सज़ा
कथा साहित्य | लघुकथा डॉ. विनीता राहुरीकर1 Mar 2019
"कौन है?"
"मैं हूँ पिताजी। दरवाज़ा खोलिए।"
"मैं कौन?"
"अरे मैं। आपका बेटा।"
"मेरा कोई बेटा नहीं। चले जाओ यहाँ से," अंदर से नफ़रत भरी आवाज़ आयी।
"क्या बात कर रहे हैं पिताजी। दरवाज़ा खोलिए। अब तो क़ानून ने भी मुझे बलात्कार के आरोप से बरी कर दिया है," उसने फिर दरवाज़ा खटखटाकर कहा।
"क़ानून ने भले कर दिया हो। लेकिन मैं क़ानून नहीं, बाप हूँ। आख़िर मेरे घर भी बेटी है," अंदर से एक पिता की सख़्त आवाज़ आई।
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