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संवेदना

 

आज उम्र के इस अंतिम पड़ाव में योगेश बाबू सोचने बैठते हैं तो मन व्यथित सा हो जाता है। 

कभी-कभी व्यक्ति ख़ुद नहीं सोच पाता वो क्या कर रहा है और जो कर रहा है, कितना उचित है? 

क़रीब 55-56 की उम्र में पत्नी शांता जी का देहांत हो गया। कहने को तो भरा-पूरा परिवार था सभी ज़रूरतें बिना कहे वक़्त पर पूरी हो जाती थीं। पर मन के सूनेपन को भरने के लिए कोई पास बैठ कर दो-चार बातें कर ले, ऐसा कोई नहीं था। 

जीवन के इस पड़ाव में जब संगनी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, जब जीवन भर की भाग-दौड़ के बाद जब साथ बैठ कर सुकून से जीने का पल आया, चली गयी शांता जी . . . 

बिना पूछे बिना कहे। 

व्यथित मन ढूँढ़ने लगा एक सहारा जहाँ मन के ख़ालीपन को भरा जा सके। और उन्होंने लिखना शुरू किया . . . फ़ेसबुक, ब्लॉग, पत्र-पत्रिका में। 

लिखते रहे वो . . . अपने और अपनी पत्नी के बीच की कही-अनकही बातें, गुज़रे लम्हों के अनछुए पहलू पत्नी के साथ गुज़रे ख़ुशी और ग़म के पल। 

पर अब जो सोचते हैं तो लगता है क्या यह व्यापार नहीं था? अपनी और पत्नी की स्मृतियों को बेचना। 

अपने दर्द, अपनी व्यथा से अवगत करा उनकी सहानुभूति से संतोष करना। 

सचमुच एक ऐसा व्यपार जिसमें वो बेचते रहे अपनी यादें और ख़रीदते रहे लोगों की संवेदना। 

सामने पत्नी की तस्वीर को मुस्कुराता देख योगेश बाबू ने की अश्रुपूरित आँखों ने पूछा, “क्यों चली गयी चली गयी शांता तुम . . .?” 

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