अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

राजपाल सिंह गुलिया – दोहे – 001

 

अधम कमाई से हुए, सदा बुरे ही काम। 
 रंगरेली में लग गए, रंगदारी के दाम॥
 
हर्षित, दर्पित या करे, कोई सोच-विचार। 
अंतर्मन के भाव तब, लें मुख पर आकार॥
 
खेत बेच कर सेठ को, भेजा पुत्र विदेश। 
उम्मीदों ने कर दिया, कितना बड़ा निवेश॥
 
गौरव को गिरवी किया, खाया बेच लिहाज़। 
भौतिकवादी सोच से, लौकिक हुआ मिज़ाज॥
 
बातें सुन बुनियाद की, सहम गई दीवार। 
आख़िर कितने दिन सहें, हम तेरा ये भार॥
 
दुख में रहता सुख छुपा, शंका बीच यक़ीन। 
अक़्सर काली रात में, स्वप्न मिले रंगीन॥
 
बिना ठोस संकल्प के, कौन गलाए दाल। 
चाह हमेशा चाहती, पका पकाया माल॥
 
कैसा दिया विकास ने, हमको ये उपहार। 
धुआँ-धुआँ सी हो गयीं, अपनी स्वच्छ बयार॥
 
लुटा रहा धन नीर सा, दोनों हाथ उलीच। 
मिलें उसी लंकेश के, संग बहुत मारीच॥
 
भूल तनिक पर भी नहीं, डालोगे जब धूल। 
कहो खिलेंगे किस तरह, विश्वासों के फूल॥
 
बुरा किसी को गर लगा, तुरत जताओ खेद। 
रिश्तों में पनपें नहीं, वैचारिक मतभेद॥
 
सीख दिलों को जीतना, आलिम की तजवीज़। 
पैसे से मिलती कहाँ, दुनिया में हर चीज़॥
 
दुख में रहता सुख छुपा, शंका बीच यक़ीन। 
जैसे काली रात में, स्वप्न रहें रंगीन॥
 
होता ख़त्म विवाद में, जब शब्दों का कोष। 
आता मान बचाव को, तभी यकायक रोष॥
 
खाद बीज की हाट पर, मिला नहीं सामान। 
लेकिन मिली शराब की, हरदम भरी दुकान॥
 
ग़ैर संग जोरू गई, लगा दाग़ दहलीज़। 
पति बेचे बाज़ार में, वशीकरण तावीज़॥
 
बोल तोल कर बोलिए, क़ायम रहे तमीज़। 
बातों में सम्मान की, लाँघो मत दहलीज़॥
 
हुई टिकट के नाम पर, ऐसी बंदर-बाँट। 
इस दल से उस दल गए, कितने मार गुलाँट॥
 
करके निंदा ईश की, हँसा ख़ूब शैतान। 
इसी बात पर लड़ मरे, कितने ही नादान॥
 
अगवाह किया पगार को, महँगाई ने आज। 
निकली ख़ाली जेब की, नहीं तनिक आवाज़॥

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अँधियारे उर में भरे, मन में हुए कलेश!! 
|

मन को करें प्रकाशमय, भर दें ऐसा प्यार! हर…

अटल बिहारी पर दोहे
|

है विशाल व्यक्तित्व जिमि, बरगद का हो वृक्ष। …

अमन चाँदपुरी के कुछ दोहे
|

प्रेम-विनय से जो मिले, वो समझें जागीर। हक़…

अर्थ छिपा ज्यूँ छन्द
|

बादल में बिजुरी छिपी, अर्थ छिपा ज्यूँ छन्द।…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

दोहे

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं