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प्राचीन काल में होने वाली भारत-कैलाश मानसरोवर यात्रा का रोमांच 

 

आज मैं आपको लगभग 500 वर्ष पूर्व के दौर में ले जाता हूँ जब अखंड भारत के हिंदु तीर्थयात्री अपने परिवार एवं गृहस्थी के तमाम उत्तरदायित्व पूर्ण कर लेने के बाद सामूहिक रूप से जत्थों में चार धाम यात्रा करते थे और उसके उपरान्त पवित्र कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर निकल जाते थे। तब कैलाश मानसरोवर की यात्रा कुमाऊँ के अल्मोड़ा और सिक्किम के नाथूला की तरफ़ से नहीं होती थी अपितु गढ़वाल के दो रास्तों से होती थी। ये दो रास्ते थे श्री बदरीनाथ होकर माणा घाटा पार करके या फिर जोशीमठ होकर नीती घाटा पार करके। घाटा को अंग्रेज़ी में पास और हिंदुस्तानी में दर्रा, खाल भी बोलते हैं। कालांतर में ये रास्ते जो तिब्बत से होकर जाते थे, चीन के तिब्बत अतिक्रमण तथा अन्य कारणों से बंद हो गये और अल्मोड़ा धारचुला वाला छोटा मार्ग चलन में आ गया। 

मैं यहाँ आपको प्राचीन यात्रियों द्वारा विभिन्न पुस्तकों डायरियों में लिखे गये वृत्तांत के आधार पर और कुछ दूरी तक मेरी स्वयं की यात्रा के संस्मरणों के आधार पर इन प्राचीनतम रास्तों का वर्णन कर रहा हूँ। आशा है आप लोग पढ़ कर रोमांचित हो जायेंगे। 

1. श्री बदरीनाथ होकर मार्ग-343 किलोमीटर

श्री बदरीनाथ
माणा गाँव
सरस्वती कुण्ड
माणा घाटा-भारत तिब्बत सीमा 18400 फ़ीट
थुलिड मठ
नाब्रा मंडी
सिबचिलम मंडी
ज्ञानिमा मंडी
मानसरोवर 
तरछेन
श्री कैलाश

2. मार्ग नंबर-222 किलोमीटर

जोशी मठ
तपोवन
रेणी गाँव
मलारी
घंशाली
द्रोणगिरी
नीती गाँव
नीती घाटा भारत तिब्बत सीमा
सुमन्ना
रिमखिम मठ
ऊंटधुरा
सिबचिलम मंडी
ज्ञानिमा मंडी
तीर्थ पुरी
मानसरोवर
तरछेन
श्री कैलाश

यात्री अधिकतर नीती घाटा वाला मार्ग इस्तेमाल करते थे जो छोटा होने के साथ साथ अपेक्षाकृत सरल भी था। यह मार्ग धौली गंगा नदी के साथ-साथ चलता है और द्रोणागिरि पर्वत को पार करके तिब्बत के पठार में प्रवेश कर जाता है। उस समय सिबचिलम मठ और ज्ञानिमा मंडी भारत, तिब्बत, नेपाल और भूटान के व्यापारियों के लिये परस्पर वस्तु विनिमय व्यापार के बड़े बाज़ार थे। तिब्बत के थुलिड मठ में तो उत्सव आदि पर बदरीनाथ मंदिर से प्रसाद और वस्त्रादि भेजे जाते थे और मठ से बद्रीनाथ जी को चंवर और कंबल भेजे जाते थे। आवागमन पर कोई रोक नहीं थी। द्रोणागिरि पर्वत वही पर्वत है जिसका एक भाग हनुमानजी संजीवनी बूटी के संग उखाड़ कर लंका ले गये थे। जोशीमठ तपोवन मार्ग पर ही एक रास्ता भविष्य बदरी की ओर जाता है जिसके बारे में मान्यता है कि निकट भविष्य में जब वर्तमान श्री बदरीनाथ मंदिर नर और नारायण पर्वतों के परस्पर मिलने से लुप्त हो जायेगा तो भविष्य बदरी मंदिर में ही श्री बदरीनाथ जी की पूजा होगी। 

तिब्बत स्थित तीर्थपुरी लवणासुर की राजधानी थी। भगवान शंकर द्वारा वध किये जाने के पश्चात उसका शरीर जिस जगह गिरा वहाँ आज भी भूमि लवण युक्त सफ़ेद है। यहाँ छोटे-छोटे पानी के प्रपात भी ज़मीन से निकलते रहते हैं। 

अभी बदरीनाथ मार्ग पर माणा गाँव और जोशीमठ वाले मार्ग पर मलारी गाँव भारत के तिब्बत सीमावर्ती आख़िरी गाँव हैं। इससे आगे इनर लाईन परमिट शुरू हो जाता है और चमोली ज़िला अधिकारी की अनुमति से ही आगे जा सकते हैं। 

मैं भाग्यशाली हूँ की कैलाश मानसरोवर के दोनों पुराने और दो अभी वाले मार्ग (नाथूला और अल्मोड़ा) पर भारत सीमा के अंदर काफ़ी दूर तक जाने का मुझे अपनी युवावस्था में अवसर मिला। तब सड़कें नहीं थी पैदल ही चलना होता था। अब तो सीमावर्ती इलाक़ों में बार्डर रोड ओरगेनाईजेशन ने सड़कों का अच्छा काम किया है। हम और आगे तक भी वाहन द्वारा जा सकते हैं। 

एक और बहुत लंबा प्राचीन मार्ग कैलाश मानसरोवर के लिये कश्मीर, लद्दाख, जंस्कार घाटी होकर पुराने सिल्क रूट के साथ-साथ चलता था जिसका इस्तेमाल काशगर, अरब, मंगोलिया के व्यापारी करते थे। इसके बारे में मुझे ज़्यादा जानकारी नहीं है। ह्वेनसांग और फाह्यान ने इसका वर्णन सिबलिंग पहाड़ के वर्णन के साथ किया है किन्तु अस्पष्ट है। एक बहुत लंबा मार्ग शिमला कुल्लू होकर जंस्कार घाटी की तरफ़ से तिब्बत जाता है। 

ब्रिटिश हुकूमत के दौरान कैलाश मानसरोवर का अधिकारिक और लोकप्रिय मार्ग अल्मोड़ा, धारचूला, बुदी, काला पानी, नबीढ़ांग, लिपुलेख, तकलाकोट होते हुए मानसरोवर का हो गया था जो 1952 तक बग़ैर किसी अवरोध के जारी रहा। बाद में तिब्बत पर चीनी अतिक्रमण के कारण इसमें बाधा आयी जिसे तत्कालीन वाजपेयी सरकार के समय परस्पर सहमति से सीमित रूप में खोला गया। 

उस कालखंड में अल्मोड़ा वाले रास्ते से साधु संत तथा आम तीर्थयात्री बग़ैर किसी पासपोर्ट या परमिट के समूहों में यात्रा करते थे। मार्ग में लगभग पंद्रह पड़ाव होते थे जहाँ रात्रि को यात्री विश्राम करते थे तथा खाना बनाते थे। सवारी के लिए घोड़े और याक भी उपलब्ध रहते थे। भार उठाने के लिये कुली भी रखे जाते थे। ये कुली मार्गदर्शक और रसोइया का काम भी कर लेते थे। रास्ते में दो-चार घर वाले गाँव मिल जाते थे। खाने-पीने का सामान यात्री अल्मोड़ा, धारचूला और तकलाकोट से ही लेते थे। पूरे रास्ते सूखी ठंड और हवा पड़ती थी अतः ओढ़ने के लिए भारी तिब्बती कंबल जिसे चुटका कहते थे का प्रयोग किया जाता था। तिब्बती क्षेत्र में लुटेरे और डाकुओं का डर रहता था अतः समूह में एक बंदूक वाला भी रहता था जो शाम के वक़्त दो-चार हवाई फ़ायर करके संभावित डाकुओं को दूर रहने की चेतावनी दे दिया करता था। ये बंदूकें धारचूला और तकलाकोट में किराये पर मिल जाती थीं। स्वामी प्रणवानंद ने अपनी कैलाश मानसरोवर यात्रा डायरी (1928-1938) में इस रूट की तब होने वाली यात्राओं का बड़ा रोमांचक वर्णन किया है। 1846 में अँग्रेज़ यात्री हेनरी स्ट्रेची तथा 1906 में स्वीडिश यात्री स्वेन हेडिन ने भी इस क्षेत्र का बड़ा रोचक वर्णन किया था। स्वेन हेडिन तो वहाँ बहुत समय तक रहे भी थे। इस सम्पूर्ण रास्ते में भोटिया चरवाहों और गडरियों के तम्बू मिल जाते थे जहाँ से यात्री मक्खन, दूध ख़रीद सकते थे। खाना बनाने का सामान टिन के कनस्तरों में तथा जूट की बोरियों में रखा जाता था जिसमें केरोसिन, स्टोव, आटा, चावल, घी, सूखा दूध, शक्कर, चायपत्ती, रास्ते में नाश्ते के लिए घर से बना कर लायी गयी गुड़ पापड़ी आदि रखे जाते थे। टिंचर आदि कुछ दवाइयाँ भी साथ में ले ली जाती थीं। 

पूरी यात्रा एक माह से लेकर चालीस दिनों में सम्पूर्ण होती थी। इसमें मानसरोवर और कैलाश दोनों की परिक्रमाएँ भी शामिल हैं। 

अब चीन भारत संबंधों के कारण यह अद्भुत यात्रा भारतीय श्रद्धालुओं के लिये दुस्साध्य हो चली है। 

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