ओस सी लड़की: प्रेम, वेदना और आशावाद का सुंदर समन्वय
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा राजेश रघुवंशी15 Dec 2022 (अंक: 219, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
समीक्षित पुस्तक: ओस सी लड़की (काव्य-संग्रह)
कवयित्री: संध्या यादव
प्रकाशक: कविग्राम फ़ॉउंडेशन, ए-५७, सरस्वती विहार, दिल्ली ११००३४
प्रथम संस्करण: 2022
मूल्य: ₹300.00
समकालीन रचनाकारों में मुंबई की प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित रचनाकार संध्या यादव जी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनका तीसरा काव्य संग्रह “ओस सी लड़की” कविग्राम फ़ॉउंडेशन, ए-५७, सरस्वती विहार, दिल्ली-११००३४ द्वारा हाल ही में प्रकाशित किया गया। इससे पहले उनके दो काव्य-संग्रह यथा: “दूर होती नजदीकियाँ” (प्रकाशन वर्ष:२०१६) तथा “चिनिया के पापा” (प्रकाशन वर्ष:२०१८) प्रकाशित हो चुके हैं।
प्रस्तुत काव्य संग्रह “ओस सी लड़की“में कुल १२१ छोटी, बड़ी और लंबी कविताओं का समावेश है। पुस्तक की हर एक कविता अपने आप में मानवीय संवेदनाओं का पूरा-का-पूरा शब्दकोश ही समेटे हुए है। प्रत्येक कविता अपनी सार्थक उपस्थिति स्वतः सिद्ध करती है। प्रेम, वेदना, आशावाद तथा सामाजिक अव्यवस्था के प्रति विद्रोह व संघर्ष की भावना इस काव्य संग्रह की विशेषताओं में सर्वोपरि है।
सर्वप्रथम यदि हम इस संग्रह के शीर्षक की बात करें तो यह शीर्षक ही काव्य का वैशिष्ट्य बताता है। जैसे एक छोटी-सी ओस अपने भीतर अनंत आद्रता समेटे रहती है, ठीक वैसे ही एक लड़की भी सम्पूर्ण जीवन अपने भीतर बहुत-कुछ समेटे रहती है। जैसे ओस का अस्तित्व अस्थाई होता है, वैसे ही लड़की का जीवन भी अस्थिरताओं से भरा होता है। उसका ओस की बूँद बनकर मिटना अथवा सीप में रहकर मोती बनना, सब कुछ परिस्थितियों पर निर्भर करता है। आ. उदय प्रताप सिंह जी इस पुस्तक की भूमिका में शीर्षक की सार्थकता के सम्बन्ध में कहते हैं, “ओस की बूँद का भविष्य कब (कहाँ) विलीन हो जाए, पता नहीं; लड़की का भविष्य भी ओस जैसा है।” (भूमिका, पृ. सं. i)
प्रेम में समानता होनी बेहद ज़रूरी है। एकतरफ़ा अधिकार स्वामी और सेवक-सा बन जाता है। प्रस्तुत काव्य-संग्रह की पहली ही कविता “बेंचमार्क” में कवयित्री प्रेम के इसी समानता वाले स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहती हैं:
“सुनो,
सूर्योदय तुम ले लो,
सूर्यास्त मैं रख लूँ।
आख़िर पूरी रात तुम्हारी थी तो
रात के एक पहर पर
मेरा भी तो कुछ अधिकार
बनता ही है न!” (बर्थमार्क, पृ. सं. ०१)
उनकी रचनाओं में प्रेम पवित्र और सात्विक रूप में ही अभिव्यक्ति पाता है। केवल शारीरिक स्तर तक सीमित प्रेम सतही कहलाता है। प्रेम का मूल आधार ही श्रद्धा और विश्वास है। वे “प्रेम” कविता में लिखती हैं:
“मंदिर से उठाए भभूत की तरह
माथे पर लगा लो
या जीभ पर रख लो,
श्रद्धा हो तो स्वाद,
आत्मा तक पहुँचता ही है॥” (प्रेम, पृ. सं. ०३)
श्रेष्ठ लेखक अपने वर्तमान से विलग नहीं रहता। संध्या जी ने भी अपनी रचनाओं में वर्तमान परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण किया है। वर्तमान समय में प्रेम के नाम पर समाज में स्वार्थ-पूर्ति, हत्याएँ और शोषण की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही हैं। ऐसे में प्रेम में सतर्कता रखनी भी ज़रूरी है। क्योंकि स्वार्थपूर्ण प्रेम व्यक्ति के साथ-साथ उसके स्वप्नों को भी तोड़ देता है। यथा:
“उन्हें तो प्रेम को बस धतूरे के बीज
की तरह दूर से देखकर सावधान रहना चाहिए;
क्योंकि नशा सर चढ़कर बोलता है
और उतरता है तो सपनों का सर
क़लम कर देता है . . . . . . ।” (तलाश, पृ. सं. ३६)
अंत में कवयित्री “तलाश” कविता में प्रेम के उदात्त रूप को प्रस्तुत करते हुए कहती हैं:
“प्रेम को प्रेम ही रहने दिया जाए
क्योंकि प्रेम कभी अपवित्र नहीं होता।” (पृ. सं. ३८)
समाज की संकीर्ण विचारधारा के प्रति विरोध का तीखा स्वर उनके काव्य को अन्य रचनाओं से भिन्न स्तर पर खड़ा कर देता है। मध्यकाल में जहाँ कबीरदास जी ने सड़ी-गली मान्यताओं को हटाने की बात कही थी, वर्तमानकाल में उन्हीं विचारों को, उतने ही तीखे और स्पष्ट अंदाज़ से संध्या जी अपनी कविताओं में अभिव्यक्त करती हैं:
“अगर विरोध ही करना है तो,
समाज ही बदलना है तो, . . .
हाथ में उठाओ एक ढेला,
बन्द करो एक आँख,
और निशाने पर रखो
सड़ी हुई सोच . . . ,
मरी हुई परंपरा . . . ,
अस्मिता के आँचल को खींचती उँगलियाँ . . .
कुंद होती संवेदना . . . .; (स्लोगन, पृ. सं. ०४ और ०५)
वर्तमान स्वार्थपूर्ण रिश्तों को उन्होंने बड़ी बेबाकी से उधेड़कर हमारे सामने रख दिया है:
“क्या है न कि,
अब रिश्तों की तभी याद आती है,
जब मज़बूरी या ज़रूरत की भट्टी पर
मतलब की रोटी सेंकनी हो।” (अनावश्यक, पृ. सं. ११८)
तो वहीं दूसरी ओर वे सच्चे रिश्तों की पहचान कराते हुए कहती हैं:
“खून के रिश्ते,
बनाए गए रिश्ते,
अपने आप बन गए रिश्ते,
जो दिल को सुकून दें,
बस वहीं हैं असली रिश्ते . . .।” (रिश्ते, पृ. सं. ४२, ४३)
तय सीमा से अधिक अच्छी बातें भी बुरी लगने लगती हैं। ठीक वैसे ही हमारी भावनाओं की भी एक मर्यादा होनी अनिवार्य है, फिर वह चाहे किसी पर विश्वास करना हो या प्रेम। सभी का उचित अनुपात होना अनिवार्य है। संध्या जी ’विश्वास’ कविता में लिखती हैं:
“विश्वास
खाने में नमक जितना होना चाहिए
वरना
ज़िन्दगी का स्वाद बिगड़ जाता है . . . ।” (विश्वास, पृ. सं. २३)
“प्रेम, नाराज़गी, उपेक्षा, तिरस्कार
सबका अनुपात सही मात्रा में
होना चाहिए . . .। ठीक उतना ही
जितना खाने में नमक,
मीठे में मिठास . . .” (रिश्ते, पृ. सं. ४२)
स्त्री वेदना की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति उनके काव्य का महत्त्वपूर्ण आधार स्तंभ है। स्त्री वेदना की गहन अनुभूति और उतनी ही सशक्त अभिव्यक्ति को रचना रूप में पढ़कर पाठक निशब्द हो जाता है। कुछ पंक्तियाँ उदाहरण रूप में प्रस्तुत हैं, जो पाठकों को तपते रेगिस्तान की तपिश का-सा एहसास करा जाती है:
“सुन लेना कभी उसकी बात को भी!
उदासी सिर्फ़ शब्दों से नहीं
आँखों से भी झाँकती है।” (चुप्पी, पृ. सं. ०९)
“कितनी महफूज़ होती औरतें दुनिया में,
जो जिस्म घर छोड़ निकल पाती बाहर।” (जिस्म, पृ. सं. १३)
“थोड़ा-थोड़ा मरना
बहुत तकलीफ़ देता है।
तुम नहीं समझोगे
इतिहास गवाह है . . .
तुमने किसी भी काल में नहीं समझा।” (मत बचाओ बेटियाँ, पृ. सं. २८)
“ख़ामोश . . . बिना आवाज़ के सिसकना,
कितना दुश्वार होता है।” (सिसकी, पृ. सं. ४१)
“इलाज हर बार बहुत महँगा नहीं होता,
घर से अस्पताल की दूरी, मन की दूरी से ज़्यादा
कभी नहीं थी . . .!” (दुनिया बदलेगी, पृ. सं. १३८)
“एक बीमार नस्ल बीमार पीढ़ी को जन्मती रही।” (दुनिया बदलेगी, पृ. सं. १३८)
“लड़की की चीख बाँझ हो जाए,
आँसू रेत बन जाएँ,
शब्द बैरागी हो जाएँ
उससे पहले
लड़की के लिए गढ़ा जाय
एक नया अध्याय
जहाँ सुनने और गरदन झुकाने के साथ साथ
अभिव्यक्ति की भी आज़ादी हो।” (नया अध्याय, पृ. सं. ११६)
इस वेदना की चरम अभिव्यक्ति “पत्र” और “जादू” कविता में अत्यधिक रूप से प्रकट हुई है।”जादू” कविता का एक अंश देखिए, निश्चित ही मन व्यथा और वेदना से भर उठेगा:
“मुझे जादू आता है
तुम आओगे न
तब तुम्हें दिखाऊँगी।
कभी किसी को नहीं बताया ये राज़,
पर तुमसे नहीं छिपाऊँगी।
पलकों को चार बार . . . सच्ची,
राम क़सम . . . सिर्फ़ चार बार झपकाकर
मैं आँखों से बहते समंदर को
रोक लेती हूँ।” (जादू, पृ. सं. ९१)
उनकी अनुभूत वेदना साधारणीकृत आकार पाकर पहले रचनाकार और फिर पाठकों को व्यथित होने के लिए बाध्य कर देती है। क्योंकि:
“मरे हुए व्यक्ति को देखने के लिए
मरना ज़रूरी नहीं होता न?” (छम्मकछल्लो पृ. सं. ७०)
वर्तमान परिस्थितियों में बेटियों की माँ होने पर एक माता (अथवा पिता) को कितनी सारी चिंताओं और असुरक्षा की भावनाओं से गुज़रना पड़ता है। इसका भी मर्मस्पर्शी वर्णन कवयित्री संध्या जी ने अपनी रचनाओं में किया है:
“अख़बार रोज़ पढ़ती हूँ, परेशान हो जाती हूँ
झुँझलाहट छुपाने को बहाने नित नए गढ़ती हूँ।” (फ़र्क पड़ता है . . ., पृ. सं. ०२)
जीवन पर्यंत प्रेम से वंचित रहने वाली स्त्री अपने पुत्र को सिखलाती है:
“औरत के मन की ज़मीन पर
मुट्ठी भर प्रेम बो देना लल्ला . . .
तुम्हारे जीवन की ज़मीन को
उम्र भर हरा-भरा रखेगी लल्ला . . .
औरत प्रेम की भूखी होती है लल्ला
जितना दोगे, चार गुना करके
तुम्हें लौटाएगी लल्ला।” (लल्ला, पृ. सं. ७२)
कुछ कविताएँ और पंक्तियाँ प्रेम में पूर्ण समर्पण की भावना और कवयित्री के संवेदनशील मन को समेटे हुए हमारे सामने आती हैं। इनका विश्लेषण कर पाना किसी भी समीक्षक के लिए असंभव बन जाता है। जैसे “छोड़ी-छुड़ाई औरतें”, “छोड़ी हुई औरत” आदि कविताएँ। कुछ पंक्तियाँ भी प्रस्तुत हैं, जिनको यथा स्वरूप में पढ़ना ही अधिक श्रेष्ठ होगा:
“वह जो चाँद के माथे पर दाग है न,
वो मेरी मुहब्बत की निशानी है . . .” (गुनाह, पृ. सं. १११)
“सोचती रह जाती हूँ,
ज़िंदगी की भागदौड़ में
ज़रूरतें इतनी महँगी हो गईं!
पता ही नहीं चला . . .” (ज़रूरत, पृ. सं. १२१)
“मैं जानती हूँ . . .
सिर्फ़ मैं जानती हूँ
मन का भी एक मन होता है . . .।” (मन के मनके हज़ार, पृ. सं. १०६)
“मुझे अक़्सर वहीं दिखा,
जिसे लोगों ने अनदेखा कर दिया
और इसलिए मुझे आँख नहीं,
तड़पती हुई मछली दिखी।” (अर्जुन, पृ. सं. १०७)
इस वेदना-भाव में भी कवयित्री का आशावादी स्वर मुखर रूप से अभिव्यक्त होता है। वे मनुष्य-जीवन में आत्मसम्मान विशेषतः स्त्री-आत्मसम्मान को महत्त्वपूर्ण मानते हुए विषम परिस्थितियों में भी संघर्ष करने की प्रेरणा देती हैं:
“उसे मेरी बस यहीं
एक बात कभी
पसंद नहीं आती है
कि मैं जहाँ भी जाती हूँ
मेरे सिर और कंधे के बीच
ये सीधी गरदन क्यों आती है।” (नापसंद, पृ. सं. २०)
“उसकी ख़ामोशी का बाँध जिस दिन टूटेगा,
उसी दिन सृष्टि के रेगिस्तान में
गेहूँ की बाली और लाल गुलाब
एक साथ हँसेगा . . .” (गेहूँ की बाली और गुलाब, पृ. सं. ३४)
“ज़िंदगी को ज़िद है
उसे कत्थक कराने की
और वह रॉक म्यूज़िक पर
बैले के लिए घूमती है।” (साथी, पृ. सं. १२०)
“जा कि अब,
तेरे एहसान की मोहताज़ नहीं मैं
ख़ुद को रौंदूँगी, पीटूँगी
चाक पर धरकर ख़ुद को
टेढ़ामेढ़ा ही सही
एक आकार दूँगी।
बेनाम जन्मी थी
बेरूप नहीं मरूँगी . . .” (आकार, पृ. सं. १२६)
“तुम्हारे लिए अपाहिज हूँ पर
सपनों की बैसाखी पकड़
एवरेस्ट चढ़ना जानती हूँ।
मानो जो तुम इसे मेरा अहम
तो चुनौती है तुम्हें।
तुम्हारे बस में हो तो
तोड़ दो मेरे सारे भरम
मुझे ज़रूरत नहीं तुम्हारे
चाँद सूरज की।
मैंने एक तारा
अपनी हथेली में उगाया है।” (चुनौती, पृ. सं. १२७)
“मत समझना जुगनू मुझको,
जो रास्ते में दम तोड़ जाऊँगी।
चाँदनी के गर्भ से ख़ुद के लिए,
सूरज एक नया उगाऊँगी।” (जुगनू, पृ. सं. ८०)
वे स्त्री बनाम पुरुष विरोधी रचनाकारा नहीं हैं। वरन् भावुक और संवेदनशील पुरुषों की संवेदनाओं की भी सशक्त अभिव्यक्ति उनकी रचनाओं में दिखाई देती हैं। समाज में ऐसे संवेदनशील पुरुषों की संवेदनाओं को स्थान मिले या ना मिले, संध्या जी की रचनाओं में उनका श्रेष्ठतम रूप निखरकर पाठकों के सामने आता है:
“ये जो ’महेंदरा’ टाइप के मरद थे न
इतिहास में इनका ज़िक्र नहीं मिलता . . .
मुझे पसंद हैं
ये ’महेंदरा’ जैसे मरद।
ये इतिहास का हिस्सा नहीं बनते
पर अपने से जुड़ी
हर औरत के इतिहास में
अलग अलग भूमिका निभाते हुए
इतिहास बन जाते हैं।” (महेंदरा, पृ. सं. १५, १६)
{महेंदरा अर्थात् अति भावुक पुरुष}
नष्ट होते पर्यावरण से भी कवयित्री अछूती नहीं रहती। “प्रकृति“नामक कविता में एक माँ से बेटी द्वारा पूछा गया प्रश्न समस्त मानव जाति को सोचने के लिए विवश कर देता है कि आने वाली पीढ़ी को हम क्या सौंपने वाले हैं? यथा:
“लज्जित होती हूँ
जब मेरी बेटी पूछती है,
’ममा हमारे लिए कुछ नहीं बचाया
आप लोगों ने’ . . .!” (प्रकृति, पृ. सं. २७)
“राखी” कविता एक तरफ़ त्यौहारों के बाज़ारीकरण होते स्वरूप का यथार्थ चित्रण किया है तो वहीं दूसरी ओर विवाहित बहनों के त्यौहारों के दिनों घर आने का भावपूर्ण चित्रण भी किया है। बहनें कुछ लेने नहीं आतीं बस पिता और भाई रूपी परिवार की छाँव में कुछ देर ठहरने भर आती हैं:
“बहनें कुछ लेने नहीं आती
बहनें भाइयों के घर के आँगन का
तुलसी-चौरा बनना चाहती हैं।” (पृ. सं. ४९)
प्रकृति का सौंदर्यमयी और मानवीयकरण रूप भी इनके संग्रह की अन्यतम विशेषता है। “ठोकर” कविता का एक उदाहरण देखिए:
“जिद्दी रात उबासी लेती,
उँगलियाँ चटखाती,
धरना लगाए बैठी है . . .” (ठोकर, पृ. सं. १८)
“वो बूढ़ी हाँफती सी धूप,
मेरी रीढ़ की हड्डियों का टेका ले,
कुछ देर हर शाम सुस्ताती है।” (याद, पृ. सं. ५६)
“शब्द जीभ हिला लटपटा कर रह गए।”
समय का धन्ना सेठ” (रफ़ कॉपी, पृ. सं. ७३)
“माँ” से जुड़ी कविताओं में कवयित्री का अम्मा के प्रति भावुकता से पूर्ण होना मन को झकझोर देता है। कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं:
“अम्मा . . .
मैं “ममा” बन गई
पर लाख कोशिश करके भी
तुम सी “अम्मा“
नहीं बन पाई . . .” (मेरी माँ, पृ. सं. ९७)
“इस माँ नामक जीव को
पैरों के नीचे थोड़ी सी ज़मीन
और सर के ऊपर, जहाँ तक नज़र जाय
बस उतना आसमान चाहिए होता है।” (बेचारी माँ, पृ. सं. ९८)
यदि काव्य-संग्रह की भाषा-शैली की बात करें तो भाषा, भावों की सहचरी बन साथ चलती है। आम बोलचाल की भाषा और ग्रामीण शब्दावली ने हर स्तर के पाठकों को जोड़ने का प्रशंसनीय कार्य किया है। वहीं मनोभावों की अभिव्यक्ति करते समय मनोविश्लेषणात्मक, विचारात्मक, व्यंग्यात्मक आदि शैलियों का सहज और सुंदर प्रयोग हुआ है।
आ. उदय प्रताप सिंह जी इस सम्बन्ध में लिखते हुए कहते हैं, “मुहावरेदानी में वज़न है। कविता में नए तेवर हैं, कहन में नई महक है, और कल्पना की उड़ान नहीं यथार्थ का ठोस धरातल हर पंक्ति में बोलता नज़र आता है।” (भूमिका, पृ. सं. iii) साथ ही वे इस बात को निस्संकोच रूप से स्वीकार करते हैं कि संध्या जी में एक “बड़ी कवयित्री होने की संभावना” विद्यमान हैं। वहीं अशोक चक्रधर जी ने संध्या जी को “मानवीय मूल्यों के साथ एक अनुभवादी कवयित्री” कहकर संबोधित किया है और उनकी लेखनी को जादू कहकर सम्मानित किया है, “सीधी सच्चाई को सीधी भाषा में सीधे-सीधे कहने का जादू।” (भूमिका, पृ. सं. xi)
अस्तु, केवल इतना ही कि “एक ओस सी लड़की” कविता सदियों से प्रचलित प्रेम कथा को समेटे सर्वस्व समर्पण का भाव दर्शाती है। समाज के लिए संध्या जी के संदेश को ज्यों का त्यों ही प्रस्तुत करना चाहूँगा कि:
“अपने सिर पर चादर रखने के लिए
किसी के पैरों को कभी नंगा मत करना . . .!” (पाठ्यक्रम, पृ. सं. २५)
ज़रूर पढ़िएगा। यक़ीन मानिए, मन और आँखें दोनों भीग जायेंगी और कई दिनों तक संध्या जी की ये कविताएँ आपके मस्तिष्क और हृदय को झकझोरते हुए आपको सोने नहीं देंगी।
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