जीवन की क्षमताओं पर विश्वास जगाती क्षणिकाएँ
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा डॉ. नितिन सेठी1 Jan 2023 (अंक: 220, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
पुस्तक: पहाड़ों पर धूप
कवि: डॉ. सतीश चंद्र शर्मा ‘सुधांशु’
प्रकाशक: संकल्प प्रकाशन, कानपुर
मूल्य: ₹199 /-
पृष्ठ: 96
हिंदी साहित्य में क्षणिका विधा पर्याप्त चर्चित रही है। अनेक साहित्यकारों ने क्षणिकाओं का सृजन कर इस विधा को समृद्ध किया है। बहुत कम शब्दों में किसी बात को क्षणिका अत्यंत प्रभावशाली रूप में हम तक पहुँचाती है। ‘तार सप्तक’ के प्रकाशन के साथ-साथ लघु कविताओं ने भी हिन्दी साहित्य में अपना स्थान ग्रहण किया। प्रयोगवादी कविता के युग में ऐसी कविताएँ ख़ूब लिखी गईं जिनमें शब्दों का अपव्यय न हो और अपनी मारक क्षमता के साथ ये अपनी बात स्पष्ट रूप से कह सकें। इनमें व्यंग्यात्मकता अधिक रही। उस समय काव्य में बिम्बवाद (इमेजेस मूवमेंट) का भी बोलबाला रहा। कम से कम शब्दों में अपनी बात कविता में कहना और संगठित भावाभिव्यक्ति की प्रस्तुति ही बिम्बवाद का मूल उत्स रहा। उस समय कुछ ऐसे कविताओं की रचना की गई जो बहुत कम शब्दों में अपने भावों की अभिव्यक्ति करती थीं। लघुकाय कविताओं के लिए ‘क्षणिका’ शब्द का पहली बार प्रयोग रवींद्रनाथ ठाकुर ने किया था। उनकी छोटी-छोटी रचनाओं का काव्य-संग्रह ‘क्षणिका’ नाम से प्रकाशित भी हुआ था। बाद में ‘स्फुलिंग’ नामक काव्य-संग्रह में उन्होंने कुछ और छोटी-छोटी रचनाओं का संग्रह किया। ये रचनाएँ छोटी होने के बावजूद अर्थव्यंजना और भावों की गहनता को स्वयं में समेटे हुई थीं। उस समय तक रवींद्रनाथ टैगोर की इन कविताओं की चर्चा अधिक नहीं हुई थी। लेकिन इसके बाद अनेक रचनाकारों ने क्षणिका पर अपना काम आरंभ किया।
रामेश्वर कांबोज ‘हिमांशु’ ने क्षणिका विधा पर अपना विशिष्ट चिंतन प्रस्तुत किया है। उनके शब्दों में, “क्षणिका के सन्दर्भ में मैं यह बात कहना चाहूँगा कि समय के किसी महत्त्वपूर्ण क्षण को आत्मसात् करके संश्लिष्ट (संक्षिप्त नहीं) रूप में किया गया काव्य-सर्जन ही क्षणिका है। क्षणिका किसी लम्बी कविता का सारांश नहीं है और न मन बहलाने के लिए गढ़ा गया कोई चुटकुला या चुहुलबाज़ी-भरा कोई कथन। भाव की अभिकेन्द्रिकता, भाषा का वाग्वैदग्ध्य-पूर्ण प्रयोग एक दिन का काम नहीं, वरन् गहन चिन्तन-मनन, अनुभूत क्षण की सार्थकता और सार्वजनीनता पर निर्भर है। जिस रचनाकार के चिन्तन और अनुभव का फलक जितना व्यापक होगा, भाषा-व्यवहार जितना अर्थ-सम्पृक्त होगा, क्षणिका उतनी ही प्रभावशाली और मर्मस्पर्शी और मर्मभेदी होगी। आकारगत लघुता को खँगालने के लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं। भारतीय वाङ्मय ही इसके लिए पर्याप्त है।” क्षणिका की विशेषताओं को क्षणिका की परिभाषा में ही यहाँ बहुत ही ख़ूबसूरती से समाहित कर दिया गया है।
हिंदी साहित्य में वर्तमान में अनेक रचनाकार क्षणिका सृजन कर रहे हैं। सरोजिनी प्रीतम, रामकृष्ण विकलेश, डॉ. स्वर्ण किरण, शिव कुमार मिश्र (शिव), डॉ. कमलेश शर्मा, डॉ. मिथिलेश दीक्षित, नारायण सिंह निर्दोष, महावीर रंवाल्टा, डॉ. अनिता कपूर, केशव शरण, बलराम अग्रवाल, डॉ. सुरेन्द्र वर्मा, उमेश महादोषी, अमितेश जैन आदि नाम इस क्षेत्र में प्रसिद्ध रहे हैं। डॉ. सतीश चंद्र शर्मा ‘सुधांशु’ प्रख्यात् कवि हैं। गीत, नवगीत, दोहा, कुंडलिया, घनाक्षरी, हाइकु जैसी विधाओं में उनका साहित्यिक अवदान पर्याप्त रूप से उल्लेखनीय रहा है। पिछले कई वर्षों से ‘नये क्षितिज’ त्रैमासिक पत्रिका के प्रधान संपादक के रूप में भी उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है। बाल साहित्य के लिए भी वह समर्पित रहे हैं। प्रस्तुत पुस्तक में उनकी कुल (504) क्षणिकाओं का संग्रह है। प्रस्तुत संग्रह में विभिन्न भावभूमि की अनेक क्षणिकाएँ हैं, जो पाठकों को गुदगुदाती हैं। जैसा कि क्षणिकाओं की विशेषताओं को स्पष्ट करते हुए ऊपर कहा गया है, भावों का अभिकेंद्रण और भाषा का वाग्वैदग्ध्य-पूर्ण प्रयोग सुधांशु जी की इन क्षणिकाओं को विशिष्ट, उल्लेखनीय और बार-बार पठनीय बनाता है।
सुधांशु जी ने अपना लंबा सेवाकाल पुलिस विभाग में दिया है, तो स्वाभाविक सी बात है कि पुलिस के कर्तव्यों की कसौटी उनके सामने हमेशा रही है। प्रस्तुत संग्रह में पुलिस पर अनेक मनमोहक क्षणिकाएँ प्राप्त होती हैं:
पुलिस ततैया और कटैया
डंक लगे तो सभी नाचते
ता ता थैया
थाने के गेट पर लिखा है
दलालों का प्रवेश मना है
ऊपरी कमाई का दारोमदार
इन्हीं पर घना है
इंद्रधनुष और पुलिस भाई से लगते हैं
तूफ़ान गुज़रने के बाद ही दिखते हैं
क्षणिकाओं में राजनीति पर करारे व्यंग्य मिलते हैं। राजनीति का चाल और चरित्र ऐसे हैं कि क्षणभर में व्यक्ति इनको नहीं समझ सकता लेकिन कमाल की बात है कि क्षणिका राजनीति पर ऐसा करारा व्यंग्य करती है कि स्वतः ही मन मुस्कुरा-सा उठता है। राजनीति की विद्रूपता पर व्यंग्य करती क्षणिकाएँ द्रष्टव्य हैं:
महाभारत देख
नेताजी की बाँछें खिलीं
द्रौपदी के चरित्र से
गठबंधन सरकार की
प्रेरणा मिली
समाज में फैले भ्रष्टाचार पर बहुत लंबे-चौड़े भाषण दिए जा सकते हैं। अनेक प्रकार से भ्रष्टाचार पर बहुत कुछ लिखा-बोला भी गया है। लेकिन सुधांशु जी की क्षणिकाएँ भ्रष्टाचार को कितनी गहराई और प्रभावपूर्ण ढंग से अभिव्यक्त करती हैं, द्रष्टव्य है:
हमने पूछा कौन चलता है
अधिक तेज रफ़्तार से
वे बोले रफ़्तार में कोई नहीं
जीत सकता
भ्रष्टाचार से
हमने पूछा
सबसे धीमी गति से
कौन चलता है
केंचुआ या कछुआ
वे बोले
सरकारी फ़ाइल बचुआ
उपर्युक्त दोनों ही क्षणिकाएँ भ्रष्टाचार पर केंद्रित हैं, लेकिन दो अलग-अलग भावों के निरूपण से कितना गहरा अर्थबोध यहाँ प्रकट होता है। यही कवि की क़लम की असली ताक़त है। ये क्षणिकाएँ विसंगतियों को स्पष्ट करती हैं और यहीं से इनका प्रभाव द्विगुणित हो जाता है। राजनीति में व्याप्त अव्यवस्थाओं पर भी सुधांशु जी करारा व्यंग्य निम्नलिखित क्षणिकाओं में करते हैं”
जिस मंत्रालय पर
मद्यनिषेध की
नैतिक ज़िम्मेदारी है
उसी पर शराब की
खपत बढ़ाने का
दायित्व भारी है
वे सफ़ाई अभियान का दायित्व
यूँ निभा रहे हैं
सफ़ाई अभियान
बजट की सफ़ाई
बड़ी सफ़ाई से करा रहे हैं
राजनीति पर एक और क्षणिका यहाँ उल्लेखनीय है, जिसमें राजनीति के विस्तार का स्वार्थपरक स्वर सुनाई देता है:
राजनीति में आदर्श था
गांधीवाद समाजवाद
उन्होंने परिशिष्ट के रूप में
जोड़ दिया वंशवाद
राजनीतिक भ्रष्टाचार के साथ-साथ हमारी न्यायपालिका भी इसी दोष से पीड़ित दिखाई देती है। देरी से न्याय मिलना भी एक प्रकार का अन्याय ही तो है। इस बात की अभिव्यक्ति कवि यूँ करता है:
कहते हैं दीवानी में
दिवाला निकल जाता है
मुक़दमा दादा करता है
फ़ैसला पोता पाता है
इसी क्रम में राजनीति के चार गुणों को दर्शाती क्षणिका आज की राजनीति की विडंबना को सामने लाती है:
घोषणा, भाषण
वायदे, आश्वासन
गुण विचित्र हैं
राजनीति के
चार पुत्र हैं
जीवन के सत्य और अनुभूतियों को साहित्य हमारे सामने लाता है। क्षणिका भी यही काम करती है लेकिन अपने छोटे से कलेवर और अपनी तीव्रता के तेवर में। परिवार और रिश्ते-नातों को आधार बनाकर सुधांशु जी ने अनेक क्षणिकाओं की रचना की है। परिवार के नि:स्वार्थ बंधन और समर्पण के भाव इनमें स्थान पाते हैं। माता-पिता की महानता दर्शाती क्षणिकाओं का अपना ही सौंदर्य है:
माँ की ममता
पिता की क्षमता
ईश्वर भी
नहीं आँक सकता
माँ की ममता विशेष
पिता की क्षमता अशेष
समाधान खोजता फिरा
यहाँ-वहाँ
समाधान घर में ही मिला
माँ
अनपढ़ माँ
चेहरे पढ़ लेती है
संतान के लिए
दुनिया से लड़ लेती है
माँ नैसर्गिक
कलाकार कहलाती है
माँ, बेटी, बहन, पत्नी के किरदार
बड़ी कुशलता से निभाती है
लेकिन आज के भौतिकवादी युग में रिश्ते-नातों की डोरियाँ टूट सी गई हैं। अन्य सम्बंधों की तो बात ही क्या है, आज बच्चे अपने माता-पिता के निष्काम त्याग और समर्पण को भी भूलने लगे हैं। ऐसे दु:खद क्षणों की अभिव्यक्ति कवि की क़लम बहुत ही मार्मिक स्वर में करती है:
चारों बेटे पाले
बड़े अरमानों से
वही माँ-बाप का सीना
बेध रहे हैं तानों से
माता-पिता को तीर्थयात्रा
काँवड़ से कराई थी
श्रवण कुमार ने
आधुनिक श्रवण माँ-बाप को
वृद्धाश्रम की यात्रा
करवाता है कार से
विज्ञान के द्वारा प्रदान की गई असीमित सुख-सुविधाओं ने हमारे जीवन को सरल और आरामदायक बनाया है लेकिन विज्ञान का केवल यही सत्य नहीं है। वैज्ञानिक युग की दौड़-भाग ने आज व्यक्ति की व्यक्ति से दूरियाँ बढ़ा दी है। ये दूरियाँ सामाजिक और मानसिक, दोनों ही प्रकार की हैं। इसी के साथ सबसे दु:खद बात तो यह है कि अब सांस्कृतिक रूप से भी हम विपन्न होने लगे हैं। अपने कैरियर और उन्नति की चिंता में अपने दिन-त्यौहारों तक को हम विस्मृत कर बैठे हैं:
राखी बँधवाने का
अब भाई के पास
नहीं रहता वक़्त
कारण मोबाइल लैपटॉप पर
रहता है व्यस्त
मोबाइल ने छीनी
हँसी-ठिठोली
आँख मिचौली
अपने कब हुए पराये
समझ न पाये
अपनी इस क्षणिका में सुधांशु जी ने बच्चों को ‘प्रवासी पंछी’ कहकर पुकारा है, जो आज का कड़वा युगसत्य ही प्रतीत होता है:
अब बच्चे प्रवासी पंछी
प्रतीत होते
त्यौहारी सीज़न में आते
थोड़ा रुक कर अतीत होते
आज का बच्चा कल का भविष्य है। लेकिन आज के मॉडर्न युग ने माँ-बाप को भी बच्चों से दूर कर दिया है। व्यस्त और कामकाजी परिवारों में बहुत छोटे बच्चों की आज आया और नौकर-चाकर ही देखभाल करते हैं। ऐसी सामाजिक स्थिति को सुधांशु जी की गहरी दृष्टि देखती-समझती है और इसकी अभिव्यक्ति इस क्षणिका में शब्दायित होती है:
मॉडर्न माँ को
डेढ़ वर्षीय बेटे ने
ज़ोर का झटका
धीरे से मारा
जब उसने आया को
माँ कहकर पुकारा
और इसी सामाजिक व्यवस्था का परिणाम है कि आज घर में भले ही बहुत धन-वैभव हो, सम्पत्ति हो; लेकिन आदमी अंदर से टूटा हुआ है। बाहर हँसने-हँसाने की तो उसकी मजबूरी है लेकिन अंदर से वह प्रेम के दो मीठे बोलों की अभिव्यक्ति चाह रहा है। क्षणिका देखिए:
घर में धन-दौलत
भरपूर है
अंदर से
चकनाचूर है
ध्यान से देखा जाए तो इस क्षणिका में मात्र दस शब्दों का प्रयोग किया गया है। परन्तु ये दस शब्द ही वर्तमान समय की हमारी जीवनशैली को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं। वास्तव में क्षणिका का काम भी यही है कि गंभीर से गंभीर बात को भी कम से कम शब्दों में पूरे-पूरे प्रभाव के साथ स्पष्ट कर दे। आज के युग में व्यक्ति का सारा मान-सम्मान केवल उसके धन-वैभव पर ही निर्भर करता है। रिश्ते-नाते सब इसी पर निर्भर हैं आजकल। लेकिन एक ऐसी स्थिति भी आती है कि व्यक्ति अपना सारा मान-सम्मान खो बैठता है:
जब हाथ होता है तंग
रिश्तों में घुल जाती है भंग
शुरू हो जाती है जंग
प्रत्येक साहित्यकार का अपना जीवन दर्शन होता है। सृजन उतना ही अधिक प्रभावी होगा जितना गहरा उसमें जीवन दर्शन होगा। क्षणिका काव्य की ऐसी विधा है जिसमें जीवनपरक और दार्शनिकता से युक्त अनेक बातें कही जाती हैं। बस इतना आवश्यक है कि ये बातें सीधी-सीधी सूक्तियां न बनने पाएँ। सुधांशु जी ने इस तथ्य का अपने क्षणिका सृजन में विशिष्ट ध्यान रखा है। संग्रह में अनेक क्षणिकाएँ दार्शनिक भावों से युक्त हैं लेकिन वे कोरा उपदेश या सूक्तियाँ नहीं बनने पाई हैं। प्रकृति के माध्यम से सुधांशु जी जीवन संघर्ष के अनेक चित्र प्रस्तुत करते हैं। दूब, देवदार और कैक्टस के प्रतीकों से ये क्षणिकाएँ महत्त्वपूर्ण बन पड़ी हैं:
पहाड़ों पर उगी दूब
जिजीविषा का
उदाहरण ख़ूब
किसी ने पूछा
क्या है जीवन संघर्ष
पहाड़ों पर खड़ा देवदार
संघर्ष का उत्कर्ष
कष्ट सहकर
मुस्कुराने का कारण
कैक्टस है जीवंत उदाहरण
क्षणिका लिखने में कवि का गहन जीवन अनुभव और व्यापक जीवनदृष्टि बहुत उपयोगी सिद्ध होती है। सुधांशु जी ने जीवन के उतार-चढ़ाव देखे हैं और इसी कारण वे अपनी क्षणिकाओं में जीवन के ये रंग भी उपस्थित कर पाते हैं। जीवन के उद्देश्यों के प्रति ऐसी सजगता और सहजता निश्चित ही उल्लेखनीय है:
एक ही सामग्री से बने
पुल और दीवारों में
कितना विरोधाभास
दीवारें विभाजन का आभास
पुल जोड़ने का प्रयास
प्रेम का पवित्र भाव किस तरह तरह वासना के बंधनों में जाकर भटकाव की स्थिति में आ जाता है, द्रष्टव्य है:
प्रेम के ढाई आखर को
जब-जब तीन बनाने का
हुआ प्रयास
तब-तब वासना का
प्रवेश हो गया अनायास
आधुनिकता की अंधी दौड़ ने व्यक्ति को ख़ूब सुख-सुविधाएँ प्रदान की हैं लेकिन वह अपने परिवार को भूल सा गया है। इस बात को कितने ही कम शब्दों में कवि अभिव्यक्ति देता है:
उपलब्धि नहीं होती
रोटी कमाना
उपलब्धि है रोटी
परिवार सहित खाना
यह एक ऐसी स्थिति है जो आज सबको लाख चाहने के बावजूद भी प्राप्त नहीं हो पाती। व्यक्ति अपने परिवार के साथ दो घड़ी बैठकर अपने सुख-दुख बाँट पाने की स्थिति में भी आज नहीं है। विचारणीय है कि वैज्ञानिक प्रकृति ने हमें कौन से मोड़ पर ला खड़ा किया है।
जीवन कैसे जिया जाए, इसके भी अनेक सूत्र अपनी क्षणिकाओं में सुधांशु जी देते हैं। गाँधीजी के तीन बंदर प्रतीक हैं बुराइयों से दूर रहने के। एक निश्चित आयुसीमा के बाद व्यक्ति को देखना-बोलना-सुनना; इन तीनों पर अपना नियंत्रण रखना चाहिए, तभी वह जीवन का बचा हुआ समय चैन से काट सकता है। जीवन का यह गहन अनुभव कवि इस क्षणिका में अभिव्यक्त करता है:
रिटायरमेंट के बाद
सम्मान से जीने का तरीक़ा
बापू के बंदरों से
सीखो सलीक़ा
इसी प्रकार जीवन में उत्साह का संचार कर जीवन जीने का सार्थक और सार्वभौमिक मंत्र बताती कुछ और क्षणिकाएँ देखिए:
जिसने अँधेरों में जीना सीखा
उसे जुगनू सूरज सरीखा
जो डर गया बातों से
वह क्या लड़ेगा प्रतिघातों से
जीवन का अर्थ
बिना अर्थ व्यर्थ
जब चटक जाता है दर्पण
तब एक ही विकल्प है परिवर्तन
न शिकायत न शिकवा गिला
जो चाहा सब कुछ मिला
निम्नलिखित क्षणिकाओं में जीवनचक्र के आरंभ और अंत का सामंजस्य कितनी सुंदरता से रखा गया है:
काठी और लाठी
दोनों ही सहारा देती हैं
एक चलने में
दूसरी हमारा वज़न ढोती है
जैसे घड़ी की सूई
नहीं पाती है विराम
वैसे आयुचक्र
चलता है अविराम
साहित्य वही जीवंत रहता है जो समसामयिक परिप्रेक्ष्य में अपनी बात कहता है। कोई साहित्यकार अपने सृजन में अपने वर्तमान का जितना अधिक उपयोग करेगा, अपने साहित्य में वह उतने ही समसामयिक तथ्यों को उपलब्ध करवा सकेगा। सुधांशु जी अपने जीवन अनुभवों को केंद्रित करके अपने सृजन में उन्हें पर्याप्त स्थान देते हैं। कवि की दृष्टि वर्तमान पर गहराई से जाती है। क्षणिका वैसे भी प्रभाव की व्यापक परिधि की माँग करती है। यह प्रभाव तभी उत्पन्न होगा जब क्षणिकाकार अपने चारों ओर देखेगा, अपने सृजन के आधार निर्धारित करेगा और उन्हें अपनी अनुभूतियों का विषय बनाएगा। अपने समय से कोई भी साहित्यकार जितना गहरे जुड़ा होता है, उतनी ही भावपूर्ण अर्थाभिव्यक्तियों की प्रस्तुति करने में वह सक्षम होता है। क्षणिकाएँ आज के समय में इसीलिए भरपूर मात्रा में पढ़ी और कही जाती हैं क्योंकि वे समसामयिकता को कम से कम शब्दों में गहरी प्रभावान्विति के साथ रेखांकित करती हैं। सुधांशु जी ने अपनी अनेक क्षणिकाओं में इस तथ्य को ध्यान में रखा है:
बसंत के स्वागत में
उपवन ने भाग लिया
पत्तों ने स्वेच्छा से
अपना पद त्याग दिया
भूख और ग़रीबी को दर्शाती निम्नलिखित क्षणिकाएँ देखिए:
पेट और पीठ दोनों के बीच
एक रेखा खींच
काम किया विचित्र
किसी ने पूछा
यह क्या है मित्र?
चित्रकार बोला
भूख का चित्र
उन्होंने इस तरह समझी
झोपड़ी की पीर
ड्राइंगरूम में लगा दी
झोपड़ी की तस्वीर
संस्कारों में आते परिवर्तन और पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव को इन दो पंक्तियों में ही कितनी मार्मिक अभिव्यक्ति दी गई है:
संस्कारों ने लिखा
नया इतिहास
कैक्टस घर में
तुलसी को वनवास
वर्तमान में धर्म का सत्य भी देखिए:
साधु संत महंत
चर्चित हुए दिगंत
इनकी कथा अनंत
रिश्तों की परिपाटी में आए परिवर्तन का रेखांकन द्रष्टव्य है:
पराये मन में उतर गए
जाये मन से उतर गए
इसी क्रम में ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ की बात भी की गई है:
वंश कैसे बढ़ेगा
जब बेटी का अंश
कोख में मरेगा
‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ कहावत को चरितार्थ करती क्षणिकाएँ देखिए:
उच्च शिक्षित सड़क पर
अल्प शिक्षित फलक पर
कैसा भी हो किरदार
पद और पैसा हो तो
सलामी का हक़दार
ऐसा हो या वैसा
बस पास हो पैसा
फिर चाहे हो कैसा
सम्बंधों का खोखलापन भी कवि की नज़र में है। मुहावरेदार भाषा का प्रयोग करते हुए यह क्षणिका उल्लेखनीय बन पड़ी है:
उन्हें न अफ़सोस था न खेद
जिसमें खाया
उसी थाली में किया छेद
परंपराओं और मूल्यों में आते बदलावों को निम्नलिखित क्षणिका कितनी स्पष्टता से समझाती है:
युवा पीढ़ी की परंपरा
सोचकर बुढ़ापा डरा
अब समुद्र मंथन में अमृत नहीं
गरल निकलेगा
जो नदियों में डाला
वही तो कल निकलेगा
क्षणिका जैसी विधा में हास्य-व्यंग्य का महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता है। चुटीली व्यंग्यपूर्ण भाषा और मारकता को समेटे हुए क्षणिका पाठक को अंदर तक गुदगुदाती है और उसे झकझोर भी जाती है। विसंगतियों पर प्रहार करती क्षणिकाएँ सदैव बार-बार पढ़ी और याद की जाती हैं। विसंगतियों को दर्शाती सुधांशु जी की निम्नलिखित क्षणिकाएँ देखिए:
नाटक में संयोगिता बनकर
पृथ्वीराज चौहान के साथ भागी
लौटकर नहीं आई
तब घर वालों की
चेतना जागी
शिक्षक ने
ब्लैक बोर्ड पर लिखा
‘बड़ों का आदर करें’
शिक्षक के जाते ही
एक छात्र ने वाक्य किया सही
बड़ों से पहले लिख दिया ‘दही’
साहित्य का मर्म और उपयोगिता यही है कि वह दूसरों के हित के लिए लिखा जाए। सुधांशु जी अपनी क़लम के ध्येय को इन क्षणिकाओं में स्पष्ट करते हैं:
एक सीने का दर्द
दूसरा सीना भी जाने
मुझे लिखने हैं
ऐसे तराने
लेखनी तब सम्मान पाती है
जब सच्चाई लिख जाती है
समय का चित्र
साहित्यकार बनाता है अनूठा
रहकर भूखा
काव्य में बिम्ब और प्रतीक का महत्त्वपूर्ण स्थान निर्धारित है। कविता बिम्ब और प्रतीक की सहायता से अधिक प्रभावपूर्ण हो जाती है। क्षणिका के लिए तो यह बात और अधिक सत्य है। बिम्ब-प्रतीक के सार्थक प्रयोग से क्षणिका का अर्थ सौंदर्य और प्रभावोत्पादकता बढ़ जाती है। सुधांशु जी ने कुछ पौराणिक प्रतीकों का प्रयोग करते हुए क्षणिकाएँ कहीं हैं, जिनमें वर्तमान समय का सत्य उजागर हुआ है:
मारीच अब नहीं बनता
स्वर्ण हिरण
स्वयं करने लगा है
अपहरण
विभीषण अब नहीं छोड़ेगा
लंका
लोकतंत्र है यहीं बजाएगा
रावण के विरुद्ध डंका
सर्वत्र फैले
दुर्योधन व दुशासन हैं
व्यवस्था का
तार-तार अनुशासन है
‘साँप’ पर अज्ञेय ने अनेक क्षणिकाएँ कही हैं। साँप प्रतीक है विश्वासघात का, वैमनस्य का, वैचारिक मतभेद का। सुधांशु जी साँप और कुत्ते के माध्यम से क्षणिका में इनकी अभिव्यक्ति बहुत सुंदर तरीक़े से करते हैं:
साँप भी हैरान होकर
हँस रहा है
आदमी ही आदमी को
डस रहा है
आदमी ने स्वयं को
चाटुकारिता से
इतना जोड़ लिया है
कुत्ते तक ने अब पूँछ
हिलाना छोड़ दिया है
क्षणिकाओं का ज़िक्र हो और पत्नी की बात न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। सुधांशु जी की पत्नी पर आधारित क्षणिकाएँ नारी विमर्श की शाश्वत अभिव्यक्ति कही जा सकती हैं:
शादी से पहले मिली
शादी के बाद लिली
कुछ दिन खिली
कुछ दिन भली
कुछ दिन खली
कुछ दिन करम जली
अंत में जली
पति सहसा रह गया
किंकर्तव्यविमूढ़
जब पत्नी ने उठा दिया
स्वायत्तता का प्रश्न गूढ़
क्षणिका में सबसे महत्त्वपूर्ण गुण होता है वक्रोक्ति का। ‘वक्रोक्ति काव्य जीवितम्’ की भावना क्षणिका में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। किसी भी बात को इस प्रकार कहा जाए कि वह विशिष्ट लगे। क्षणिका में यह विशिष्टता तो और भी ज़रूरी लगती है। कुछ क्षणिकाएँ देखिए:
आओ हम
इतिहास को झुठला दें
गले मिलकर बोले
बेर और केला
लोग कहने लगे
शायद आ गई है
चुनाव की वेला
सुना था बेटा
बुढ़ापे की लाठी होता है
बुढ़ापे में जाना कि बेटा
बुढ़ापे में लाठी होता है
‘दुर्घटना से देर भली’
का बोर्ड देख
उन्होंने अनिश्चितकाल तक
अपनी शादी टाली
इस तरह एक
दुर्घटना तो बचा ली
प्रश्न खड़ा
नर या नारी कौन बड़ा
उत्तर खरा
दो सौ की घड़ी
दो रुपए का घड़ा
नेताजी ने
पानी की समस्या को
इस तरह सुलझाया
एक-एक को
पानी पिलाया
मतलब की बात समझना
आम लोगों को आसान
बात का मतलब समझना
ख़ास लोगों की पहचान
संक्षेप में यदि कहा जाए तो डॉ. सतीश चंद्र शर्मा ‘सुधांशु’ जी का प्रस्तुत क्षणिका संग्रह अपनी कहन की भाव-भंगिमा और प्रस्तुति की विशिष्टता के कारण महत्त्वपूर्ण बन पड़ा है। क्षणिका जो बहुत कम शब्दों में और चार से आठ पंक्तियों में समाप्त हो जाती है, वास्तव में विस्तृत विवेचन, व्यापक जीवन दर्शन और गहन अर्थवत्ता की सात्विक शक्तियों को अपने में समेटे हुए होती है। डॉ. सुधांशु इस तथ्य से भली-भाँति परिचित हैं, इसीलिए उन्होंने अपनी इन क्षणिकाओं में अनुभूति की तीव्रता पर पर्याप्त रूप से ध्यान दिया है। यही कारण है कि उनकी क्षणिकाओं में अभिव्यक्ति की सघनता और विचारों का सफल और सहज सामंजस्य भी दिखाई देता है। डॉ. सतीश चंद्र शर्मा ‘सुधांशु’ जी को प्रस्तुत क्षणिका संग्रह के लिए बहुत-बहुत स्वस्तिकामनाएँ। इस आशा और विश्वास के साथ कि प्रस्तुत क्षणिका संग्रह साहित्यिक जगत् में पर्याप्त रूप से समादृत होगा।
डॉ. नितिन सेठी
सी-231,शाहदाना कॉलोनी
बरेली (243005)
मो. 9027422306
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