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प्राचीन हिमालयी तीर्थ यात्रा

 

भारतीय लोग शताब्दियों से तीर्थाटन के शौक़ीन रहे हैं। महाभारत में पांडवों एवं बलराम जी की तीर्थ यात्राओं का विस्तार से वर्णन है। स्कंद पुराण में विभिन्न तीर्थों का वृहद्‌ वर्णन है। प्राचीन जैन ग्रंथ विभिन्न तीर्थ कल्प में भी जैन तीर्थ स्थलों का वर्णन है। दूसरी से लेकर सातवीं शताब्दी तक बाहर के देशों के बौद्ध श्रद्धालु बुद्ध से संबंधित भारतीय स्थलों का भ्रमण करने आते थे। ह्वेनसांग और फाई यान इसी उद्देश्य से भारत आये थे। उन्होंने भारत के तीर्थों यथा हरिद्वार, मथुरा, साकेत अयोध्या, मुल्तान, स्थानेश्वर आदि का रोचक वर्णन किया है। शंकर दिग्विजय ग्रंथ में भी आदि शंकराचार्य द्वारा किये गये तीर्थाटनों का वर्णन है। बाणभट्ट, ह्वैनसांग ने प्रयाग महाकुम्भ मेले का वर्णन किया है। इब्ने बतूता और बर्नियर ने आगरा से अजमेर ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह तक बादशाहों के तीर्थाटनों का लाइव वर्णन किया है। बारह साल में होने वाली नन्दा देवी की जात यात्रा का वर्णन गढ़वाल कुमाऊँ की अनेक प्राचीन पुस्तकों में मिल जायेगा। 

इन सब में अधिक रोमांचक तथा दृढ़ संकल्पित तीर्थाटन हिमालय क्षेत्र का माना गया है जिसमें कैलाश मानसरोवर यात्रा तथा चार धाम यात्रा प्रमुख हैं। 1950 तक कैलाश मानसरोवर मार्ग भारतीयों के लिए मुक्त रूप से खुला हुआ था और प्रतिवर्ष सैंकड़ों साहसी स्त्री पुरुष तथा साधु अल्मोड़ा होकर या फिर बद्रीनाथ माणा घाटा होकर कैलाश मानसरोवर की कठिन यात्रा पैदल या घोड़ों पर करते थे। इसी तरह चार धाम यानी जमनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा भी लोग पैदल हरिद्वार से आरंभ करते थे। बहुत से यात्री इन कठिन पहाड़ी यात्रा में सर्दी से बीमार होकर, फिसल कर, जंगली जंतुओं या पहाड़ी डाकुओं का शिकार होकर प्राण त्याग देते थे। 

यात्रा समूहों में की जाती थी और इसके लिये अनेक गाँवों के लोग मिलकर यात्रा कार्यक्रम बनाते थे। यात्रा की एकमात्र शर्त यह होती थी कि यात्री अपने सभी उत्तरदायित्व यथा बच्चों का विवाह, क़र्ज़ आदि से मुक्ति प्राप्त कर लें। यात्रा के समय तीर्थ यात्री अपने सभी बंधु बांधवों से अच्छी तरह मिल लेता था क्योंकि दुरुह हिमालयी यात्रा से बहुत कम जीवित वापसी लौट पाते थे। यात्रा के दौरान मृत्यु होने पर वहीं उनका दाह संस्कार कर दिया जाता था और उनकी अस्थियाँ ही वापस लौटती थीं। जो सौभाग्यशाली यात्री सकुशल वापस लौट पाते थे वे अपने गाँव के मुहाने पर आकर गाँव में अपने लौट आने का संदेश भिजवाते थे। उसके बाद गाँव वाले व सगे संबंधी गाजे-बाजे के साथ उन्हें लेने आते थे। जिन परिजनों को उस लौटने वाले समूह में अपने परिवार मुखिया का दर्शन नहीं होता था, उनमें रोना-पीटना शुरू हो जाता था। बड़ी मुश्किल से उन्हें बचे हुए यात्री ढ़ाढ़स बँधाते थे और दिवंगत यात्री के स्वर्गारोहण का वर्णन सुनाते थे। बड़ा ही मर्मांतक दृश्य होता था वह। 

यात्रा के दौरान यात्री अपने खाने-पकाने का सामान अपने साथ रखते थे और रास्ते के पड़ावों पर रुक कर सामूहिक रूप से भोजन तैयार करते थे। कच्ची सामग्री वे स्थानीय दुकान से लेते थे जिन्हें चट्टी कहा जाता था जैसे हनुमान चट्टी, जानकी चट्टी आदि। इन्हीं चट्टियों पर वे रात्रि विश्राम भी कर लेते थे। कैलाश मानसरोवर की यात्रा में ऐसी चट्टियाँ नहीं आती थीं अतः यात्री वहाँ तम्बू लगाकर रात्रि विश्राम किया करते थे। सामान वे तकलाकोट या अल्मोड़ा से ख़रीद लेते थे। रास्ते में दो तीन घरों के तिब्बती गाँव पड़ते थे जहाँ से वे ज़रूरत पड़ने पर याक के दूध का जमा हुआ मक्खन व हाथ से कता काला ऊनी कंबल जिसे चुटका कहते हैं, ख़रीद लेते थे। ये तिब्बती चूँकि मांसाहारी होते थे अतः इनका बनाया भोजन या भोज्य पदार्थ यात्री नहीं ख़रीदते थे। ये तिब्बती आम तौर पर जो भोजन पकाते थे उसे थुकपा कहा जाता था। उसमें एक सकते बरतन में जौ का आटा, सूखे मांस के टुकड़े तथा मक्खन डाल कर पानी के साथ पकाया जाता था और उसे कटोरे में डाल कर खा लिया जाता था। बाद में इसमें चाय की पत्तियाँ भी डालने लग गये। ये तिब्बती इन कटोरों को धोते नहीं थे अपितु जीभ से चाट कर साफ़ कर लिया करते थे और केवल साल में एक बार अवलोकितेश्वर के जन्म दिन पर इन्हें पानी से साफ़ करते थे। 

बद्रीनाथ जाने वाले यात्रियों के प्रमुख पड़ाव देवप्रयाग, श्रीनगर, पीपल कोटी, रूद्रप्रयाग, जोशीमठ, पांडुकेश्वर, गोविन्द घाट होते थे। रूद्रप्रयाग से ही वे केदारनाथ की ओर निकल जाते थे जहाँ अगस्त्य मुनि और गौरी कुंड उनके प्रमुख विश्राम स्थल होते थे। बाद में 18वीं, उन्नीसवीं सदी में टिहरी रियासत और काली कमली वाले बाबा ने पर्वतीय यात्रा मार्गों पर कुछ धर्मशालाएँ तथा अन्न क्षेत्र स्थापित किये थे जिससे यात्रियों को काफ़ी सुविधा हो गयी। 

यात्री इस दौरान जिन तीर्थ स्थलों का भ्रमण करते वहाँ का जल तांबे या काँच के बरतनों में भर लेते थे जिसे गाँव आकर एक पूजा आयोजित करके खोलते थे जिसे शीशी पूजन कहते थे। चारों धामों में तथा हरिद्वार में अपने ख़ानदानी पंडों की बही में वे अपना यात्रा वृत्तांत तथा अपने परिवार सदस्यों के नाम दर्ज कराते जिसे वर्षों बाद भी उनकी आगे की पीढ़ी के लोग अपनी यात्रा के दौरान पढ़ पाते थे और रोमांचित होते थे। मैंने स्वयं ने अपने पूर्वजों की एन्ट्रीयें उस समय की भी पंडे की बही में देखी हैं जब हमारे पूर्वज फ़ारसी में लिखा करते थे। 

ये पंडे सर्दियों में पहाड़ से नीचे उतर आते थे और अपने जजमानों के गाँव घरों तक मिलने चले जाते थे कंठी माला और प्रसाद लेकर। बदले में जजमान उन्हें अनाज, वस्त्र आदि दक्षिणा में देते थे। 

तो यह था प्राचीन ज़माने की हिमालयी तीर्थयात्रा का वर्णन। अब तो भौतिकता की होड़ में ये तीर्थ यात्रायें भी सुविधा संपन्न तथा आमोद प्रमोद वाली हो गयी हैं। इनमें वो बात कहाँ। ना वो यात्री रहे, न पंडे और न वो चट्टी वाले दुकानदार। 

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टिप्पणियाँ

मधु शर्मा 2024/07/04 01:13 AM

रोमांचक व यथार्थ दर्शाता ऐतिहासिक आलेख। साधुवाद। हमें भी वर्षों उपरांत 2016 में हरिद्वार व ऋषिकेश जाने का अवसर प्राप्त हुआ तो बचपन की स्मृतियों से ओतप्रोत वहाँ पहुँचे परन्तु हताश होना पड़ा। किसी तीर्थस्थल में उपस्थित होने की अनुभूति के बदले यूँ लगा मानो किसी पर्यटक स्थल पर पहुँच गये हों। यही अनुभव वैष्णोदेवी के दर्शन हेतु वहाँ पहुँचने पर हुआ कि जैसे आधे से ज़्यादा तीर्थयात्री वहाँ माँ के दर्शन करने की बजाए हिल-स्टेशन घूमने आये हुए हों। दोष हमारा भी था कि समय बचाने के लिए चार-पाँच घंटों की पदयात्रा करने के बदले चन्द ही मिनटों में हैलिकॉप्टर द्वारा वहाँ पहुँच कर जैसे दर्शन न करके हमने कोई छोटा-मोटा काम निबटा लिया हो। सम्भवतः इसीलिए प्राचीन काल में लोग इतनी कठिन तीर्थयात्राओं से लौटकर अपने शेष जीवन में पुनः पाप करने के बारे सैंकड़ों बार सोचते थे। इसके विपरीत आधुनिक युग में आवागमन की ढेरों सुविधाएँ उपलब्ध होने पर अब अधिकर भक्त लोग जब पाप करते हैं तो आये महीने न सही लेकिन हर वर्ष गंगाजी में डुबकी लगा कर या तीर्थयात्रा पर जाकर अपने पाप धो आते हैं। यही बात कहने का प्रयास मैंने अपनी हास्यप्रद कहानी 'पाप धुलें तो कैसे धुलें' में किया है।

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