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श्राद्ध

 

“हेलो पण्डित जी प्रणाम! . . . मैं श्यामलाल जी का बेटा प्रकाश बोल रहा हूँ।

“आयुष्मान भव बेटा! . . . कहो कैसे याद किया आज सुबह-सुबह।”

“जी पण्डित दरअसल बात ये है कि हमारे पिताजी का स्वर्गवास हुए एक साल हो गया है और उनका श्राद्ध का कार्यक्रम हम धूमधाम से मना रहे हैं जिसमें मैंने नाते-रिश्तेदारों के अलावा ग्यारह ब्राह्मणों को भोजन कराने की सोच रखी है इसलिए आप भी ज़रूर आइएगा।”

“ठीक है बेटा हम ज़रूर आएँगे,” कहकर पण्डित जी ने हामी भरी फिर प्रकाश ने फोन रखा और तैयारियों का जायज़ा लेने चला गया। 

इधर उनकी बातें सुन रहा प्रकाश का एक बुज़ुर्ग रिश्तेदार अपनी पत्नी से प्रकाश की तारीफ़ करते हुए बोला,  “देख रही हो भाग्यवान कितना नेक लड़का है अपने पिताजी के लिए इसके मन में कितना स्नेह है उनका श्राद्ध करने के लिए कितने जतन कर रहा है, ईश्वर ऐसा बेटा सभी को दे।” 

इस पर प्रकाश का एक पड़ोसी जो वहीं खड़ा था उसने उन्हें टोकते हुए कहा, “ऐसा बेटा ईश्वर किसी को न दे कहिए महोदय! जब ये छोटा था इसके माँ-बाप ने इसे पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाने के लिए जी-तोड़ मेहनत करने में ही अपनी ज़िन्दगी गुज़ार दी और जब यह उनका सहारा बनने के क़ाबिल हुआ तो उन्हें अपने हाल पर छोड़कर, शहर में नौकरी करने चला गया। फिर कभी इसके पास इतनी भी फ़ुरसत नहीं थी कि अपने माँ बाप की खोज ख़बर ले सके। 

“जब इसकी माँ का देहान्त हुआ था तब हमने ही इसे फोन करके बुलाया था और अपनी व्यस्तता का हवाला देकर शोक कार्यक्रम फटाफट निपटा के यह फिर वापस शहर चला गया, अपने पिता को यहाँ चार दीवारों के बीच अकेला छोड़कर और इसी अकेलेपन में कुछ समय बाद वो भी चल बसे। तब भी ये बड़ी जल्दबाज़ी में उनका अंतिम संस्कार करने के बाद शहर की दौड़ पड़ा था। 

“आज अपने पिताजी के निधन को एक बरस पूरे होने पर बड़ा श्रवण कुमार बना यहाँ उनका श्राद्ध मनाने आया है और दिखावा देखिए श्राद्ध को भी किसी कार्यक्रम की तरह धूमधाम से मनाने की बात कह रहा है बेशर्म, ऐसा बेटा ईश्वर किसी को न दे . . .” 

यह कहकर वो पड़ोसी दाँत पीसता हुआ अपने घर में चला गया और वो बुज़ुर्ग भी उसे जाता हुआ देखकर ये सोचते शांत खड़े थे कि काश वो प्रकाश की तारीफ़ में कहे अपने शब्द वापस ले सकते। 

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