उपकार का दंश – मानवीय करुणा दर्शाती कहानियाँ
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा डॉ. नितिन सेठी1 Dec 2019 (अंक: 145, प्रथम, 2019 में प्रकाशित)
पुस्तक : उपकार का दंश
लेखिका : डॉ. करुणा पांडे
प्रकाशक : आधारशिला प्रकाशन, नैनीताल
मूल्य : रु. 250
पृष्ठ : 168
डॉ. करुणा पांडे का नवीनतम कहानी संग्रह “उपकार का दंश”अपनी पंद्रह कहानियों के माध्यम से सामाजिक यथार्थ को पाठकों के समक्ष रखता है। प्रस्तुत संग्रह की लगभग सभी कहानियाँ समसामयिक मुद्दों और परिस्थितियों का सटीक शब्दांकन करती हैं। बिखरते पारिवारिक रिश्ते, दरकता विशवास, झूठा प्रेम, नृशंसता जैसे तत्वों को डॉ. करुणा पांडे ने बड़ी ही शिद्दत के साथ इन कहानियों में शब्दांकित किया है। बहुत हद तक वह मुद्दों को समाज के सामने लाने में सफल भी कही जा सकती हैं। कहानी वैसे भी घटनाओं, परिघटनाओं का समूह होती है, जिसके माध्यम से लेखक एक बड़े फलक को अभिव्यक्ति देता है। संवेदनशीलता का गुण इसे पाठकों से जोड़ता है। लेखक की यही सबसे बड़ी जीत कही जा सकती है कि वह कितनी गहराई से अपनी अभिव्यक्ति को पाठकों तक पहुँचा पाता है। डॉ. करुणा पांडे अपने प्रस्तुत प्रयास में पूर्णतया सफल जान पड़ती हैं।
माँ-बेटे के दरकते रिश्तों का चित्रांकन है “मुझे माफ़ कर दो”। शरद अपनी बीमार माँ को बोझ समझकर उनका निरादर करता है। अनेक नाटकीय तत्वों से पूर्ण प्रस्तुत कहानी आज की संतान पर एक प्रश्न चिन्ह भी है। “सुखमनी” में आदिवासी समाज की कथा है। मातृत्व की छाया से हीन सुकमनी अपने नाम के अनुरूप ही अपने क्षेत्रवासियों की कठिनाइयों को दूर करती है। आदिवासी समाज आज भी अपने अंधविश्वास और संकीर्णताओं की सीमारेखाओं में जीवन यापन को अभिशप्त है, इस बात को प्रस्तुत करती यह कहानी ख़ुद में एक दस्तावेज़ है। लेखिका ने बहुत ही गहराई से पूर्ण शोध करने के बाद इस कहानी का ताना-बाना बुना है। एक स्त्री अपने घर परिवार के विकास के लिए अपना पूरा जीवन होम कर देती है। “और पेन्टिंग जीत गयी” में सुहासिनी अपने पति की इच्छाओं के समक्ष अपनी चित्रकला को तिलांजलि देकर पारिवारिक दायित्वों में संलग्न हो जाती है। लेखिका द्वारा प्रेरित करने पर अंत में सुहासिनी की कला की प्रसंशा टी.वी. पर भी होती है पुरुषप्रधान समाज में ऐसी घटनाएँ हमें ख़ूब देखने को मिलती हैं। यथार्थ की मार्मिक अभिव्यक्ति यहाँ दृष्टव्य है। इसके ठीक उलट “माँ की थपकी” कहानी अपने आभिजात्य के खोखले प्रदर्शन में व्यस्त माँ की कहानी है, जो दर्शाती है कि अपने सामाजिक प्रदर्शनों में कोई माँ कैसे अपनी संतान को एकाकी बचपन का उपहार देने की ग़लती कर रही है। इन कहानियों में कहीं न कहीं स्वयम लेखिका डॉ. करुणा पांडे का व्यक्तित्व झलकता है। लेखिका स्वयम् उच्च शिक्षित भी हैं और अपने पारिवारिक दृष्टिकोण के प्रति सजग भी।
“छुपा रुस्तम” प्रेम संबंधों पर आधारित कहानी है। जिसमें पारिवारिक संस्कारों और मर्यादा का ध्यान रखते हुए अमन अपनी पसंद की लड़की से प्रेम विवाह करता है। हालाँकि कहानी की थीम पुरानी है, पर प्रस्तुतिकरण नया है। “अभिनव प्रयोग” कहानी सचमुच एक अभिनव प्रयोग है लेखिका का। चार सेवा-निवृत लोग अपना एक नया संसार बसाते हैं, एक दूसरे का ध्यान रखते हैं और समाज में आनन्दमय जीवन जीते हैं। प्रस्तुत कहानी वर्तमान सामाजिक परिदृश्य की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता को इंगित करती है। बिखरे संबंधों को जोड़ने में “इस ज़ज्बे को सलाम” कहानी सहायक है। विकलांगता को अपनी ढाल बनाकर समर्थ और संध्या अपने बड़े भाई-भाभी के भी प्रिय बनते हैं। रिश्ते का वितान और उनके प्रयोगों की कसौटियों को कहानी “बाईनेरी सिस्टम” में दर्शाया गया है। संबंधों का रख-रखाव आज के विज्ञान प्रधान युग में किस तरह से डिजिटल हो गया है, यहाँ दृष्टव्य है। इनपुट-आउटपुट की दुनियां में क़ैद आज का इंसान मशीनी हो गया है। लेखिका शकुन्तला चाची के माध्यम से कटु सत्य को सामने लाती हैं।
विज्ञान जहाँ अभिशाप बना, वहीं अनेक नयी-नयी खोजें भी मानव जीवन को सुविधाजनक बनाती हैं। ऐसी ही एक सुविधा है –“सेरोगेसी”। ‘किराए की कोख’, जहाँ दंपत्ति को कुछ सुविधा देती है, वहीं नैतिकता के तकाज़े पर अनेक प्रश्नचिह्न भी छोड़ जाती है। जिज्ञासा का जीवन शादी के बाद सही दिशा में है लेकिन सेरोगेसी की पुराणी रस्सी उसके गले की फाँस बनकर उभरी है। पति-पत्नी का अंतर्द्वंद्व और सामाजिक बंधन यहाँ भावपूर्ण ढंग से अभिव्यक्ति पाते हैं। “लाल साड़ी” में रजनी की दिवंगत माँ की पुरानी लाल साड़ी और रजनी का उसके प्रति मोह, एक रहस्य स्थापित करता है। एक बेटी की अपनी माँ की चीज़ों के प्रति दीवानगी कहानी का मूल उत्स है। दलित वंचित वर्ग आज भी दो वक़्त की रोटी के लिए तरसता है। “भूख” कहानी में मनसाराम की चिंता मंदिर के महात्मा जी करते हैं। इस कहानी के द्वारा सामाजिक समरसता की सुदृढ़ स्थापना लेखिका ने प्रस्तुत की है। “कराहते वजूद” कहानी में मारिया नामक चरित्र के माध्यम से लेखिका ने दंगों के दर्द को दिखाया है। प्रस्तुत कहानी कालचक्र का मार्मिक प्रभाव दिखाती है। भाग्यवादी बनना इंसान की नियति बन जाती है। एक अकेली लड़की एक साथ हिन्दू, मुस्लिम, सिख, और ईसाई के अलग-अलग वजूदों में विभक्त होती है और अंत में उसे अपनी परिस्थितियों का गुलाम बनना पड़ता है। “मुआवजा” कहानी हिन्दू-मुस्लिम के धार्मिक उन्माद और उससे उपजे बुरे परिणाम की मार्मिक अभिव्यक्ति करती है। “दयामयी माँ” कहानी में स्त्री शोषण और धर्म के नाम पर बाह्य आडम्बरों को लेखिका ने दर्शाया है। शीर्षक कहानी “उपकार का दंश” एक सशक्त कहानी है जिसमें हुस्ना नामक वेश्या के उदात्त चरित्र का रेखांकन है। अपने प्राण देकर भी वह गोपाल के प्राण बचाती है। मानवीय करुणा और समर्पण का मोहक चित्रांकन इस कहानी में मिलता है। प्राय: वेश्या के चरित्र को निम्न दिखकर उसे समाज से अलग, एक लालची और स्वार्थी रूप में प्रस्तुत करते हैं, परन्तु लेखिका ने इस कहानी के माध्यम से यह सिद्ध किया है कि वेश्या में भी मानवीय संवेदनाएँ हमारी तरह ही होती हैं और उन्हें समाज से तिरस्कृत नहीं करना चाहिए। संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से भी इसे रखा जा सकता है।
डॉ. करुणा पांडे लम्बे समय से कहानियाँ लिखती आ रही हैं। आपकी कहानियों में मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक परिस्थितियों का सफल चित्रांकन होता है। प्रस्तुत कहानी–संग्रह में भी डॉ. करुणा पांडे विभिन्न कथानकों के माध्यम से मानसिक अंतर्द्वंद्व, आत्मीय पीड़ा, संकीर्णता, भावुकता, भग्नाशा, साहचर्य, विश्वासघात जैसे तत्वों को पाठकों के समक्ष लाती हैं। जीवन के चक्र का शब्दांकन इन कहानियों को स्वाभाविक गति प्रदान करता है। अपनी पात्र योजना में लेखिका पूर्णतया सजग हैं। सभी पात्र यथास्थान अपनी महत्ता रखते हैं। दैनिक बोलचाल की शब्दावली का प्रयोग इन सभी कहानियों की संप्रेक्षणीयता बढाता है। कहानी केवल कुछ घटनाओं को लेकर क्रमबध्द रख देना ही नहीं है, अपितु कोई न कोई सन्देश देने की कला भी है। डॉ. करुणा पांडे प्रस्तुत प्रयास में पूर्णतया खरी उतरी हैं। कथ्य की विविधता और विशिष्ट प्रस्तुतिकरण ‘उपकार का दंश’कहानी संग्रह की कहानियों को पठनीय भी बनाता है और संग्रहणीय भी। डॉ. करुणा पांडे इस प्रयास में एक महत्वपूर्ण कहानी संग्रह साहित्य जगत में लेकर आयीं हैं।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
"कही-अनकही" पुस्तक समीक्षा - आचार्य श्रीनाथ प्रसाद द्विवेदी
पुस्तक समीक्षा | आशा बर्मनसमीक्ष्य पुस्तक: कही-अनकही लेखिका: आशा बर्मन…
'गीत अपने ही सुनें' का प्रेम-सौंदर्य
पुस्तक समीक्षा | डॉ. अवनीश सिंह चौहानपुस्तक: गीत अपने ही सुनें …
सरोज राम मिश्रा के प्रेमी-मन की कविताएँ: तेरी रूह से गुज़रते हुए
पुस्तक समीक्षा | विजय कुमार तिवारीसमीक्षित कृति: तेरी रूह से गुज़रते हुए (कविता…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
पुस्तक समीक्षा
- अनुसंधान पत्रिका का कश्मीर विशेषांक: ज़िन्दगी जीने की कशमकश के बीच हौसलों के जगमगाते जुगनू
- अमेरिका और 45 दिन : गुलों से भरी गलियों की गरिमा का गायन
- आनंद छन्द माला (भाग-1)
- आशा भरी दृष्टि का दिग्दर्शन: बन्द गली से आगे
- उपकार का दंश – मानवीय करुणा दर्शाती कहानियाँ
- खोए हुए रास्तों को दमकाती ’अंजुरी भर चाँदनी’
- जीवन की क्षमताओं पर विश्वास जगाती क्षणिकाएँ
- नये आयाम स्थापित करती दोहा कृति ‘यत्र तत्र सर्वत्र’
- नारी सशक्तिकरण के परिप्रेक्ष्य में उषा यादव के उपन्यास
- निर्गुण संत कवियों के काव्य का सटीक अध्ययन: संत साहित्य की समझ
- मानवता के मंगलायन पर आगे बढ़ते जाने का मंगलगान: मंगलामुखी
- रंगमंचीय दृष्टिकोण और राधेश्याम कथावाचक के नाटक
- शोधपरक विचारों का अविरल प्रवाह
- स्त्री चिंतन की अंतर्धाराएँ और समकालीन हिंदी उपन्यास: नारी जागरण का सुसंदर्भित विमर्श
- हिन्दी ग़ज़ल पर विराट दृष्टि
साहित्यिक आलेख
शोध निबन्ध
समीक्षा
अनूदित आलेख
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं