शीतांशु भारद्वाज के उपन्यास साहित्य में दलित
आलेख | शोध निबन्ध डॉ. बंदना चंद15 Jul 2025 (अंक: 281, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
‘दलित’ शब्द ‘दल’ धातु से बना है। जिसका अर्थ पिछड़ा, शोषित, रौंदा हुआ, अविकसित, अछूत आदि है। अर्थात् जिसे दबाया गया, विकसित नहीं होने दिया, परंपरा, व्यवस्था से उपेक्षित रखा, जिसका जीवन कीड़े-मकौड़े जैसे घृणित है, ऐसा मानव ‘दलित’ है।”1 दलित को अस्पृश्य दास, हरिजन, शूद्र आदि नामों से भी जाना जाता है। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था, धर्म व्यवस्था को नकारने वाला विद्रोही, संघर्षरत समाज दलित है। विभिन्न विद्वानों ने दलित शब्द की परिभाषाएँ देकर अपने विचार व्यक्त किए हैं:
श्री नारायण सुर्वे के अनुसारः “दलित शब्द की मिली-जुली कई परिभाषाएँ हैं। इसका अर्थ केवल बौद्ध या पिछड़ी जातियाँ ही नहीं हैं, अपितु समाज में जो भी पीड़ित हैं वे सभी दलित हैं।”2
डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी ने कहा हैः “दलित शब्द अपने आप में बेहद व्यापक अर्थ रखता है, दलित शब्द में छिपा हुआ गूढ़ अर्थ जिस भाव की व्याख्या करता है, वह एक पहचान है उन लोगों की जिन्होंने सदियों से दबे-कुचले प्रताड़ित, उपेक्षित, तिरस्कृत रहकर इस देश के निर्माण में अपना जीवन ‘स्वाहा’ किया है, किन्तु सत्ता और उसके इर्द-गिर्द बिखरे स्वार्थी तत्वों ने उन्हें कभी स्वीकार नहीं किया। इससे संपूर्ण महिला समुदाय को भी दलित ही माना गया है।”3
केशव मेश्राम ने अनुसूचित जाति, बौद्ध, मज़दूर, आदिवासी, ग़रीब किसान, भूमिहीन को दलित माना है। नई समाज व्यवस्था, नई सभ्यता से दलित को नया अर्थ देने का प्रयास किया है। डॉ. वानखेड़े की मान्यता है, “जो श्रमजीवी हैं वे दलित हैं।” गिरिराज किशोर के शब्दों में, “दलित जाति से नहीं होता। समाज में अपनी अस्वीकृति की पराकाष्ठा पर जीने वाला दलित। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने ‘सर्वहारा वर्ग’ को दलित कहा, तथा जातिवाद को नकारने वाला दलित माना।”4
इस प्रकार विभिन्न परिभाषाओं से स्पष्ट है कि दलित वह है, जो शोषित है। दलितों को शेड्यूल्ड कास्ट, डिप्रेस्ड क्लास भी माना जाता है। अतः ‘दलित’ केवल उसी को कहना होगा, जो सामाजिक व्यवस्था में वर्षों से निम्न दृष्टि से देखे जाते हैं, जो आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हैं, उन्हें दलित नहीं माना जाता है; क्योंकि हमारे भारतीय हिंदू समाज में ऊँच-नीच की व्यवस्था भी जाति के आधार पर होती है। अर्थ के आधार पर नहीं। दलित शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने किया।
कथाकार शीतांशु भारद्वाज ने भी भारतीय समाज में दलितों की कठिनाइयों का अंकन किया है। इस दृष्टि से ‘दो बीघा जमीन’ उपन्यास उल्लेखनीय है। जिसमें सवर्णों के द्वारा शिल्पकारों का शोषण चित्रित हुआ है। इसके अलावा इनके ‘मोड़ काटती नदी’, ‘नुमाइंदे’ ऐसे उपन्यास हैं, जिसमें दलितों के विषय में और उनके अभावग्रस्त जीवन के अंश दिखते हैं।
शीतांशु भारद्वाज के उपन्यास ‘दो बीघा जमीन’ में शिल्पकारों की व्यथा-कथा का चित्रण है। इस उपन्यास में न केवल इनकी कठिनाइयों का चित्रण हुआ है, बल्कि कुछ दलित चरित्र पर्याप्त चेतना संपन्न भी दिखाई देते हैं। इस उपन्यास में चित्रित दलित चरित्र न केवल सवर्णों के अत्याचार, शोषण एव दमन से त्रस्त हैं, बल्कि उनमें संघर्ष की पर्याप्त क्षमता भी है। यह उपन्यास पहाड़ी शिल्पकारों के माध्यम से दलित जीवन की त्रासदी एवं दलित चेतना को उद्घाटित करता है। इस उपन्यास का आरंभ एक प्रकार से दलितों का सवर्णों पर निर्भरता से होता है। इस उपन्यास में भौनराम एवं उसके परिवार के माध्यम से वर्षों से चली आ रही नाच-गाने की परंपरा का चित्रण हुआ है। दलित जाति के शिल्पकार सवर्णों के उत्सवों में नाच-गाकर अपनी आजीविका चलाते दिखाई देते हैंः “डाक बँगले से कुछ हटकर दक्षिण की ओर एक तंबू गड़ा हुआ था। वहाँ सनणा का भौनराम हुड़किया अपने परिवार के साथ ठहरा हुआ था। वह पराश्रयी परिवार भी न जाने कितनी पीढ़ियों से नाच-मुजरे के बल पर ही अपनी आजीविका कमाता आ रहा है। दानसिंह थोकरदार ने भी तो भारी रक़म देकर बेटे के विवाह में उन्हें विशेष रूप से बुलवाया था।”5
इस उपन्यास की दलित आशाराम की पत्नी रधिया सवर्ण विक्रम की कुदृष्टि का शिकार हो जाती है। जब शिल्पकार इसके लिए अदालत में मुक़द्दमा चलाने के लिए तैयार होते हैं, तब सवर्ण विक्रम उन्हें धमकाने लगता हैः “सुण लो ससुरो! तभी वहाँ आकर विक्रम गरज उठा था। उसने क़मीज़ की बाँहें बटोरते हुए उन सबको धमकी दी थी, तुम लोग हाईकोर्ट तक चले जाओ, जीत नहीं पाओगे। हाँ, तुम्हारा तवा-तसल्ला ज़रूर बिक जाएगा।”6 इस प्रकार सवर्णों के भय से दलित वर्ग के द्वारा न्याय की लड़ाई न लड़ पाना समाज में दलितों की दयनीय स्थिति को दर्शाता हैः “शिल्पकारों का वह जातीय उबाल जिस जोश के साथ उठा था, उसी गति से बैठ भी गया उन्हें भय था कि कहीं सांप्रदायिक झगड़ा न हो जाए! ठाकुर लोग कहीं चुन-चुनकर सभी शिल्पकारों को ठिकाने न लगाने लगें।”7
इस उपन्यास में दलितों और सवर्णों के बीच जातिगत भेदभाव को उजागर करने वाले कई अंश हैं। गाँव में एकमात्र पनघट होने के कारण सभी लोग उसी झरने से पानी भरते दिखाई देते हैं, किन्तु सवर्ण दलित वर्ग के लोगों को अपनी पंक्ति में भी शामिल नहीं करते हैं। ऊँच-नीच की भावना के कारण सवर्ण और शिल्पकार अलग-अलग पंक्तियों में खड़े होकर पानी भरते हैं। इस उपन्यास की दलित गोपुली सवर्ण महिलाओं द्वारा अपमानित होती चित्रित हुई हैः “हंसा का कहा गोपुली के कलेजे पर नश्तर-सा लग गया। स्वाधीनता के बाद से सवर्ण लोग इन शिल्पकारों को मज़ाक-मज़ाक में ‘नए बामण’ आदि संज्ञाओं से संबोधित करते हैं। पर्वतीय शिल्पकारों में जब से जातीय चेतना जगी है, वे यों ही सवर्णों के व्यंग्य बाणों के शिकार होते जा रहे हैं।”8
इसके अतिरिक्त इस उपन्यास का दलित हयात भी सवर्णों के अत्याचारों से पीड़ित होता है। इस उपन्यास में दलित जीवन के यथार्थ मर्म व्यक्त हुए हैं। भारतीय समाज में प्राचीन समय से ही दलितों का जीवन अंधकारमय रहा है। उन्हें सवर्णों द्वारा हमेशा शोषित किया जाता रहा है। इस उपन्यास में आंचलिक शिल्पकारों के जीवन के यथार्थ चित्र अंकित हैं। इस उपन्यास में दलित भौनराम, जैंता, हयात, गोपुली आदि निम्न वर्गीय व्यक्तियों की दीन-हीन दशा का एवं दयनीय स्थिति एवं अभावों का यथार्थ चित्रण हुआ है।
शीतांशु भारद्वाज के इस उपन्यास में दलित सरोकारों को व्यक्त करने वाले चित्रों के अलावा दलित चेतना से संबद्ध चित्र भी पर्याप्त हैं। इस उपन्यास की प्रमुख दलित नारी गोपुली सवर्णों की उपेक्षा, अत्याचार, शोषण और अनाचार के प्रति केवल संघर्ष करती है। जब वह अपने पति को छुड़वाने के लिए धर्मदत्त के पास जाती है, तब धर्मदत्त की कुदृष्टि से बचने के लिए वह उस पर प्रहार करती है, जिससे वह एक साहसी एवं प्रबुद्ध दलित स्त्री के रूप में सामने आती हैः “और इससे पूर्व कि वे उसे अपनी अंकशायिनी बना पाते, गोपुली ने सत्वर गति से दरांती से उनकी नाक काट दी। दाएँ हाथ में दरांती थामे हुए वह साक्षात् चंडी-सी लग रही थी।”9 इसके अतिरिक्त गोपुली कई स्थानों पर अपनी सजग चेतना का परिचय देती है। वह वर्षों से चली आ रही नाच-मुजरे की परंपरा का विरोध करती है। सास के मनाने पर भी वह नहीं मानती है और बयाना लौटा देती हैः “बयाने का क्या होगा बहू?” आँगन में खड़े भौनराम ने वहीं से पूछा।
“पच्चीस रुपल्ली में उन्होंने हमें ख़रीद तो नहीं लिया है न?” गोपुली ने तल्ख़ स्वर में कहा। उसने अंगिया की जेब से दस-दस के तीन नोट निकालकर पति को थमा दिए, अभी जाके उनका बयाना लौटा आओ।”10 इसी चेतना के कारण गोपुली इस नाच-मुजरे की पंरपरा को त्यागकर मेहनत-मज़दूरी करने लगती है और अपने परिवार का भरण-पोषण करती है। प्रगतिशील स्त्री होने के कारण ही वह अपने पति और सास-ससुर में भी चेतना जागृत करती है। सास जैंता को भी वह इधर-उधर अनाज माँगने से मना करती है। यही कारण है कि वह प्रबुद्ध एवं चेतना युक्त स्त्री के रूप में दिखाई देती हैः “उस शिल्पकार बस्ती के हुड़किया परिवार में गोपुली क्रांतिकारी परिवर्तन ला रही थी। पति के साथ वह ऊपर सड़क पर दिन भर मज़दूरी करती रहती। इधर, उसी की देखा-देखी भौनराम भी घर के आगे साग-भाजी की नई क्यारियाँ खोदने लगा था। बहू की उस सूझ-बूझ पर वह दंग रह गया।”11
इसी प्रकार इस उपन्यास में दलित शिल्पकारों को अपने साथ होने वाले अत्याचारों के प्रति जागरूक होते दिखाया गया हैः “बाहर आँगन में मुफ़्त का तंबाकू फूँकने वाले लोगों में जातीय दर्प उबाल खा रहा था। सबसे अधिक वहाँ अनोपराम ही उछल रहा था। वह कह रहा था कि शिल्पकारों पर होते जा रहे इन अत्याचारों की बात वह गाँव-पंचायत से लेकर ऊपर विधान-सभा लखनऊ तक पहुँचाएगा।”12
इसके अतिरिक्त इस उपन्यास में सरकार द्वारा दलितों के उत्थान के लिए किए गए प्रयासों को भी दिखाया गया है। सरकार द्वारा इन भूमिहीन शिल्पकारों को तराई में ज़मीन प्रदान किया जाना एक प्रकार से दलितों का जीवन स्तर उठाने के लिए सरकार द्वारा किया गया प्रयास है। इस उपन्यास की गोपुली सरकार की इस नीति से लाभान्वित होकर तराई में अपनी ज़मीन आबाद करती है और सुख-चैन से अपना जीवन यापन करती हैः “चंदर के साथ भौनराम नीचे तपड़ पर आया तो आस-पास के लहलहाते हुए खेतों को देखकर वह आश्चर्यचकित रह गया। ऐसे सुनहरे दिनों को देखने की तो उसने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी।”13
शीतांशु भारद्वाज के ‘मोड़ काटती नदी’ उपन्यास में आदिवासी दलित वर्ग की आर्थिक स्थिति के अंश दिखाई देते हैं। ‘नुमाइंदे’ उपन्यास में भी कुछ अंश दलितों के शोषण के चित्रित हुए हैं। इस उपन्यास में बिहार के एक पिछड़े हुए क्षेत्र के दलितों के शोषण का उल्लेख हुआ हैः “जगदरिया गाँव के ठाकुर रामलखन सिंह ने तो जातीय दर्प में आकर वहाँ के हरिजन टोले को भस्मीभूत ही कर डाला था।”14 इस उपन्यास में इन दलितों को ठाकुरों द्वारा प्रताड़ित दिखाया गया है। ये दलित ठाकुरों को मुफ़्त में बेगार देने के लिए मना करते हैं, तो इन्हें इनके अत्याचारों का सामना करना पड़ता हैः “यहाँ के एक पढ़े-लिखे नौजवान ने बस्ती वालों को बेगार ढोने से रोका था। फिर क्या था! ठाकुर के अंदर ज़ोर की मरोड़ उठी थी। पहले वाले ने बताया।
और फिर तो इन बेचारों के ऊपर अनेक प्रकार के ज़ुल्म ढाए जाने लगे। अनेक प्रकार की साज़िशें रची जाने लगीं। एक दिन ठाकुर लठैतों ने आधी रात को सारी झोपड़ियों पर मिट्टी का तेल छिड़ककर उसे दियासलाई दिखला दी थी . . .”15
इस प्रकार स्पष्ट है कि उपन्यासकार शीतांशु भारद्वाज के उपन्यासों में दलितों के संघर्ष का यथार्थ चित्रण हुआ है। यद्यपि इनके ‘दो बीघा ज़मीन’ उपन्यास के अलावा अन्य उपन्यासों में पर्वतीय शिल्पकारों, दलितों का उल्लेख नहीं मिलता है; फिर भी इनका ‘दो बीघा ज़मीन’ उपन्यास दलितों की कथा-व्यथा को व्यापकता से उद्घाटित करने में सक्षम है।
संदर्भ:
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दलित साहित्य अनुसंधान के आयाम, डॉ. मौहम्मद अबीर उद्दीन, अंकित पब्लिकेशंस, दिल्ली, 2011, पृ. 7
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दलित चेतना और भारतीय समाज, पृ. 14
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वही, पृ. 17
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दलित साहित्य अनुसंधान के आयाम, पृ. 8
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दो बीघा ज़मीन, शीतांशु भारद्वाज, दिनमान प्रकाशन, नई दिल्ली, 1982, पृ. 2
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वही, पृ. 14
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वही, पृ. 14
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वही, पृ. 16
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वही, पृ. 23
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वही, पृ. 97
-
वही, पृ. 101
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वही, पृ. 91
-
वही, पृ. 127
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नुमाइंदे, शीतांशु भारद्वाज, सचिन प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996, पृ. 73
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वही, पृ. 73
—डॉ. बंदना चंद,
असि. प्रोफ़ेसर,
हिंदी विभाग,
स्वामी विवेकानंद राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, लोहाघाट
जिलाः चंपावत (उत्तराखंड)।
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