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मानव जीवन के विशिष्ट क्षणों का दर्शन कराता कहानी संग्रह : 'कुछ भूली-बिसरी यादें'

पुस्तक का नामः कुछ भूली-बिसरी यादें
लेखकः मो. हनीफ़ "अकेला"
पुस्तक का मूल्यः 250/-मात्र (कवर सहित)
प्रकाशकः आयुष्मान पब्लिकेशन हाउस, नई दिल्ली
पृष्ठ संख्याः 119

एस.पी. महिला महाविद्यालय, दुमका के अंग्रेज़ी विभाग में सहायक शिक्षक के पद पर कार्यरत डॉ. मो. हनीफ़ "अकेला" में कल्पनाओं की अनंत उँचाईयों को छू लेने की सारी संभावनाएँ (लगातार प्रकाशित हो रही उनकी कृतियों को पढ़ने से) दिख रही हैं। समाज की वर्तमान विसंगतियों/रुढ़ियों/प्रथाओं/विचारों को बड़े ही सहज तरीक़े से काग़ज़ों पर उकेरने की जादुई क्षमता का ही परिणाम है कि अथक वे लिखते ही जा रहे हैं। साहित्यिक मर्मज्ञों, गंभीर पाठकों व भाषाई शिल्पकारों के स्वाद का बख़ूबी ज्ञान रखने वाले डॉ. मु. हनीफ़ "अकेला" पिछले कई वर्षों से साहित्य की विभिन्न विधाओं में रचनाओं का सृजन कर रहे हैं। "पत्थर के दो दिल" (एक सामाजिक दृश्य) व "कुछ भूली-बिसरी यादें" (कहानी संकलन) हालिया प्रकाशित उनकी दो महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं, जो इन दिनों बाज़ार की रौनक़ बनी हुई हैं। "व्हेयर ...यू" (अंग्रेज़ी कविता संग्रह) भी शीघ्र ही पाठकों के लिये उपलब्ध होने वाली है।

बचपन से ही मेधावी रहे डॉ. मो. हनीफ़ "अकेला" मसलिया के एक छोटे से गाँव छैलापाथर के अत्यंत ही निर्धन परिवार से आते हैं, पैर में चप्पल नहीं रहने के बावजूद घर से विद्यालय तक 4-5 किमी की दूरी पलास के पत्तों का जूता तैयार कर व उसे पहनकर तय किया व प्रारंभिक शिक्षा (कुछ भूली-बिसरी यादें से) पायी। जीवन के तमाम मोर्चों पर संघर्षों से जूझते हुए इन्होंने एक मुक़ाम हासिल किया जिसकी बानगी उनकी कहानी संग्रह में देखने को मिलती है। इन बातों का ज़िक्र इसलिये समीचीन प्रतीत हो रहा कि निरंतर परिवर्तित होती जा रही व्यवस्था में जो पीढ़ी सृजन का काम कर रही है, उसमें समस्याओं से जूझते हुए लक्ष्य तक पहुँचने का वह माद्दा देखने को नहीं मिल रहा जिसकी उम्मीद की जाती है।

आयुष्मान पब्लिकेशन हाउस, नई दिल्ली से प्रकाशित कहानी संकलन कुछ "भूली-बिसरी यादें", में कुल 17 कहानियाँ प्रकाशित हैं। कुछ भूली-बिसरी यादें, मास्टर साहब, आहुति, ये वादियाँ....ये फिजाएँ, कुछ हादसे ऐसे भी, सरहद, चले जाइये, हवस, किशन दादा, मुहब्बत की कसम, अनकरीब, धन्यवाद, सर जी धन्यवाद!, जितना आसान है उतना ही, रातों के अँधेरे में, झील के किनारे, हल्दी के रंग, अच्छा किया तूने।

अपने-परायों से काँपते-भागते व उनके शोषण/अत्याचार से पूरे परिवार की तार-तार हुई इज़्ज़त के बीच बोझिल बचपन को आग में तपाते हुए जहाँ एक ओर लेखक ने पारिवारिक पृष्ठभूमि में बीते दिनों का मार्मिक चित्रण कुछ "भूली-बिसरी यादें", के माध्यम से किया, वहीं "हल्दी के रंग", में प्रेमांध में एक युवती की अनब्याही संवेदनाओं की पराकाष्ठों को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया। "हल्दी के रंग" में लेखक ने दो अलग-अलग विचारधाराओं को एक साथ परिभाषित किया है। एक विचारधारा वह जो ज़माने के हिसाब से रास्ता तय करती हो, दूसरी विचारधारा वह जो भाषा व संस्कृति की परिधि से अलग होना नहीं चाहती। व्यक्ति व व्यक्ति के विचारों में फ़र्क से संवेदनाओं की हो रही हत्या कहानी की धार को मज़बूत बनाती है। चंदा प्रेमी नीमू से बेइन्तेहा प्यार करती है। महज़ संयोग ही था कि दोनों की मुलाक़ात अनायास एक पड़ाव पर होती है। परीक्षा के लिये सायकिल से केन्द्र की ओर जा रही चंदा की सायकिल ख़राब हो जाती है। काफ़ी प्रयास के बाद भी वह उसे ठीक नहीं कर पाती है। इधर परीक्षा का निर्धारित वक़्त हाथ से निकलता जा रहा है। कोई दूसरा विकल्प सामने मौजूद नहीं। वह काफ़ी उदास हो चुकी है। इसी बीच एक अनजान शख़्स नीमू का प्रवेश चंदा के जीवन में होता है। बिना किसी स्वार्थ के उसने चंदा की सायकिल ठीक कर दी। चंदा गन्तव्य की ओर प्रस्थान कर जाती है, किन्तु उसके मन-मस्तिष्क में नीमू छा जाता है। क्षण भर की मुलाक़ात ने दोनों को एक-दूसरे के काफ़ी क़रीब ला खड़ा कर दिया। बारंबार मुलाक़ातें होती रहीं। नीमू भी अपने वायदे पूरा करता रहा। युवती अपनी माँ से नीमू का परिचय कराती है। काफ़ी कम दिनों में ही वे सभी आपस में घुल-मिल गए। कहानी की नायिका एक दिन अपने प्रेमी के समक्ष शादी का प्रस्ताव रखती है, अपनी माँ के विचारों से अवगत कहानी का नायक, नायिका के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देता है। यहाँ भाषा व संस्कृति दोनों ही आड़े आ जाती है। भाषा व संस्कृति के आपस में मेल नहीं खाने का ही परिणाम रहा कि नीमू की माँ ने चंदा से अपने बेटे की शादी का प्रस्ताव ठुकरा दिया। नायिका प्रेमी के साथ मर-मिटने की कसमें खाती रही, जबकि नायक अपनी माँ के निर्णयों की दुहाई देते हुए नायिका से ख़ुद को अलग-थलग करता रहा। कहानी में नायक कमज़ोर दिखा जिसमें ख़ुद निर्णय लेने की क्षमता का सर्वथा अभाव दिखा। प्यार किसी के भरोसे नहीं किया जाता नायक इस बात से पूरी तरह अनभिज्ञ था। चंदा से विवाह के बाद भी वह अपनी माँ के आचरणों को जीत सकता था। जिस भाषा व संस्कृति की दुहाई देकर नायक की माँ अपना पिण्ड छुड़ाती रही, नायिका ने कई-कई महीनों के अथक प्रयास कमोवेश उन समस्याओं पर विजय प्राप्त कर ली थी तथापि वह अपने प्रेमी को प्राप्त न कर सकी। कहानी का नायक प्रेम तो करना जानता था, किन्तु उसमें निर्णय लेने की क्षमता का सर्वथा अभाव दिखा। नायिका की शादी दूसरे लड़के से ठीक हो गई। हल्दी की रस्म अंतिम अवस्था में थी तथापि नायिका ने दुःसाहस का परिचय देते हुए नायक को अपनाने का प्रयास किया। साथ-साथ जीने-मरने की कसमें खायीं। माँ के निर्णयों से लाचार नायक अपनी चंदा को अपने ही सामने दूसरे के साथ जाते हुए देखता रहा। यह क्षण काफ़ी दारुण भरा था। नायक अंदर ही अंदर आँसू का घूँट पीता रहा। सबसे मार्मिक क्षण का स्मरण होते ही नायक पुराने दिनों की ओर लौट जाता है। उसके वस्त्र में पड़े हल्दी के छींटे आज भी चंदा के बेहद क़रीब उसे ले जाता है।

ये वादियाँ....ये फ़िजाएँ, कुछ हादसे ऐसे भी, सरहद, चले जाइये, हवस, किशन दादा, मुहब्बत की क़सम, अनकरीब, धन्यवाद, सर जी धन्यवाद !, जितना आसान है उतना ही, रातों के अंधेरे में, झील के किनारे भी अलग-अलग अर्थों को परोसती हुई अपने जगह पर पाठकों का ध्यानाकर्षण कराती हुई दिखलाई पड़ती हैं। आदर्श, प्रेम, समर्पण, करुणा व विछोह के माध्यम से मानव जीवन के विशिष्ट क्षणों का दर्शन कराती कहानियों में यह कथ्य सत्य प्रतीत होता है- "मैं तो चला अनजान राहों की ओर "अकेला", हो सके तो एक मुट्ठी फूल चढ़ा देना"। कुल मिलाकर यह कहानी संग्रह पठनीय है।

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