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साहित्य के मुन्ना भाई

 

मैं निरा मूर्ख था, जो साहित्य को सृजन समझ कर काग़ज़ काले करता रहा। उधर भाई लोगों ने सामग्री कॉपी-पेस्ट की और छपवा कर लेखक बन गए। पत्र-पत्रिकाओं ने उनकी इस सामग्री को भाव से लपका और चाव से छापा। लिखकर तो मैंने भी भेजा, पर मेरा लिखा एक चुटकुला तक न छपा। 

मैंने चिंतन किया। पता चला कि मैं अपनी गति से मार खा रहा हूँ। कई दिन तो मैं लिखने में लगाता हूँ और फिर डाक से वह रचना जब तक पहुँचती है, दिन महीने बन जाते हैं। जबकि भाई लोगों ने इधर सामग्री डाऊनलोड की और कॉपी-पेस्ट कर ईमेल से पोस्ट कर दी। इसीलिए मैं वहाँ का वहीं रह गया और वे कहाँ पहुँच गए। उनके डाउनलोड में गति थी, जबकि मेरा सृजन समय ले रहा था। उनकी ईमेल ने ऐसी रफ़्तार पकड़ी की पलक झपकते ही यहाँ से वहाँ। जबकि हमारी डाक सेवा की पलकें थोड़ी भारी हुई, तो मेरी रचना भी एक ओर पड़ी सुस्ताने लगी। 

राम क़सम! मैं साहित्य की अन्य विधाओं में तो ठीक था, पर डाउनलोड की विधा में माहिर न था। लिहाज़ा मुझे मानना पड़ा कि मैं न छपने के क़ाबिल हूँ, न लेखक बनने के। अपनी लघुता का बोध होते ही मैंने प्रभुता की खोज आरंभ की। यह काफ़ी आसान खोज थी और मैं एक प्रसिद्ध लेखक की शरण में था। वे हमेशा छपते रहते थे, इसीलिए मैं समझता था कि उनमें साहित्य सृजन की अपूर्व क्षमता है। परन्तु वहाँ पहुँचकर मैंने देखा कि सामग्रियाँ धड़ाधड़ डाउनलोड हो रही हैं। मैं दाँतों तले उँगली दबाए बिना न रह सका। कहाँ तो मैं दिन भर में एक पन्ने लिखकर इस भुलावे में था कि मैं लेखक हूँ, परन्तु यहाँ तो सैकड़ों पन्ने ऐसे निकल रहे हैं जैसे की रील से धागे निकल रहे हों। 

मैंने उनकी वंदना की, “आप तो महान लेखक हैं। आप लिखते कम और छपते ज़्यादा हैं। इसी लिखने और छपने संबंधी कुछ टिप्स आपसे लेने आया हूँ।” 

पहले तो उनकी पेशानी पर बल पड़ गए। पेशानी के बल कुछ सीधे हुए तो वाक्य टेढ़े निकले, “यह काम मुश्किल भरा और टेक्निकल है, आप से हो सकेगा?” 

मैंने कहा, “यदि यह सब मुझसे हो सकता, तो मैं आपके पास क्यों आता? तकनीक में तो मैं यूँ भी ज़रा कमज़ोर हूँ। लेखन तो अब कला रहा नहीं, तकनीक बन गया है। कहाँ से कौन सी चीज़ ली जाए और कैसे इस्तेमाल की जाए यह तकनीक आपसे सीख जाऊँ तो लेखक भी बन जाऊँगा, वरना लौटी हुई रचना की तरह यूँ ही एक कोने में पड़ा रहूँगा।” 

उन्होंने समझाते हुए कहा, “देखिए! आजकल पत्र-पत्रिकाओं में रचना के साथ मौलिकता संबंधी प्रमाण पत्र माँगा जाता है। छपने की पहली शर्त यह है कि मौलिकता का प्रमाण पत्र रचना के साथ ज़रूर नत्थी हो, पर रचना मौलिक न हो। मौलिक रचना में वह बात कहाँ जो उड़ाई गई रचना में है। आजकल कविता, कहानी और व्यंग्य ही नहीं बल्कि पूरी की पूरी पुस्तक और शोध-प्रबंध तक ऐसे ही लिखे जाते हैं और मुस्कुराते चेहरे की तस्वीर के साथ छापे जाते हैं। जो लोग विदेशों से सामग्री आयात करने में सक्षम हैं, वे इस विधा के सबसे निष्णात लोग हैं। इनकी मौलिकता का प्रमाण पत्र इतना मौलिक होता है, कि आप जैसे काग़ज़ काले करने वालों के प्रमाण पत्र फ़र्ज़ी लगते हैं।”

अगले दिन मैं फिर उनकी शरण में था। मैंने अपनी अमौलिक रचना के साथ मौलिकता प्रमाण पत्र तो संलग्न कर दिया था, परन्तु छपने के लिए भेजने में किंचित शर्म आई। 

“अरे! काहे की शर्म। माल किसका है इससे क्या मतलब। आप तो बस इस माल के रिटेलर है, बाज़ार में उतार दीजिए। आपको अभी शर्म आ रही है, परन्तु जिस दिन यह शर्म जाएगी आप रिटेल में नहीं बल्कि थोक में यह सब करने लगेंगे। कई लोगों ने तो बाक़ायदा इसकी कंपनियाँ खोल रखी हैं। आधुनिक साहित्य में यह सब सहज स्वीकार्य है। यही सृजन है। साहित्य चाहे कहीं से भी लिया गया हो, पर उसके साथ नत्थी मौलिकता प्रमाण पत्र आपका अपना होना चाहिए। यानी सामान ओरिजिनल न हो, पर लेबल एकदम ओरिजिनल होना आवश्यक है,” उन्होंने हिम्मत बढ़ाई। 

घर आकर मैं उस उड़ाई गई सामग्री को ग़ौर से देखने लगा। मैंने उसमें कुछ शब्द और वाक्य अपनी ओर से मिला कर अपनी शर्म थोड़ी कम की। यानी मैंने अपनी शर्म को लाज के पर्दे में ढँका। इससे मुझे यह आत्मबल भी मिला कि मैंने चोरी नहीं बल्कि हेरा-फेरी की है। थोड़ी बहुत हेरा-फेरी तो हर जगह चलती ही है। इस मिलावट के जमाने में ख़ालिस चीज़ें बिकती कहाँ है और अगर बिक भी जाएँ तो ख़रीदने वाले का ज़ायक़ा और हाज़मा दोनों ख़राब कर देती हैं। लोगों को मिलावटी चीज़ों की ऐसी आदत लगी हुई है कि ख़ालिस चीज़ें मेरे जैसे लेखकों की रचनाओं की तरह एक्सपायर हो कर बेकार पड़ी हुई हैं। जबकि मिलावटी चीज़ें डाउनलोड किए गए साहित्य की तरह धड़ाधड़ यूज़ हो रही हैं। 

अपनी दो चार रचनाओं को मैं यूँ ही लाज के पर्दे में छुपा कर भेजता रहा। फिर मुझे अपनी इस पर्दे में ढकी-छुपी रचनाओं पर ही शर्म आने लगी। धीरे-धीरे मैं डाउनलोड और कॉपी-पेस्ट की तकनीक में पूरा सिद्धहस्त हो गया। मैं लिखना भूल गया और लेखक बन गया। 

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