सज़ा तो अब शुरू हुई है.....
कथा साहित्य | लघुकथा डॉ. विनीता राहुरीकर15 May 2019
बच्ची के माँ-बाप न्याय के लिए गिड़गिड़ाते रह गए। लेकिन जब अपराधी की न्याय के रक्षक से गहरी दोस्ती थी तो भला मजबूर माँ-बाप न्याय तक कैसी पहुँच पाते।
लिहाज़ा मासूम, अबोध बच्ची से और फिर न्याय तो था ही अँधा। रक्षक हाथ पकड़कर उसे जिस ओर ले गया, न्याय उस ओर ही चल दिया। बलात्कार करने वाला बाइज़्ज़त बरी हो गया।
अपराधी और न्याय के रक्षक दोस्त ने जश्न मनाया सज़ा से मुक्ति का। अपराधी फिर घर की ओर चल दिया। घरवाले एक बार भी उससे मिलने नहीं आये थे। लेकिन उसे परवाह नहीं थी। जब उसने क़ानून की आँखों में धूल झोंक दी तो उन लोगों को भी किसी तरह मना ही लेगा।
घर का हुलिया लेकिन बदला हुआ था। बीवी बच्चे सामान बाँधकर जाने की तैयारी में थे।
"तुम्हें सज़ा हो जाती तो हमारे पाप कुछ तो कट जाते। लेकिन तुम जैसे घिनोने, गिरे हुए इंसान के साथ रहना नामुमकिन है। हम कहीं मुँह दिखाने लायक़ नहीं रहे। अड़ोस-पड़ोस सबने रिश्ते तोड़ लिए। मैं अपने बच्चों को लेकर दूर जा रही हूँ," पत्नी उसकी सूरत तक नहीं देख रही थी। बेटे ने उसे देखते ही नफ़रत से थूक दिया।
बारह साल की बेटी उसकी शक्ल देखते ही भय से सहम गयी। वह बेटी को पुचकारने आगे बढ़ा तो बीवी ने गरजकर उसे वहीं रोक दिया-
"ख़बरदार जो मेरी बेटी को हाथ भी लगाया।"
"मैं बाप हूँ उसका," उसने प्रतिकार किया।
"तुम बाप नहीं बलात्कारी हो। अगर बाप होते तो किसी भी बेटी का बलात्कार कर ही नहीं सकते थे। बाप कभी किसी भी बेटी का बलात्कार नहीं कर सकता। और जो बलात्कारी है वो कभी भी किसी का बाप हो ही नहीं सकता।"
उसके हाथ ठिठक गए। जेल से बच जाने की ख़ुशी काफूर हो चुकी थी। क़ानून की सज़ा से तो वह बच गया लेकिन बेटे, पत्नी के चेहरे की नफ़रत और बेटी के चेहरे के डर से कोई न्याय का रक्षक उसे बचा नहीं पायेगा।
सज़ा तो अब शुरू हुई थी....
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