँ भी हैं। अगर ये गीत का निर्माण करते तो अपने होने का सुखद अहसास देते, प्रफुल्लित मन से ये हमारा साथ देते। परन्तु कवि को तो प्रखर संवाद करना है। उसे केवल मख़मली कोमल हरियाली नहीं भाती है। तभी तो उसकी व्यथा कह उठती है:

“फिर समर्पित फूल सब 
तीखी हवाओं को
पत्तियाँ भी ढो रही हैं 
यातनाओं को”

यद्यपि प्रकृतिपरक भाव यहाँ भी हैं, परन्तु ये भाव व्यष्टि से समष्टि की ओर यात्रा करते दिखते हैं। इन प्रयोगों में गीतकवि हरिशंकर सक्सेना अत्यन्त सफल सिद्ध हुए हैं। ‘उधार की धूप’11 में गोदान के पात्रों यथा होरी, धनिया, गोबर के माध्यम से ग़रीब आदमी की मजबूरियों का सार्थक चित्रण किया गया है:

“नगर-नगर दोमुँहे लोग 
खादी से बतियायें
शीशे का घर बनी हवेली 
क़ैदी पुरवाई
सजायाफ्ता पहरे पर
ऊँची पदवी पाई
द्वारपाल निर्ममता से 
‘होरी’ को धकियायें”

कवि ने देशभक्तिपरक गीत भी लिखे हैं। देश की भौगोलिक अखण्डता अनेक गीतों में दर्शायी गई है। ‘सद्भाव के दीपक’, ‘हे हिमालय’, ‘भव्य तिरंगा प्यारा’, ‘भारत का गौरव’ इसी वर्ग के गीत हैं। यहाँ कवि का भारतवर्ष की एकता-अखण्डता-सम्प्रभुता पर अखण्ड-अटूट विश्वास श्लाघनीय है। उद्बोधन गीत12 सार्थक है:

“जाग रहे सैनिक सीमा पर तुम भी जागो, हम भी जागें
बलिदानों की गाथा गाकर, तुम भी जागो, हम भी जागें”

सूर्य जो हमें जीवन की ऊष्मा और उजाला प्रदान करता है, अब वही अपनी शक्ति और वैभव के अहंकार में चूर होकर आतंक का प्रतीक बन गया है। समय और परिस्थितियों का बदलाव कवि ने इन पंक्तियों में रेखांकित किया है:

“हो गया अभिशप्त फिर तालाब का पानी
मछलियों को सूर्य का आतंक डसता है”13

आज के युग में रिश्ते-नाते सब मतलब के हो गए हैं। कोई किसी का साथ केवल स्वार्थवश ही देता है। युधिष्ठिर और शरशय्या जैसे शब्दों के प्रयोग से कवि ने यहाँ बहुत गहरी बात प्रस्तुत की है14:

“अनगिन तीखी मुस्कानों का
मेला यहाँ लगा
दुर्लभ वे सद्भाव कि जिनसे
मिलती नहीं दग़ा
शर-शय्या पर देख युधिष्ठिर 
पास नहीं आया”

अर्थप्रधान युग में सब-कुछ केवल पैसा ही है। रिश्ते-नाते साथ-सम्बंध, सबकी कसौटी केवल पैसा ही रह गया है। ‘जुनून’15 नवगीत में मानवता के स्थान पर दानवता का बोलबाला दर्शाया गया है:

“पढ़ा आज अख़बार सदन में
सज्जनता का ख़ून हो गया
पैसा आज जुनून हो गया”

बात यदि इन गीतों-नवगीतों की भाषा-शैली की, की जाय तो नवगीत पर एक आरोप सदा से लगता रहा है कि उनमें बौद्धिकता हावी रहती है। सामान्यजन को नवगीत समझने में कुछ सोच-विचार करना पड़ता है। यह बात किसी सीमा तक सत्य भी है। नवगीत का अर्थबोध और भावबोध कभी-कभी जटिल हो जाता है। वैसे ‘प्रखर संवाद’ के गीतों के साथ यह समस्या नहीं है। अधिकांश गीत सरल व सहज हैं। पाठक अनायास ही इनसे जुड़ता चला जाता है। सांकेतिक भाषा व अभिव्यंजना के कारण अनुभूतिजन्य तीव्रता, देर से परन्तु देर तक व दूर तक, होती है। नवगीत की यही निजी‌ विशिष्टता है। छन्दानुशासन भी पुराने कलेवर का न होकर नवीनता को सार्थक करता चलता है। गीतों में भाव-बोध-बुद्धि-अनुभूति का आनुपातिक संयोग उल्लेखनीय है। हरिशंकर सक्सेना का प्रस्तुत गीत-नवगीत संग्रह ‘प्रखर संवाद’ अपने समय के साथ एक प्रखर संवाद ही है जिसमें समसामयिक परिस्थितियों और घटनाओं पर कवि ने प्रतीकात्मक रूप से अपनी क़लम चलाई है। इन नवगीतों में साहित्यिकता, सांगीतिकता, काल्पनिकता, यथार्थ और बौद्धिकता का सुन्दर संगम परिलक्षित होता है। डॉ. भगवानशरण भारद्वाज के विचार उल्लेखनीय हैं, “श्री हरिशंकर सक्सेना का काव्य-संग्रह ‘दिन हुए’ धृतराष्ट्र मुख्यतः और मूलतः नवगीतों का पुष्प-स्तवक है जिसमें उनके राग-बोध और युग-चेतना का अपूर्व सौरभ-संगम है। कवि के निजी सपनों के साथ ही युग के स्वप्न भी आहत और मुर्झाये हुए हैं, इसलिए पुराने कवियों जैसी मस्ती इन गीतों में नहीं मिलती। इनमें स्वप्न टूटने का दर्द छिपा हुआ है। कवि ने अपने समकालीन समाज के लिए जो कल्पना-चित्र बुना था, उसके रंग उड़ गए हैं। उन स्वप्नों के साथ छल हुआ है। इस दरिन्दगी के पीछे युग की व्यवस्था का हाथ है जो कल्पना-शावकों के पंख नोंचकर उन्हें तिल-तिल दम तोड़ने को विवश कर रही है। इन गीतों का दर्द संस्कृति का दर्द है, पीढ़ी के घायल मन की टीस है और है अपने ज़माने की तड़पन। ऐसे में केवल ऐयाश और बेहया शब्दकर्मी ही आनन्द-मग्न हो सकता है, ठठाकर हँस सकता है और बीती शताब्दियों की धड़कनों के सुर में सुर मिलाकर जश्न रचा सकता है। श्री सक्सेना के नवगीतों में अप्रस्तुत-योजना का वैशिष्ट्य अलग से परिलक्षित होता है। ये अप्रस्तुत कथ्य को अधिक पैना, गम्भीर और व्यापक बना देते हैं। इनके अतिरिक्त कवि में रुमानी गीतकारों की भाँति कल्पना-स्फीति नहीं मिलती। उसका मुख्य‌ स्वर संघर्ष का है। कविताओं में चिन्तन और अनुभूति के बीच बहुत कम अन्त दृष्टिगोचर होता है। समग्रतः श्री सक्सेना एक युगचेता और निर्माणपथी कवि हैं। उनका आवेग और आवेश उनकी रचनाओं का प्राण है। मैं गीतकार हरिशंकर सक्सेना की युग-सजगता और लोक-पीड़ा से सम्पृक्ति का हार्दिक स्वागत करता हूँ। इन गीतों की लय हमारी पीढ़ी के मानस में अवश्य ही एक प्रतिसाद, एक हिलकोर, एक तरंग-वर्तुल रचेगी। यही होगी इन जनबोधी गीतों की प्रासंगिकता। मोह-भंग की स्वर-लिपि में सबसे गाढ़ा लहू हमारे कवि का होगा।”16 डॉ. रामस्वरूप आर्य इन नवगीतों को सरस शब्दावली में प्रखर संवाद कहकर पुकारते हैं, “हरिशंकर सक्सेना नवगीत के प्रमुख रचनाकार हैं। कवि आज की विषमताओं विसंगतियों तथा विद्रूपताओं से विक्षुब्ध है जिनका प्रस्फुटन उसके गीतों में हुआ है। लोगों ने मुखौटे लगा रखे हैं। सफ़ेदपोश लोग अन्दर से विषधर हैं। हवेली शीशे का घर बन गयी है जहाँ पुरवाई क़ैद है। दण्डित लोग पहरेदार बनकर उच्च पदों पर आसीन हैं।”17 ‘सजा मिली है’18 नवगीत में कवि ने मानो अपने जीवन का सारा कच्चा चिट्ठा ही खोलकर सामने रख दिया है। कवि के जीवन की परिस्थितियाँ मानो संत्रास और पीड़ा का पर्याय बनकर रह गई हैं। इनकी अभिव्यक्ति देखिए:

“बँधुआ बन कर काटी हमने उम्र जवानी की
अपने घर में सज़ा मिली है
काले पानी की
आज शहर में संत्रासों का मेला लगा हुआ
षड्यंत्रों के सिद्ध उन्हें नित 
देते नई दुआ”

संग्रह में बेटी पर आधारित एक बहुत सुंदर नवगीत है ‘बेटी घर की पावन गीता’19। इसमें बेटी को तुलसी दल-सी पावन, लोकगीत की उपमा, जनकसुता-सी पावन, गंगा-जमुना की धार और लोकधर्म का सार कहकर पुकारा गया है। और तो और, संघर्षों के रास्ते पर चलकर अपना और अपने समाज का भविष्य भी बेटियाँ सँवारती हैं। कवि की ये उपमाएँ सचमुच मनमोहक हैं:

“तुलसी दल-सी पावन बेटी 
स्वस्तिक चिह्न बनाती है
मनमोहक आलेखन से जो
आँगन ख़ूब सजाती है
लोकगीत की उपमा जैसी
करुणा का आगार यही है
जनकसुता सी पावन बेटी
गंग जमुन जलधारा है
संघर्षों के पथ पर बढ़कर
अपना भाग्य सँवारा है
बेटी ही है शब्द-व्यंजना
लोकधर्म का सार यही है”

हरिशंकर सक्सेना समाज से प्रखर संवाद करते हैं और सोये हुए समाज का आह्वान भी करते हैं कि सत्य की सरिता फिर से इस धरा पर बहानी होगी ताकि चारों ओर सद्भाव के दीप जल सकें और सुख, समृद्धि व शान्ति की शाश्वत धारा इस धरा पर पुनः बह सके:

“आज फिर सद्भाव के दीपक जलाएँ
यह धरा है ज्ञान-गरिमा से अलंकृत
शान्तिधर्मी साधना चहुँ ओर अंकित
हम यहाँ मधुपर्क से पूजन करा कर
नित्य इस पर सत्य की सरिता बहाएँ20

हरिशंकर सक्सेना ने अपने नवगीत संग्रह ‘प्रखर संवाद’ की भूमिका में लिखा है, “मेरा मानना है कि काव्यसृजन एक गंभीर जनधर्मी, समय सापेक्ष और समाज सापेक्ष रचनात्मक कर्म है। किसी भी रचना की सार्थकता उसकी संवेदना और प्रासंगिकता में ही निहित है। अतः रचना में अपने समय संदर्भों से जुड़कर सामाजिक सरोकार को प्रमुखता देना अनिवार्य है अन्यथा रचनाकार अपने व्यष्टिगत सत्य की समष्टिगत परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाएगा।” 21

सन्दर्भ सूची:

  1. डॉ. माहेश्वर तिवारी, ‘संवेदना कलश’, रंजन पब्लिकेशन, बरेली (प्र.सं. 2017), पृ. 7
  2. गैमर, शोध प्रसार (जून 2014), पृ. 58
  3. हरिशंकर सक्सेना, ‘प्रखर संवाद’, रंजन पब्लिकेशन, बरेली (प्र.सं. 2015), पृ. 47
  4. हरिशंकर सक्सेना, ‘चिंतन के विविध आयाम’, निर्झरणी प्रकाशन, बरेली (प्र. सं. 2019), पृ. 62
  5. ‘प्रखर संवाद’, पृ. 25
  6. वही, पृ. 37
  7. वही, पृ. 48
  8. वही, पृ. 13
  9. वही, पृ. 46
  10. वही, पृ. 30
  11. वही, पृ. 19
  12. वही, पृ. 25
  13. वही, पृ. 49
  14. वही, पृ. 21
  15. वही, पृ. 34
  16. डॉ. भगवानशरण भारद्वाज, ‘संवेदना-कलश’, पृ. 8 
  17. डॉ. रामस्वरूप आर्य, ‘संवेदना कलश’, पृ. 20
  18. प्रखर संवाद, पृ. 31
  19. वही, पृ. 47
  20. वही, पृ. 51
  21. हरिशंकर सक्सेना, ‘प्रखर संवाद’, (भूमिका), पृ. 3
     

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