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हिन्दी ग़ज़ल पर विराट दृष्टि

पुस्तक: हिंदी ग़ज़ल: सरोकार चुनौतियाँ और संभावनाएँ
लेखक: कमलेश भट्ट कमल
प्रकाशक: प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली
मूल्य: ₹ 500
पृष्ठ: 224

हिंदी ग़ज़ल को प्रतिष्ठित करने में जिन ग़ज़लकारों का महत्त्वपूर्ण योगदान है, उनमें कमलेश भट्ट कमल का नाम भी उल्लेखनीय है। उनकी सृजनधर्मिता को उनके छह प्रकाशित ग़ज़ल संग्रहों में गहराई से महसूस किया जा सकता है। महत्त्वपूर्ण यह भी है कि कमलेश भट्ट कमल केवल ग़ज़ल के सृजन तक ही केंद्रित नहीं रहे, अपितु हिंदी ग़ज़ल की समालोचना को भी आपने उतना ही समय प्रदान किया है। कमलेश समय-समय पर हिंदी ग़ज़ल पर आधारित विचारपरक आलेख और ग़ज़ल संग्रहों की समीक्षाएँ भी लिखते रहे हैं। इन आलेखों में जहाँ कमलेश की अन्वेषी दृष्टि और हिंदी ग़ज़ल जैसी विधा पर गहरी पकड़ दिखाई देती है, वहीं समीक्षाओं में उनकी नीर-क्षीर-विवेकी दृष्टि भी उभरकर सामने आती है। कमलेश चूँकि स्वयं भी ग़ज़लकार हैं, अतः व्यवहारिक धरातल पर अपनी बात को पूरी प्रमाणिकता के साथ रख पाने में वे सफल हुए हैं। आपकी पुस्तक ‘हिंदी ग़ज़ल: सरोकार, चुनौतियाँ और संभावनाएँ’ हिंदी ग़ज़ल की आलोचना में एक महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय प्रयास बनकर सामने आई है। प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली से प्रकाशित प्रस्तुत पुस्तक दो भागों में विभक्त है–विचार खंड और समीक्षा खंड। विचार खंड के बीस आलेख अपने नाम के अनुरूप ही मौलिक वैचारिकता और वस्तुपरक विश्लेषण के द्वारा हिंदी ग़ज़ल के विविधवर्णी संसार को दर्शाते हैं, वहीं समीक्षा खंड में चौबीस समीक्षात्मक आलेख हैं। इनमें विभिन्न ग़ज़ल संग्रहों और हिंदी ग़ज़ल पर आधारित समीक्षात्मक कृतियों की समीक्षाएँ हैं। 

पहले बात विचार खंड की। ग़ज़ल एक ऐसी काव्य विधा है जिसका शिल्प व व्याकरण थोड़ा जटिल माना जाता है। ग़ज़ल जब फ़ारसी से उर्दू में तथा उर्दू से हिंदी भाषा में आई, तब समय के साथ-साथ विभिन्न शिल्प विधान भी इसने अपने में जोड़े। अपने प्रथम आलेख ‘ग़ज़ल की गणितीय संरचना’ में कमलेश ग़ज़ल के शब्दों के वज़न को साधने का रोचक ढंग से वर्णन करते हैं। यहाँ कमलेश अपनी बनाई हुई तकनीक का सहारा लेते हैं, जो काफ़ी हद तक सफल भी लगती है। परन्तु प्रस्तुत आलेख और अधिक विस्तार की माँग रखता है। आगे के तीन आलेखों में हिंदी ग़ज़ल बनाम उर्दू ग़ज़ल के मुद्दे पर विस्तारपूर्वक बात की गई है। कमलेश प्रखरता से उर्दू ग़ज़ल से हिंदी ग़ज़ल का अलगाव स्थापित करते हैं। हिंदी ग़ज़ल ने गीत की संगीतात्मकता, नई कविता का यथार्थबोध और नवगीत की ताज़गी—इन तीनों बातों को एक साथ अपनाया है। जबकि उर्दू ग़ज़ल आज भी माशूक़ा से बातचीत की परंपराओं को ही निभाती चल रही है। ऐसी बौद्धिक उक्तियों और तर्कपूर्ण विवेचन से कमलेश ने यहाँ विमर्श की तलस्पर्शी स्थापनाओं को सामने लाने में सफलता पाई है। ‘ग़ज़ल: अभिव्यक्ति की बहुआयामी विधा’ आलेख में कमलेश लिखते हैं—“यह अकारण नहीं है कि आज हिन्दी ग़ज़ल उर्दू शायरी के मुक़ाबले अपना एक अलग चेहरा, अपनी एक अलग पहचान और व्यक्तित्व रखती है। आज हिंदी ग़ज़ल की अपनी एक सकारात्मक समाजोन्मुखी छवि है जिसके चलते वह हर प्रकार के मीडिया में अपना स्थान बना चुकी है।” इस आलेख में वर्तमान में हिंदी ग़ज़ल को एक स्थायी स्वरूप देने वाले नामों पर सामान्य चर्चा भी की गई है। पिछले चालीस-पचास वर्षों में हिंदी ग़ज़ल की विकास यात्रा का उपयोगी लेखा-जोखा यहाँ है। किसी कला या सृजन को तभी कारगर और उपयोगी कहा जा सकता है, जब वह अपनी सामाजिक उपयोगिता की कसौटियों पर भी खरी उतरे। ‘हिंदी ग़ज़ल दशा और दिशा’, ‘सामाजिक सरोकारों की कोख से जन्मी है हिंदी ग़ज़ल', ‘हिंदी ग़ज़ल: पगडंडी से राजमार्ग तक का सफर’, ‘हिंदी ग़ज़ल और आधुनिक बोध’ जैसे आलेख; हिंदी ग़ज़ल की निर्मिति और अभिव्यक्ति को वर्तमान सामाजिक संदर्भ के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। 

आधुनिक भाव-भंगिमा, कथ्यशिल्प और अभिव्यक्ति को वर्तमान हिंदी ग़ज़ल ने भली-भाँति आत्मसात् किया है। भले ही उसके समक्ष कितने ही अवरोध आए। 

हिंदी ग़ज़ल की भाषा और शिल्प पर भी कमलेश भट्ट कमल ने गहनता से विचार किया है। भाषा के अनेक गुण गिनाए जा सकते हैं परन्तु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात है भाषा की सहज संप्रेषणीयता। कमलेश हिंदी ग़ज़ल की भाषा पर बात करते हुए एक सार्वभौमिक सूत्र देते हैं—“सबसे अच्छी ग़ज़ल तमाम सारी कलात्मकता को समेटे हुए भी सबसे सहज लगने वाली रचना होती है। भाषा यदि इस सहजता को सहेज पा रही है, तभी वह उपयुक्त है। यदि वह इस सहजता को दुरूहता की परिधि में ले जाने वाली है, तो कम से कम ग़ज़ल के लिए वरेण्य नहीं है।” 

इसी क्रम में ‘हिंदी ग़ज़ल में शिल्प की चुनौतियाँ’ आलेख में मात्रिक गणना, वज़न, बहर, शेरियत, वाक्य विन्यास, सौन्दर्यबोध पर विस्तार से दृष्टि डाली गई है। ऐसे आलेख नवोदित ग़ज़लकारों के लिए सच्चे मार्गदर्शक का कार्य करते हैं। आलोचना मात्र सैद्धांतिक कार्य न होकर रचनात्मकता के वैभव वितान का प्रसार भी होती है। किसी भी रचना की आलोचना परंपरागत मूल्यों के साथ-साथ रचनाकार की संवेदना को भी समझने की प्रक्रिया होती है। ‘हिंदी ग़ज़ल में आलोचना की चुनौतियाँ’ आलेख में कमलेश इस संवेदनशील विधा पर अपना क्षोभ व्यक्त करते हैं। वे आलोचना की वर्तमान पद्धति पर भी उचित प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। हिंदी ग़ज़ल के आलोचना संकट को वे यूँ शब्दायित करते हैं, “कहना न होगा कि इतनी सारी और भाँति-भाँति की चुनौतियों के चलते हिंदी ग़ज़ल की आलोचना के लिए ग़ज़ल की दुनिया से बाहर का आलोचक मिलना आसान नहीं होगा। अतः हिंदी ग़ज़लकारों को ही इस कार्य के लिए कमर कसनी पड़ेगी।” 

प्रस्तुत पुस्तक में तीन आलेख ऐसे हैं जिनमें अलग-अलग घटनाक्रमों पर लेखक ने अपना मंतव्य स्पष्ट किया है। इसमें अशोक बाजपेई, केदारनाथ सिंह, स्तंभकार राजकिशोर, शायर व गीतकार निदा फ़ाज़ली द्वारा हिंदी ग़ज़ल और हिंदी ग़ज़लकारों के विरोध में कहे गए वक्तव्यों का ज़ोरदार खंडन किया गया है। कमलेश यहाँ केवल हवाई बातें नहीं करते अपितु ठोस तर्क और प्रमाण के आधार पर अपनी बात को पुख़्ता तौर पर रखते हैं। अपने बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तरों और अकाट्य तर्कों से कमलेश हिंदी ग़ज़ल के सफल अधिवक्ता के रूप में इन आलेखों में उपस्थित हैं। ‘नागरी ग़ज़ल का खंडन’ और ‘मीनमेख के फतवे’ आलेख भी महत्त्वपूर्ण हैं। 

पुस्तक का द्वितीय खंड समीक्षा खंड है जिसमें विभिन्न ग़ज़ल आधारित पुस्तकों पर चौबीस समीक्षात्मक आलेख हैं। इनमें चार आलेख हिंदी ग़ज़लों की आलोचना पुस्तकों पर केन्द्रित हैं। दो समीक्षात्मक आलेख हिंदी ग़ज़ल संकलनों पर, एक आलेख हिंदी ग़ज़लकार पर आधारित आलोचना कृति पर तथा अन्य तेरह आलेख विभिन्न ग़ज़ल संग्रहों पर हैं। कमलेश भट्ट कमल की समीक्षा दृष्टि गहराई से इन आलेखों में स्पष्ट हुई है। लेखक की तटस्थता और लेखनी का तजुर्बा; दोनों ही पूरी तैयारी के साथ यहाँ शब्दायित हुए हैं। ग़ज़लकार से कहीं ज़्यादा ज़ोर यहाँ ग़ज़ल पर दिया गया है, जो इन आलोचनाओं की विश्वसनीयता को सिद्ध करता है। आलोचक की पाठकीयता और चयन का प्रतिमानीकरण यहाँ उल्लेखनीय है। भाषा, कथ्य, शिल्प, अंदाज़ेबयां के साथ-साथ समसामयिक परिप्रेक्ष्य में कृति विशेष का स्थान इन समीक्षाओं में निर्धारित किया गया है। 

प्रस्तुत पुस्तक अपने संपूर्ण कलेवर में हिंदी ग़ज़ल के रचनात्मक और समीक्षात्मक स्थापत्य का संस्तुत्य प्रयास है। अपने विचारशीलता, बौद्धिकता और साहित्यिकता के कलेवर में पुस्तक अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यहाँ हिंदी ग़ज़ल का अरण्यरोदन नहीं है अपितु लेखक ने अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने वाली हिंदी ग़ज़ल के सामाजिक-साहित्यिक सरोकारों, अन्य काव्यविधाओं द्वारा समय-समय पर मिलने वाली चुनौतियों और भविष्य की सबल और सफल संभावनाओं पर समग्ररूप से प्रकाश डाला है। कमलेश प्रस्तुत पुस्तक में आत्ममुग्धता और बाह्य प्रभावों से पूरी तरह दूर रहे हैं। आलोचकीय सजगता व तटस्थता और पाठकीय चेतना व दृष्टिसम्मपन्नता; दोनों ही कमलेश भट्ट कमल को समान रूप से प्राप्त हुए हैं। हिन्दी ग़ज़ल पर आज जिस तेज़ी, तवज्जोह, तहज़ीब और तजुर्बे के साथ काम किया जा रहा है; उसमें कमलेश भट्ट कमल की प्रस्तुत पुस्तक में की गई तहक़ीक़ात और ताकीद– ग़ज़लकारों, शोधार्थियों और पाठकों के लिए सर्वविध उपयोगी हैं। कमलेश भट्ट कमल की आशावादी दृष्टि हिंदी ग़ज़ल को जानने-समझने का एक सार्थक माध्यम बनकर हिन्दी ग़ज़ल सृजन को और अधिक मज़बूती प्रदान करती दिखाई देती है। 

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टिप्पणियाँ

नीलम राकेश 2023/03/02 05:37 PM

शानदार समीक्षा बधाई स्वीकारें।

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