कुमाउनी लोकगीतों में रस संबंधी विशेषताएँ
आलेख | साहित्यिक आलेख डॉ. बंदना चंद1 Jun 2023 (अंक: 230, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
लोकभाषा अथवा बोली में लोक-हृदय से प्रकृत, सहज और स्वाभाविक रूप से प्रस्फुटित भावमय मौखिक और गेय उद्गार की लोकगीत हैं।1 कुमाउनी के लोकगीत यहाँ के लोकमानस की अभिव्यक्ति के प्रमुख साधन हैं। कुमाउनी लोकगीतों को प्रो. केशदवदत्त रुवाली ने चार भागों में बाँटा है—मुक्तक गीत, संस्कार गीत, ऋतु गीत, कृषि गीत।
मुक्तक गीतों की रचना किसी भी स्थान एवं समय पर सम्भव हो सकती है। इन मुक्तक गीतों में नृत्य प्रधान, अनुभूति प्रधान और तर्क प्रधान गीत आते हैं। नृत्य प्रधान मुक्तक गीतों में झोड़ा, चांचरी, छपेली का प्रमुख स्थान है।2 अनुभूतिप्रधान मुक्तक गीतों में भगनौल और न्यौली गीत प्रमुख हैं तर्कप्रधान गीत के अंतर्गत बैर प्रमुख हैं।
संस्कार गीत विभिन्न संस्कारों के अवसर पर गाये जाते हैं। इन गीतों को फाग कहते हैं। ऋतुगीत स्मृति संबंधी गीत होते हैं। इन गीतों को भिटौली के समय गाया जाता है। कृषि गीत कुमाऊँ में कृषि कार्य के समय गाये जाते हैं। ये गीत हुड़किबोल कहे जाते हैं। कुमाउनी लोकगीतों की भाषिक दृष्टि से अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं।
रस संबंधी विशेषताएँ—किसी भी काव्य को पढ़ते या सुनते समय जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे ही रस कहा जाता है। कुमाउनी लोकगीतों में रस की प्रधानता है। इन गीतों में शृंगार रस, करुण रस, भक्ति रस, हास्य रस आदि पाये जाते हैं। शृंगार के दोनों पक्षों संयोग शृंगार और वियोग शृंगार की प्रधानता इन गीतों में दिखाई देती है।
1. शृंगार रस:
कुमाउनी लोकगीतों में शृंगार रस प्रमुख रूप से दिखाई देता है। संयोग और वियोग दोनों ही रसों का चित्रण इन गीतों में है। ‘न्यौली’ का प्रमुख प्रतिपाघ शृंगार है। शृंगार में विप्रलंभ का हृदयग्राही और प्रभावाभिव्यंजक वर्णन इनमें मिलता है। संयोग में प्रियमिलन की आकुलता और छेड़-छाड़, हास-परिहास, उपालंभ और वियोग में प्रोषितपतिका की अतल-स्पर्शी पीड़ा इनमें विद्यमान है।”3 वियोग की मार्मिक स्थिति का वर्णन न्यौली गीत में पाया जाता है:
“ऊँचा धुरा सुको डाणू, पानि की तुड़ुक।
अगास बादल रिट्या, र्वे ऊँछी धुडुक।”4
अर्थात् विरहिणी का प्रिय जब परदेश में होता है तब ऐसे में आकाश में उमड़ते बादलों को देख वह और दुःखी हो जाती है।
न्यौली गीत की तरह ही जोड़ गीतों में भी संयोग और वियोग शृंगार का अत्यंत मनोहारी वर्णन मिलता है। संयोग की अवस्था में प्रिय अपनी प्रिया को जिस पर्वत पर देखता है। वह संपूर्ण वातावरण ही उसे रसमय लगता है:
“घा काटो ओसिलो
जै धुरा छू मेरि सुवा, ऊ धूरो रसिलो।”5
चांचरी, झोड़ा, छपेली, बैर और फाग गीतों में भी शृंगार का दोनों पक्षों का चित्रण मिलता है। छपेली गीत में प्रेम और शृंगार की प्रमुखता होती है। वियोग शृंगार का वर्णन इस प्रकार है:
“अल्कि अल्की धुरी, कफुवा बासलो।
जन झुरो-न्यौली, उदास लागलो।”6
2. भक्ति रस:
कुमाउनी लोक गीतों में भक्ति रस से परिपूर्ण गीतों का चित्रण है। चांचरी गीत, छपेली, झोड़ा, बैर, फाग गीतों में भक्तिपरक गीत मिलते हैं। चांचरी गीतों का प्रारंभ ईश्वर की स्तुति से होता है। झोड़ा गीतों में देवी-देवताओं के प्रति विनय, भक्ति, पूजा का भाव पाया जाता है:
“(ओहो) गोरि गंगा भागरथी को क्या भलो रेवाड़
“(ओहो) खोल दे माता खोल भवानी, धरम केवाड़7
इसी प्रकार फाग गीत विभिन्न मांगलिक अवसरों पर गाये जाते हैं। इन शगुन गीतों में विभिन्न देवी-देवताओं की वंदना की जाती है:
“दैना होया दैना होया, धोऊ रे पितर,
दैना होया, द्योऊ रे पितर।
दैना होया दैना होया, पंच रे देपतौ,
दैना होया पंच रे देपतौ।”8
इन रसों के अतिरिक्त कुमाउनी गीतों में करुण रस, हास्य रस आदि का भी चित्रण हुआ है। शृंगार रस की प्रधानता है। चांचरी, छपेली, झोड़ा, बैर, फाग गीतों में भक्ति रस भी दिखाई देता है।
संदर्भ-
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कुमाउनी भाषा और संस्कृति: प्रो. केशवदत्त रुवाली, श्री अल्मोड़ा बुक डिपो, अल्मोड़ा, 1994, पृ. 34
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कुमाउनी लोक साहित्य एवं कुमाउनी साहित्य, डॉ. देवसिंह पोखरिया, श्री अल्मोड़ा बुक डिपो, 1994, पृ. 13
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कुमाउनी लोक साहित्य, सं. डॉ. देवसिंह पोखरिया एवं डॉ. डी.डी. तिवारी, नंदा प्रकाशन, नैनीताल, 1992, पृ. 2
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वही, पृ. 2
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वही, पृ. 4
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वही, पृ. 47
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वही, पृ. 43
-
वही, पृ. 54
—बंदना चंद,
सहा. प्राध्यापक,
स्वामी विवेकानंद राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
लोहाघाट (उत्तराखंड)।
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