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समझौता

अध्यापिका हूँ। हर रोज़ अलग-अलग बच्चों से वास्ता पड़ता है। कक्षा में जाना, पढ़ाना, बच्चों से बतियाना, उनकी नन्ही-नन्ही समस्याओं को सुलझाना मेरा शौक़ है। इस कक्षा में जाते मुझे क़रीब 6 माह हो गये थे। दो जुड़वाँ भाई-बहन को पढ़ाती हूँ। जहाँ बहन अति शान्त, कुशल व स्नेही वहीं भाई शरारती, बातूनी व कभी-कभी लापरवाह। उससे मेरी उम्मीदें कुछ ज़्यादा ही बढ़ने लगीं। हमेशा उसमें सुधार लाने की इच्छा ने मुझे उसके क़रीब ला दिया। परन्तु बात न मानना तो जैसे उसका संकल्प सा हो। वह अपनी मनमानी करता परन्तु पलटकर न तो कभी जवाब देता न ही सही काम करता। परीक्षा हुई। परिणाम भी मेरी आशा से कम था। उसकी कुशाग्र बुद्धि से ज़्यादा उम्मीद की जा सकती थी। मैंने उसके माता-पिता को संदेश भिजवा कर मिलने का आग्रह किया। निश्चित समय पर उसके माता-पिता अपने बच्चों के साथ मेरे पास आए। 

पिता ने पूछा, "मैम, आपने बुलाया था, क्या कोई समस्या है?"

मैंने बच्चों की ओर देखा, दोनों के चेहरे पीले हो गये थे। मैंने कहा, "इन्होंने क्या कहा?"

पलटकर पिता ने कहा, "ये क्या कहेंगे, रात को बताया कि कल रिज़ल्ट है और मैम ने आपको बुलाया है। मैडम मैं आपको एक बात बताना चाहता हूँ इससे पहले कि आपकी सुनूँ। मैंने 7 माह पहले शादी की है। ये बेटी मेरी पहली पत्नी की है, जो पिछले बरस गुज़र गई और लड़का इनका है," अपनी पत्नी की और इशारा करते हुए कहा। "इसका पापा भी पिछले बरस गुज़र गया। मेरी बहन ने यह रिश्ता सुझाया और हमने ब्याह कर लिया। जाने वाले तो चले गये, अब आगे की भी तो सोचनी है। हाँ, मैडम कहिए आप क्या बता रही थीं?"

मैं उनकी बातें सुनकर स्तब्ध थी। मैंने दोनों बच्चों की ओर देखा जो अभी भी वैसे ही सहमे से खड़े थे। मैंने कहा, "बस यूँ ही बुलाया आपको, आपके बच्चे नए हैं इस स्कूल में। पूछना था इन्हें कैसा लगा?"

वह बोले, "और, शुक्रिया।" 

देख सकती थी अब मैं उन दोनों अधूरे बच्चों के मुँह पर लौटती रौनक़।

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