अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

समकालीन हिंदी ग़ज़ल में विचार, संवेदना और शिल्प: रामदरश मिश्र की रचनात्मक दृष्टि

 

अनेक विधाओं में सिद्धहस्त वरिष्ठ साहित्यकार रामदरश मिश्र जी ने कविता को समग्रता के साथ रचा और जिया है। उन्होंने कविता के एक रूप को मात्र कविता मानकर अपनी साहित्यिक ज़िम्मेदारियों से किनारा नहीं कर लिया, बल्कि नई कविताएँ या गद्य छंद की कविताएँ सहित छंद-कविताएँ सातत्य के साथ रचते रहे हैं, और इसी कड़ी में ग़ज़लें भी। अब तक प्रकाशित उनके सात ग़ज़ल-संग्रह समकालीन हिंदी ग़ज़लकारों के लिए उत्तर ध्रुव तारे से कम नहीं है। आज जब हिंदी ग़ज़ल अपनी यात्रा के दौरान महत्त्वपूर्ण पड़ावों को देखते-समझते हुए अग्रगामी है, ऐसे में मिश्र जी जो ग़ज़लों के सफ़र के शुरूआती दौर से साथ चल रहे हैं उनकी ग़ज़लें जाने-अनजाने दिशादर्शक के दायित्व का निर्वहन करती रहती हैं। अपनी ग़ज़ल-यात्रा के बारे में मिश्र जी स्वयं एक स्थान पर लिखते हैं, “मैंने कई शैलियों में काव्य रचना की है। ग़ज़ल के साथ मेरी सघन यात्रा आठवें दशक के अंतिम भाग में शुरू हुई किन्तु मैंने ग़ज़ल-लेखन का प्रारम्भ छठे दशक में ही कर दिया था। छठे दशक के पश्चात ग़ज़ल-लेखन की यात्रा थम-सी गई थी, फिर वह आठवें दशक में गतिशील हुई (आज धरती पर झुका आकाश, पृ. 5)।” 

मिश्र जी के ग़ज़ल-संग्रहों पर दृष्टि डालें तो वर्ष 1986 तक कही गईं ग़ज़लों का उनका पहला संग्रह बाज़ार को निकले हैं लोग शीर्षक से आया। इसके बाद वर्ष 1997 ई. में ‘हँसी ओठ पर आँखें नम हैं’, वर्ष 2005 ई. में ‘तू ही बता ऐ ज़िन्दगी’, वर्ष 2008 ई. में ‘हवाएँ साथ हैं (चयनित)’, वर्ष 2010 ई. ‘51 ग़ज़लें’, सन् 2017 ई. में ‘सपना सदा पलता रहा’, सन् 2019 में ‘दूर घर नहीं हुआ’ और सन् 2023 में ‘तू कहाँ है प्रकाश में आए’। इन पुस्तकों में आई ग़ज़लों के अतिरिक्त कई ग़ज़लें उनके कविता-संग्रहों में भी (उदाहरण स्वरूप वर्ष 2022 में प्रकाशित समवेत में) संकलित हैं जो हिंदी समाज में प्रचलित कविता और ग़ज़ल के अलग-अलग वर्गीकरण पर उनके एक विनम्र प्रश्न से प्रतीत होते हैं, और साथ ही, कविता के लोकतांत्रिकरण का व्यवहारिक स्वरूप भी उजागर करते हैं। इनके साथ समय-समय पर उनकी चुनिंदा ग़ज़लों की संपादित किताबें भी आती रही हैं जिनमें अभी हाल ही में कवि व आलोचक ओम निश्चल द्वारा संपादित बनाया है ‘मैंने ये घर धीरे-धीरे: रामदरश मिश्र की ग़ज़लें’ (2019) काफ़ी लोकप्रिय रही है। 

रामदरश मिश्र के ग़ज़ल-साहित्य का समग्र स्वरूप भी उनके शताब्दी वर्षगाँठ पर एक संकलन के रूप में वर्ष 2024 में ‘आज धरती पर झुका आकाश’ (इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली) के माध्यम से पाठकों के समक्ष आ चुका है। यह संग्रह मिश्र जी के अब तक प्रकाशित समस्त ग़ज़ल-संग्रहों को एक छत के नीचे लाकर उनके रचनात्मक अवदान की समग्रता को रेखांकित करता है। इस संकलन की उपस्थिति हिंदी ग़ज़ल के क्षेत्र में एक उल्लेखनीय उपलब्धि के रूप में देखी जा सकती है, क्योंकि इसके माध्यम से ग़ज़लगोई की उनकी विशिष्ट पहचान और संवेदनात्मक अनुभव-संपदा का संगठित अवलोकन सम्भव होता है। हालाँकि, संपादकीय दृष्टि से यह संकलन कई स्तरों पर और अधिक परिपक्वता की अपेक्षा करता है। संग्रह में शामिल ग़ज़ल-पुस्तकों के मूल प्रकाशन-वर्ष, उनके साहित्यिक संदर्भ, तथा ग़ज़लों की संरचनात्मक विशेषताओं पर कोई विस्तृत प्रकाशकीय टिप्पणी या संपादकीय प्रस्तावना नहीं दी गई है। साथ ही, अनुक्रम के माध्यम से पृष्ठ-संख्या, और संग्रहों के नामों की प्रस्तुति का भी अभाव है, जिससे पाठकीय अनुभव प्रभावित होता है। यह पक्ष भविष्य में संपादन की दृष्टि से पुनर्विचार की माँग करता है। उल्लेखनीय है कि हिंदी ग़ज़ल के अन्य महत्त्वपूर्ण रचनाकारों के सम्पूर्ण ग़ज़ल-संग्रह भी इस प्रकार समग्र रूप में सुधरे संपादकीय परिप्रेक्ष्य के साथ सामने आने शेष हैं। रामदरश मिश्र का यह संकलन ऐसे प्रयासों की दिशा में एक प्रेरक प्रारंभ अवश्य सिद्ध हो सकता है। 

आज जब दुष्यंतनुमा ग़ज़लें कहने या फिर एक ही परंपरा से चिपके रहने की अनजानी ज़िद के कारण बेवजह जुमले या शब्दजाल द्वारा तार्किकता और प्रतिरोध से आकर्षित करने वाली भाषा गढ़ने की होड़ में अनेक लोकप्रिय ग़ज़लकार देखे-सुने जा सकते हैं, तब मानवीय मूल्यों एवं संवेदनाओं से युक्त कहन वाली रामदरश मिश्र की ग़ज़लें हिंदी ग़ज़ल के विकास में एक नया अध्याय जोड़ रही हैं। मिश्र जी ‘आज धरती पर झुका आकाश’ की अतिसंक्षिप्त भूमिका में लिखते हैं: “मेरी कोशिश रही है चमत्कारी उक्तियाँ कहने के स्थान पर सहज रूप से आदमी का सुख-दुख कहूँ, उसकी संवेदना को रूप दूँ, अपने परिवेश के दृश्यों और तज्जन्य भावात्मक, वैचारिक छवियों को स्वर दूँ। राजनीतिक और सामाजिक जीवन में व्याप्त कुरूपताओं पर प्रहार कर मूल्य-छवियाँ उजागर करूँ।” इसी बात में वो हिन्दी ग़ज़ल के एक महत्त्वपूर्ण रचनात्मक पड़ाव की ओर संकेत करते हुए आगे जोड़ते हैं, “मेरी कुछ ग़ज़लों में तो एक ही विषय से संबंधित भाव-धारा चलती है और उनमें गीतात्मक अन्विति होती है। हर शेर अपने में पूर्ण होकर भी पूरी ग़ज़ल का अपरिहार्य अंग होता है और उसकी पूर्णता का साधन बनता है (पृ. 5)।” निश्चित रूप से अति सहजता के साथ कहा गया उनका यह कथन हिंदी ग़ज़ल के लिए दिशासूचक तो वहीं दूसरी तरफ़ उर्दू ग़ज़ल की पारंपरिक शैली का उनके द्वारा हू-ब-हू अनुकरण न करने की स्वीकारोक्ति है। जैसा कि उर्दू ग़ज़ल परंपरा में यह माना जाता है कि हर शेर अपने आप में मुकम्मल (पूर्ण) होता है, और वह स्वतंत्र अर्थ रखता है। लेकिन, मुसलसल ग़ज़ल इस परंपरा को आंशिक रूप से तोड़ते हुए ऐसे शेरों का सिलसिला होती है, जो एक ही भाव-धारा या विषय के इर्द-गिर्द रची गई होती हैं, और जिनमें आपसी अर्थ-संबंध होता है। हिन्दी ग़ज़लकार की रामदरश मिश्र की उक्त उक्ति—“मेरी कुछ ग़ज़लों में तो एक ही विषय से संबंधित भाव-धारा चलती है और उनमें गीतात्मक अन्विति होती है . . . “—स्पष्ट करती है कि वे ग़ज़ल को एक सतत प्रवाह की काव्य-रचना भी मानते हैं, जिसमें हर शेर स्वतंत्र होते हुए भी एक समग्र भाव-बोध में जुड़ा होता है। यह शैली उर्दू की मुसलसल ग़ज़ल के निकट है, परन्तु “गीतात्मक अन्विति” का उल्लेख उसे हिन्दी कविता की गीतधारा से भी जोड़ता है। इस प्रकार से हम कह सकते कि हिन्दी के गौरव ग़ज़लकार रामदरश मिश्र की ग़ज़लों में हिन्दी ग़ज़ल की वह प्रवृत्ति उभरकर आती है जो ग़ज़ल को केवल छंदबद्ध शेरों का संग्रह न मानकर, एक लयात्मक और अर्थगर्भित इकाई के रूप में देखने को प्रेरित करती है, और जो उर्दू की मुसलसल ग़ज़ल की अवधारणा से प्रेरणा लेकर भी हिन्दी कविता की पारंपरिक भावधारा से एक रचनात्मक संवाद स्थापित करती है। 

असल में, हिंदी ग़ज़लों की दुनिया में दुष्यंत की परंपरा के समांतर एक और रेखा देखी जा सकती है। यह सहजता के साथ खिंचती गई है। इस परंपरा के निर्माण में अग्रणी रहने वालों ने और इसके वाहकों ने भी कभी इस नई रेखा को सायास खींचे जाने का दावा नहीं किया। यह परंपरा स्वतः स्फूर्त ही निर्मित हुई. इस परंपरा से जुड़े ग़ज़लकारों ने स्वयं को सैद्धांतिक रूप से कभी दुष्यंत की परंपरा से अलग करके भी नहीं देखा और ग़ज़ल विधा के आलोचकों ने भी उनकी अलग से पहचान करने की चुनौती को नहीं स्वीकारा। हाँ, हिंदी ग़ज़ल की दूसरी परंपरा को समझने व समझाने के बिखरे प्रयास अवश्य हुए हैं, परन्तु ये प्रयास एक सतत धारा के रूप में नहीं चिह्नित किए जा सके हैं। इसी के तहत ग़ज़लकार नरेश शांडिल्य ने रामदरश जी की ग़ज़लों को समग्रता के साथ पढ़ते हुए एक स्थान पर कहा है कि मिश्र जी की हिंदी ग़ज़लें “चमत्कृत नहीं स्पंदित करती हैं।” ग़ज़ल की बनी-बनाई परिभाषा के ढर्रे में क़ैद होकर लिखना पसन्द नहीं करते। वे अपने मूल स्वभाव में बसी सहजता और स्वच्छन्दता के बल पर ही ग़ज़लों में आगे बढ़े हैं (पृ. 23)। उनका मूल स्वभाव उनके परिवेश और समय की ही निर्मित्ती है। 

डॉ. वेद मित्र शुक्ल 
एसोसिएट प्रोफ़ेसर, अंग्रेज़ी विभाग, राजधानी महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय, राजा गार्डन, नई दिल्ली – 110015
मोबा.: 9953458727, 9599798727; ईमेल: vedmitra.shukla@rajdhnai.du.ac.in 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

साहित्यिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं