समभाव
काव्य साहित्य | कविता नन्दलाल भारती18 Nov 2008
सम्भावनायें कम होती जा रही हैं,
पाखण्ड में लोगों को घिरा देखकर।
उपेक्षितों गरीबों, शोषितों के लिये,
तरक्की की हवा नहीं बह रही।
गरीब आँसू से रोटी गीला कर रहा।
उपेक्षित बुराईयों का दंश झेल रहा।
कहाँ कहाँ नहीं पटका माथा,
धर्म कानून और राजनीति की चौखट पर भी।
उम्मीदों को पर पर नहीं लगे।
समभाव से दूर शोषित उपेक्षित ही रह गये।
दायित्व नैतिक मूल्यों का दहन होता रहा।
मानवीय रिश्तों का सौंधापन घायल हो गया।
लोभ और भेद का रोग लग गया।
निजहित की चाह परहित का ख्याल नहीं।
भेद की धार समभाव से सरोकार नहीं।
हारने लगा समभावनाओं की डगर।
सेचा था जीत का जश्न मनाऊँगा,
खींच गयीं तलवारें मगर।
सम्भावनायें कम हो सकती हैं,
उम्मीदें कम नहीं।
बच जायेगा संस्कार और समभाव
क्योंकि यादें अभी तो है।
राम का आदर्श बुद्ध का समतावाद
महावीर का अहिंसावादी उपदेश भी।
सच सम्भावनायें हैं और उम्मीदें भी।
ज़रूरत हैं ,
निज स्वार्थ से परे सेवा और त्याग की।
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