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मेरी आवाज़

मेरे मुख-मंडल में सिर्फ़ एक ही बात का मसला लगा रहता है। दिनों-दिन हो रहे दंगा-फ़साद, चोरी-डकैती . . . जैसे विषयों पर उलझा रहता हूँ आख़िर ऐसे लूट-पाट कब तक चलेंगे . . .? ऐसे में क्या हम अपने मंज़िल तक पहुँचने में कामयाब हो पाएँगे? हम मानते हैं कि प्रत्येक प्राणी प्रकृति से जकड़ा है तब भी उन्हें अपना जीवन जीने में लफड़ा है क्यों? क्योंकि हम सबको यह भय है कि हमारे साँसों की डोरियाँ कब बंद हो जाएँगी। 

“मैं देश के हित में जान गुमा दूँ, चेहरे पर काली पट्टी बाँध कर नाम बदल दूँ किन्तु अपनी आवाज़ को नहीं बदल सकता . . . ‘ये मेरी आवाज़’ देश व समाज में सुरीति लाना चाहती है, एक नया परिवर्तन लाना चाहती है जिससे देश व समाज की संस्कृति क़ायम रह सके। स्वदेश को एक अखंड देश बनाने के साथ हिमालय के सदृश देश का गौरव ऊँचा कर सकें। 

मेरे मन की आवाज़ के साथ उन ग़रीबों की भी आवाज़ है जो सामने कहने से कतराते हैं कह नहीं सकते . . . पर मेरा मन ऐसा ही कहता है। ये आवाज़ आपकी हमसाया बन कर, देश की पहचान बनकर शाश्वत (अमर) रहेगी। 

ऐसा स्वदेश नवनिर्मित होना आकाश में कुसुम नहीं है, अगर प्रथम गुरु (माता-पीता) अपने बच्चों को अच्छी सीख दें। मैं कब तक देश की दयनीय दशा देखकर इन आँखों से अँसु बहाऊँगा? मैं कब तक देश व समाज के बोझ को कन्धों का सहारा दूँगा। आख़िर कब तक? जब तक मेरी साँसों की डोरियाँ सजेंगी और ये आँखें दुनिया देखेंगी तब तक बस न! फिर आगे . . .? आख़िर उन्हें क्या मिलता है किसी की ज़िन्दगी के साथ मौत का खेल खेलने में? बस देश व समाज की तौहीन . . . और क्या? ऐसे ही भाव मन में लाकर खोया रहता हूँ। मुझे नींद नहीं आती . . . क्या हमारा जीवन इन कर्मों से महान होगा? अगर हमारे मन, वचन और आचरण पवित्र न हो। 

हमें अपना आचरण बदलना होगा और ऐसे आचरण रूपी ढाल को अपनाना होगा जिससे देश व समाज की संस्कृति की रक्षा हो सके। अंततः मेरी आशा है कि एक दिन मेरे “मन की आवाज़” उनके मस्तिष्क में घड़ी सी घूमेगी अवश्य। तब उनका हृदय भावुक होगा। एक दिन उनके भी ‘दिन फिरेंगे’ तो भविष्य का सृजन करेंगे। एक दिन ज़रूर ममत्व जागृत होगी। तब मैं अपने दिल की नगरी में कह सकूँगा—“ईश्वर की कृपा से सब कुशल है।” 

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