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सँपेरा

 

दूर घने जंगल के एक गाँव से एक सँपेरा शहर आता है। वह सुबह से शाम तक, शहर की गलियों का ख़ूब फेरा लगाता है, लेकिन कोई भी उसके इकलौते नागदेवता के ऊपर पैसे नहीं चढ़ाते हैं। वह अपने भाग्य को कोसता हुआ, क़समें खाता हुआ . . . भूखा-प्यासा अपने सुदूर गाँव वापस लौटने लगता है। उसे शहरी लोगों के मन में तनिक भी श्रद्धा-भक्ति का भाव नहीं दिखता। उसे क्या पता यही शहरी लोग शादी-ब्याह या किसी तीज त्योहार के मौक़ों पर जब कोई बैण्ड पार्टी के साथ नागिन धुन में नाचने लगता है, तो नोटों की बारिश करने लग जाते हैं और वह पसीने से भीगा हुआ नर्तक नोटों से पट जाता है। लेकिन बीन के सामने थिरकते हुए असली नाग को कोई भाव नहीं दे रहा है। असल पर नक़ल भारी हो गयी है। 

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