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संवेदना के गीत गाती सदी


समीक्षित पुस्तक: गाएगी सदी-हाइकु संग्रह 2024, 
लेखिका: डॉ. सुरंगमा यादव
प्रकाशक: अयन प्रकाशन-दिल्ली, 2024, 
मूल्य: ₹320.00
पृष्ठ संख्या: 112
ISBN: 978-81-968022-9-5
भूमिका: रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

हिंदी हाइकु विगत तीन दशक से भी अधिक समय से रचनाकारों के बीच अपनी लघुता में विराटता के कारण लोकप्रिय बनी हुई है। इस दौरान हाइकु के कई एकल संग्रह प्रकाशित हुए और चर्चित रहे। हाइकु लेखन को प्रोत्साहन देने के केन्द्र में स्व. डॉ. सुधा गुप्ता जी एवं ‘हिंदी हाइकु’ ब्लॉग के संपादक द्वय—रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ एवं डॉ. हरदीप कौर संधू जी रहे हैं। प्रकृति एवं लोकजीवन की विविध विषयों पर हाइकु रचे गए इस तरह के सार्थक एवं सकारात्मक प्रयोगों ने हाइकु को सजीव बनाया। हाइकु 5, 7, 5 यानी तीन पंक्तियों में 17 वर्ण की संवेदनात्मक दृश्यानुभूतियों की पूर्ण कविता है। 

‘यादों के पंछी’ एवं ‘भाव प्रकोष्ठ’ के उपरांत ‘गाएगी सदी’ आपका तीसरा हाइकु संग्रह है। इसमें इन उपखंडों 1. मंगलाचरण, 2. ढाई आखर, 3. वक़्त की धूप 4. हरित कथा, 5. जग की रीत, 6. सुधियों की सुरभि 7. उद्गार के अंतर्गत कुल-564 हाइकु संगृहीत हैं जिनमें से कुछ अन्य पटल पर प्रकाशित भी हुए हैं। इस संग्रह के हाइकु अपनी छाप छोड़ने में सफल हुए हैं, इनके केंद्रीय भाव में सकारात्मकता से दूरी दिखी। प्रत्येक हाइकुकार की अपनी पृथक सृजनभूमि होती है तथा उसके अपने चिंतन का परिवेश अलग होता है। ये सभी कारक उसकी सृजनभूमि को प्रभावित करते हैं। आपके हाइकु आपके परिवेश के साँचे में ढले हुए हैं। 

इस खंड—ढाई आखर (84 हाइकु) में प्रेम गली अति साँकरी . . . और उधो मन भए ना दस-बीस . . . की तरह से आपने अपनी संवेदना को हाइकु में रचा है। यहाँ हमें प्रेम के रूपों में वियोग/दर्द का हिस्सा ज़्यादा मिला, संयोग और ख़ुशियों की क़दमताल कम मिली। प्रेम नगीना को मन मुद्रिका के बीच सँजोए रखने, दुःख पहाड़, जीर्ण-शीर्ण डायरी, आँसू-व्यथा, मौन क्रंदन, मन का कोलाहल, अपने से ही अपनी बातें एवं वादों-अभिलाषाओं के सौंदर्य भाव को आपने हाइकु का हिस्सा बनाया है। 

“चला के तीर/फिर पूछा तुमने/कहाँ है पीर। 
रात अँधेरी/तुम्हें ढूँढ़ता मन/जुगनू बन। 
पतंगा करे/दीप की चिता पर/जौहर व्रत। 
मन का पृष्ठ/लिखा है प्रेमपत्र/भेजूँ तो कैसे!” 

वक़्त की धूप खंड में कुल—78 हाइकु हैं। इसमें वक़्त की बातें हैं, वक़्त ही राजा है और रंक भी है, रिश्तों की चुहल है, वात्सल्य, वृद्धावस्था, राखी . . . के सौंदर्यबोध को रेखांकित करते हैं। वक़्त का पहिया किसी का सगा नहीं होता उसका अपना ठाठ है जो कर्मों के अनुसार फल देने पर विश्वास रखता है। ये हाइकु वक़्त की इबारत को दर्शाते हुए निखर गए हैं:

“वक़्त ने ठेला/पत्तों का छूट गया/वृक्ष-हिंडोला। 
नापतीं नभ/तोड़ रही रूढ़ियाँ/आज चूड़ियाँ। 
छोड़ो रूढ़ियाँ/अंश-वंश हैं दोनों/बेटे-बेटियाँ।” 

कुछेक हाइकु प्रश्न उठाते हुए भी सुंदर बन पड़े हैं जिनकी आज सख़्त आवश्यकता है। नारियों की व्यथा सहित उनकी उपेक्षा एवं अपेक्षा की विसंगतियों पर तीव्र प्रहार किया हैं। दहेज़ प्रथा, तेज़ाब से हमला, कन्या भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा . . . और बलात्कार जैसी वीभत्स घटनाओं से जाने समाज को मुक्ति कब मिलेगी। कन्या पूजन और यत्र नार्यस्तु पूज्ययेत . . . के देश में साहित्य को और तीव्र प्रहार करना होगा। विसंगतियों का चित्रण करना ज्वलन्त समस्याओं के प्रति हमें सावधान करता है। ये हाइकु अपनी व्यथा को समाज के आईने में उसके लंबरदारों से सवाल पूछते हुए खड़े हैं। एक सभ्य मानवीय समाज में ऐसे किसी भी अपराध के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। 

“तंत्र लाचार/बेटी तक पहुँचे/घिनौने हाथ। 
क्यों ये रिवाज़/मृत देह का साज/सधवा-बेवा। 
फेंका तेज़ाब/मानवता किससे/माँगे हिसाब। 
कैसी हवाएँ/कोख से भी बेटियाँ/विदा कराएँ।” 

हरित कथा खंड में कुल 126 हाइकु हैं। इस खंड में चाँद, मेघ, पौधे, वसंत, पतझर और प्रदूषण पर केंद्रित हाइकु का कहीं पर सौंदर्य है तो कहीं विसंगतियों की पीड़ा है। इस खंड में प्रकृति के सौंदर्य के साथ सृजन क़दमताल करते हुए मुस्कुरा रही है। प्रकृति को जिन लोगों ने देखा, अलग दिखा, अलग रचा और अब तक ना जाने कितना कुछ छूटा हुआ है। ये हाइकु पाठकों के समक्ष स्पष्ट रूप से खुलते हुए उनके अन्तस तक पहुँचने में सक्षम हैं:

“मेघ दुशाला/उड़ा ले चली हवा/निकला चाँद। 
स्वर्णिम धूप/लहरों पे बिखरी/दोनों निखरीं। 
हो रही भोर/शनैः-शनैः खुलता/कली का मन। 
खंगाल डाले/पतझर आकर/पेड़ गुल्लक। 
खिला मोगरा/डंका पीटती फिरे/बातूनी हवा।”

हर अच्छाई के साथ उसका दूसरा पहलू साथ चलता ही है ठीक ऐसे ही प्रदूषण का कालापन इंसानी करतूतों का साइड इफ़ेक्ट है जो विकास की दीप के नीचे का अँधेरा जैसा है। आइए कंक्रीट के घर से निकलकर धूप से छाँव का पता पूछते हैं:

“खंभे से पूछे/हाँफता हुआ पंछी/छाँव का पता। 
कटे जंगल/बढ़ा जंगलीपन/खोया इंसान। 
पाँव पसारे/कंक्रीट आ पहुँचा/वन के द्वारे।” 

इस खंड—जग की रीत में सर्वाधिक 252 हाइकु हैं। जीवन-मृत्यु, भाग्य, सच-झूठ, रिश्ते-संवादहीनता, घर-द्वार, सुख-दुःख, परंपराएँ, . . . रिश्वत, श्वास नर्तकी, मन बंजारा, यौवन आभूषण, मृत्यु खिलाड़ी, दर्द की पगडंडी एवं गुम चौपाल के संग ये हाइकु भी जग की रीत निभाते हुए प्रकट हुए हैं। जीवन वह नहीं जो हमने जिया बल्कि जीवन वह है जो मिसाल बन जाए। अकड़े हुए जीवन की पतंग उड़ी-चढ़ी लो कटी हो जाती है। आइए धूप को श्रमिक की नज़रों से देखते हैं:

“अकड़े तुम/हम भी रहे तने/बात क्या बने। 
सिर पे ढोता/दिनभर श्रमिक/तपता सूर्य। 
जीवन क्या है? /उड़ी-चढ़ी लो कटी/गिरी पतंग।”

पश्चिम के अंधानुकरण से उपजी आधुनिकता का दर्द बयाँ करते हैं ये हाइकु। पूँजीवाद से उपजी ग़रीबी और सत्ता के लोभ की दलदल में साहबों के काले कारनामों की फ़ाइलें खोलने की गुहार लगाती झुग्गियों को कौन सान्त्वना देगा। ये हाइकु वाक़ई ठाठ दिखा रही हैं:

“जिसका राज/उसकी कई पुश्तें/करती ठाठ
सफ़ेद वस्त्र/काले कारनामों में/रहते व्यस्त। 
सूखा या बाढ़/साहब के आँगन/सदा फुहार। 
संचार-क्रांति/गूगल कर रहीं/आज झुग्गियाँ।”

 युद्ध किसी भी समस्या का समाधान कभी नहीं रहा और ना ही युद्ध से शान्ति क़ायम की जा सकती है लेकिन वार्ता की बातें लोगों की ज़मीर को नहीं जचती। युद्ध निगल लेता है रिश्तों को, सपनों को, उम्मीदों को शहीद का नाम देकर। सियाचिन पर डटे सिपाहियों के शौर्य की गाथा कहते इस हाइकु को सेल्यूट:

“हवा भी डरे/सियाचिन जाने से/जवान डटे।” 

सुधियों की सुरभि खण्ड में सबसे कम 24 हाइकु हैं। 

यादों के घन, मन का कैनवस, यादों के पाखी, स्मृति झरोखा, दुःख, स्मृति गुलाब एवं बैरी सावन के विषयक हाइकु अपनी यादों की संदूक में बहुत कुछ समेटे हुए हैं:

“बूढ़ा संदूक/यादों की विरासत/सहेजे बैठा। 
यादों का वेग/काजल परकोटा/लाँघते आँसू।”

अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग हिंदी में वर्ज्य नहीं है और ये शब्दावली आम प्रचलन में आ चुका है इसलिए-क्लोजअप, स्टेप बहना, क्वारन्टीन सूरज, नो एंट्री का बोर्ड, ऑनलाइन एवं टैक्स फ़्री जैसे शब्दों का चतुराई से प्रयोग आपने किया है। हिंदी हाइकु में यह प्रयोगवाद अवश्य कामयाब होगा ऐसी उम्मीद की जा सकती है। हिंदी में ये सभी शब्द ग्राह्य एवं प्रचलित हैं यही हिंदी की ताक़त है। हाइकु लेखन में इस तरह के प्रचलित अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रयोग करते हुए अच्छी रचना की जा सकेगी। 

“फ़्लैट का दौर/लगा ‘नो एंट्री’ बोर्ड/ धूप के लिए।” 

अंतिम खण्ड उद्गार में मुझ सहित अन्य 8 हाइकुकारों के अभिमत उल्लिखित हैं। 

इस संग्रह के उल्लिखित हाइकु अपने शब्द सौष्ठव, आधुनिकता और दृश्यांकन के गुरुत्व से निखरे हुए हैं। शिल्प अच्छा है, शब्द चित्र सामयिकता का बोध कराने में सफल हुए हैं। प्रतीक एवं बिम्बों का यथास्थान उपयोग सफल उपयोग हुआ है। 
मेरी शुभकामनाएँ। 

रमेश कुमार सोनी
रायपुर, छत्तीसगढ़

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