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श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ एवं माहात्म्य 

 

“श्रीदुर्गासप्तशती” ग्रंथ का भारतीय हिंदू परंपरा में प्राचीन काल से ही बहुत अधिक महत्त्व रहा है। शारदीय (आश्विन-अक्तूबर) और वसंत नवरात्र (चैत्र-मार्च-अप्रैल) के समय बहुत सारे लोग उपवास करते हैं तथा नौ देवियों, (शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्री, महागौरी, सिद्धिदात्री माता) के दर्शन भी करते हैं। जब हम दुर्गा जी के मंदिर में जाते हैं तब दर्शन करते समय कामना पूर्ति के लिए/मनोवांछित फल पाने के लिए निम्नलिखित श्लोकों का उच्चारण करते हैं: 

“सर्वमंगलमंगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। 
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणी नमोऽस्तुते॥” 

(नारायणी! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी हो। कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रोंवाली एवं गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है।) 

“सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोकस्याखिलेश्वरी। 
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥” 

(सर्वेश्वरी! तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शांत करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो।) 

कम लोग जानते हैं कि इन मंत्रों का अर्थ क्या है पर सबको पता है कि ये मंत्र हमारे कल्याण के लिए हैं तथा इसका उच्चारण करने से देवी माँ प्रसन्न होगी और हमारा कल्याण होगा। ये दोनों श्लोक “श्रीदुर्गासप्तशती” नामक ग्रंथ के ग्यारहवें अध्याय से लिए गए हैं और आज स्थिति यह है कि हर छोटे-बड़े मांगलिक अवसरों पर, यहाँ तक कि विवाह आदि शुभ अवसरों पर भी इन श्लोकों का उच्चारण किया जाने लगा है। परन्तु कम लोग इन सभी के पीछे सारतत्त्व के रूप में उपस्थित “श्रीदुर्गासप्तशती” नामक महान ग्रंथ के स्वरूप, कथा एवं माहात्म्य से परिचित हैं। यह ग्रंथ हिंदू धर्म का सर्वमान्य ग्रंथ है इसमें भगवती की कृपा के सुंदर इतिहास के साथ ही, बड़े-बड़े गूढ़ साधन रहस्य भी भरे हुए हैं। कर्म, भक्ति और ज्ञान की त्रिविध मंदाकिनी बहानेवाला यह ग्रंथ भक्तों के लिए वांछाकल्पतरु हैं। इसे ही ध्यान में रखते हुए इस लेख में “श्रीदुर्गासप्तशती” ग्रंथ के बारे में, उसके श्लोकों के पाठ की विधि तथा माहात्म्य के बारे में संक्षिप्त चर्चा की गई है।

 “श्रीदुर्गासप्तशती” का सामान्य अर्थ है, दुर्गा माँ के माहात्म्य से जुड़े सात सौ श्लोकों वाली पोथी। यदि “दुर्गा” शब्द में निहित अक्षरों का विश्लेषण करें तो कुल पाँच अक्षर मिलेंगे, द्+उ+र्+ग्+ आ= दुर्गा। इन पाँचों अक्षरों के अलग-अलग अर्थ हैं, यथा, ‘द्’ अर्थात् दैत्य, दुखनाशक, ‘उ’ अर्थात् विघ्ननाशक, ‘र्’ अर्थात् रोगनाशक, ‘ग्’ अर्थात् पाप (अघ) नाशक, ‘आ’ अर्थात् इन सभी का नाशक। जिस पराशक्ति तक हमारी कल्पना या बुद्धि की पहुँच नहीं है, उसी परम तत्त्व को दुर्गा कहते हैं। इस ग्रंथ की प्रसिद्धि इतनी है कि इसका पारायण 52 शक्तिपीठों में से सभी में किया जाता है। पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण में स्थित देवी के भिन्न-भिन्न नामों वाले मंदिरों में इसी ग्रंथ का पाठ होता है। कोलकाता (बंगाल) का पवित्र काली मंदिर, गुवाहाटी (असम) में स्थित सिद्धपीठ कामरूप कामाख्या मंदिर, शृंगेरी (कर्नाटक) में स्थित श्री शारदांबा मंदिर, मदुरै मीनाक्षी (तमिलनाडु), कोल्लूर मुकांबिका (कर्नाटक), काशी विशालाक्षी (वाराणसी) आदि जैसे सुप्रसिद्ध देवी मंदिरों के अलावे देश के छोटे-बड़े लाखों देवी मंदिरों में स्तुति के लिए जिन मंत्रों का उच्चारण किया जाता है, वे सभी इसी ग्रंथ से लिए गए हैं। आज “श्रीदुर्गासप्तशती” ग्रंथ का लिप्यंतरण भारत की सभी प्रमुख लिपियों में उपलब्ध है और अलग-अलग प्रदेशों के लोग अपनी-अपनी लिपियों के माध्यम से इस ग्रंथ का पाठ करते हैं। इन पंक्तियों के लेखक ने उडुपि (कर्नाटक) के कडियाली नामक स्थान पर स्थित “श्रीमहिषमर्दिनी दुर्गापरमेश्वरी” मंदिर में “श्री दुर्गा सप्तशती ग्रंथ” को देखा पर कन्नड़ लिपि में होने के कारण कुछ भी समझ में नहीं आया परन्तु जब वहाँ के पंडित जी ने पारायण शुरू किया तो ठीक वैसा ही था जैसा कि हम देवनागरी लिपि में लिखित ग्रंथ का संस्कृत में उच्चारण करते हैं। इन शक्ति पीठों के अतिरिक्त अन्य देवी मंदिरों में भी स्तुतियाँ इसी ग्रंथ के श्लोकों से की जाती हैं। देवी मंदिरों में दी जाने वाली बलि के समय भी जो स्तुतियाँ मंत्र आदि उच्चरित किए जाते हैं, वे भी इसी ग्रंथ के होते हैं। यहाँ तक कि अन्य स्थानों पर भी चढ़ाई जाने वाली बलि के समय उच्चरित मंत्र भी इसी ग्रंथ के होते हैं। आजकल रोगों की शान्ति के लिए तथा समस्त बाधाओं को दूर करने के लिए क्रमश: निम्नलिखित श्लोकों का उच्चारण किया जाता है: 

“दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि। 
दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या 
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता॥”

(माँ दुर्गे! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषों द्वारा चिंतन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दुःख, दरिद्रता और भय हरने वाली देवि! आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित्त सबका उपकार करने के लिए सदा ही दयार्द्र रहता हो) 

“रोगानशेषानपहंसि तुष्टा
रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान। 
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥”

(देवि! तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो। जो लोग तुम्हारी शरण में आ चुके हैं, उनपर विपत्ति तो आती ही नहीं। तुम्हारी शरण में गए हुए मनुष्य दूसरों को शरण देने वाले हो जाते हैं।) 

इनके अतिरिक्त, महामारी नाश के लिए निम्नलिखित श्लोक का उच्चारण किया जाता है। कोरोना काल में यह श्लोक और भी प्रसिद्ध हो गया:

“जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी। 
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते।” 

(जयंती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा, और स्वधा—इन नामों से प्रसिद्ध जगदंबिके! तुम्हें मेरा नमस्कार है)। 

विपत्ति-नाश के लिए निम्नलिखित श्लोक का पारायण भी ख़ूब हुआ:

“शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे। 
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणी नमोऽस्तु ते।” 

(शरण में आये हुए दीनों एवं पीड़ितों की रक्षा में संलग्न रहने वाली तथा सबकी पीड़ा दूर करने वाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है) 

ये दोनों श्लोक भी “श्रीदुर्गासप्तशती” ग्रंथ से ही लिए गए हैं। आजकल श्री सत्यनारायण कथा के बाद स्वस्तिवाचन के समय पंडित लोग इसी ग्रंथ के कई मांगलिक श्लोकों का उच्चारण करते हैं। 

इस ग्रंथ में कुल तेरह अध्याय तथा सात सौ श्लोक हैं, जिन्हें मोटे तौर पर तीन चरित्रों यथा, प्रथम, मध्यम और उत्तम चरित्र के रूप में विभक्त किया गया है। प्रथम चरित्र माँ काली को, मध्यम चरित्र माँ लक्ष्मी को और उत्तम चरित्र माँ सरस्वती को समर्पित है। चरित्रों के आधार पर अध्यायों का भी विभाजन है, जैसे प्रथम चरित्र के अंतर्गत पहला अध्याय, मध्यम चरित्र के अंतर्गत दूसरा, तीसरा एवं चौथा अध्याय और उत्तम चरित्र के अंतर्गत पाँचवाँ, छठा, सातवाँ, आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ, ग्यारहवाँ, बारहवाँ तथा तेरहवाँ अध्याय आते हैं। 

पाठ विधि: 

इन पंक्तियों के लेखक ने काशी में देखा है कि कई लोग संपूर्ण “श्रीदुर्गासप्तशती” का पारायण प्रतिदिन करते हैं। ऐसी सूचना प्रचारित की गई है कि वर्तमान में उत्तर प्रदेश राज्य के माननीय मुख्यमंत्री श्रीमान योगीराज जी, प्रतिदिन संपूर्ण दुर्गा पाठ करते हैं। भूतपूर्व रेलमंत्री एवं कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता श्री कमलापति त्रिपाठी जी नियमित रूप से प्रतिदिन संपूर्ण पाठ करते थे। कई लोग अर्धरात्रि की बेला में ही इस ग्रंथ का पारायण करते हैं। फिर भी, इस ग्रंथ में इस बात का विधान है कि जिन लोगों से एक दिन में पूरा पाठ न हो सके, वे एक, दो, एक, चार, दो, एक और दो अध्यायों के क्रम से सात दिनों में पाठ पूरा कर सकते हैं।  “श्रीदुर्गासप्तशती” के पाठ का प्रारंभ पहले कवच रूप बीज का (कवच का अर्थ शरीर के हर अंग की रक्षा से है) फिर अर्गला रूपा शक्ति का (अर्गला का एक अर्थ दरवाज़ा भी है) तथा अंत में कीलक (कीलक का अर्थ दरवाज़ा बंद करने का कील है) का किया जाना चाहिए। तेरह अध्यायों का पाठ पूर्ण कर लेने के बाद देवी सूक्तम्, प्राधानिक रहस्यम्, वैकृतिकं रहस्यम्, तथा मूर्तिरहस्यम् का पाठ करने का भी विधान है। कालरात्रि, महारात्रि, मोहरात्रि की अर्धरात्रियों में इस ग्रंथ के पारायण का अतिविशिष्ट महत्त्व है। 

“श्रीदुर्गा सप्तशती” ग्रंथ के हर अध्याय की कथावस्तु संक्षेप में निम्नलिखित है:

1. प्रथम अध्याय: मेधा ऋषि का राजा सुरथ और समाधि को भगवती की महिमा बताते हुए मधु-कैटभ वध का प्रसंग सुनाया गया है। इसमें मेधा, सुरथ, समाधि का विवेचन भी है।

2. द्वितीय अध्याय: प्राचीन काल में महिष नामक बलवान असुर इन्द्र, सूर्य यम, अग्नि, वायु आदि देवताओं को हटाकर स्वयं इन्द्र बन गया। देवता ब्रह्मा को लेकर विष्णु और शिव के पास गए। देवताओं का दुख सुनकर विष्णु और शिव के मुख से क्रोध के कारण महान तेज निकला। साथ ही देवताओं के शरीर से भी तेज निकला। तेजों का वह समूह देवी के रूप में प्रकट हुआ। ब्रह्मा, विष्णु शिव—इन त्रिदेवों और अन्य सभी देवताओं ने अपने-अपने अस्त्रों-शस्त्रों को देवी को अर्पित किए। देवी ने प्रचंड अट्टहास किया। यह सुनकर महिषासुर विशाल सेना लेकर देवी को मारने के लिए दौड़ा। भीषण संग्राम में बहुत सारे असुर मारे गए।

3. तृतीय अध्याय: देवी ने इन चौदह असुर सेनानियों का वध किया, चिक्षुर, चामर, उदग्र, कराल, वाष्कल, ताम्र, अंधक, अतिलोम, उग्रास्य, उग्रवीर्य, महाहनु, विडालास्य, महासुर, दुर्मुखतथा दुर्धर। (इनमें चिक्षुर प्रधान तथा अन्य चौदह)। अंत में महिषासुर का भी देवी ने महिष तथा मनुष्य रूप में वध किया।

4. चतुर्थ अध्याय: महिषासुर का वध होने के बाद इन्द्रादि देवताओं ने देवी की स्तुति की और यह वर माँगा कि जब कभी हमारे ऊपर विपत्ति आए, उसका आप नाश करें। जो मनुष्य इन स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करे, उसे वित्त, समृद्धि और वैभव देने के साथ ही उसकी धन और स्त्री आदि सम्पत्ति को भी बढ़ाने के लिए आप सदा हम पर प्रसन्न रहें। तब देवी माँ ने तथास्तु कहा और वहीं अंतर्ध्यान हो गई।

5. पंचम अध्याय: देवताओं द्वारा देवी की स्तुति, चंड-मुंड के मुख से अंबिका के रूप की प्रशंसा सुनकर दैत्यराज शुंभ का उनके पास प्रणय का संदेश लेकर दूत भेजना और दूत का निराश होकर लौटना।

6. षष्ठ अध्याय: दैत्य सेनापति धूम्रलोचन का वध देवी ने हुंकार से ही कर दिया। देवी के वाहन सिंह ने बाक़ी असुर सेना को मार डाला।

7. सप्तम अध्याय: दैत्य राज ने बहुत बड़ी सेना के साथ चंड और मुंड नामक दैत्यों को भेजा। देवी ने उनका वध कर दिया।

8. अष्टम अध्याय: देव शक्तियों द्वारा दैत्य सेना का नाश होने पर महा असुर रक्तबीज आगे बढ़ा। उसके शरीर से जितने रक्त बिंदु ज़मीन पर गिरते थे, उतने ही रक्तबीज उत्पन्न होते थे। देवी का आदेश पाकर चामुंडा ने अपना मुँह फैलाया। रक्तबीज के शरीर से जितना रक्त निकला उसे तथा असुरों को खाना आरंभ किया। उसके बाद दुर्गा देवी ने रक्तबीज का वध कर दिया।

9. नवम अध्याय: उसके बाद निशुंभ दैत्य भी देवी के साथ युद्ध कर मारा गया।

10. दशम अध्याय: दैत्य शुंभ ने देवी पर आरोप लगाया कि तुम दूसरों का आश्रय लेकर इतना अभिमान क्यों करती हो? देवी ने कहा—संसार में मेरे सिवा और कोई नहीं है। सभी शक्तियाँ मुझसे ही निकली थीं, पुनः वे सब मुझमें ही समा गईं। एक रूप होकर देवी ने दैत्यराज शुंभ का वध कर दिया।

11. एकादश अध्याय: देवताओं द्वारा 34 श्लोकों में देवी की स्तुति की गई तथा देवी द्वारा देवताओं को वर प्रदान किया गया।

12. द्वादश अध्याय: दुर्गा चरित्र के पाठ का माहात्म्य कहकर देवी अंतर्धान हो गई।

13. त्रयोदश अध्याय: राजा सुरथ और समाधि वैश्य ने देवी की पूजा की। देवी ने उनको दर्शन तथा वर प्रदान किया। समाधि को मोक्ष के लिए ज्ञान तथा सुरथ को राज्य दिया तथा कहा कि आगामी आठवें सावर्णि मन्वन्तर में सुरथ का मनु के रूप में जन्म होगा।

“श्री दुर्गासप्तशती” का पाठ प्रारंभ करने से पहले और बाद में “ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” नामक मंत्र का जप कर लेना चाहिए। यह एक शक्तिशाली बीज मंत्र है। 

इस ग्रंथ में पराशक्ति के तीनों रूपों—महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती के आयुध वर्णन तथा पूजा की विधि दी गई है। कुछ विद्वानों का मानना है कि “श्रीदुर्गासप्तशती” एक तांत्रिक ग्रंथ भी है। इस ग्रंथ के “तंत्रोक्तं रात्रिसूक्तम” तथा “श्रीदेव्यथर्वशीर्षम्” में इसका उल्लेख मिलता है। “श्री देव्यथर्वशीर्षम्” का यह श्लोक एक तांत्रिक मंत्र है: 

“वाड़्गमाया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम्। 
सूर्योऽवामश्रोत्रबिंदुसंयुक्तष्टात्तृतीयक:। 
नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्चाधरयुक् तत:। 
विच्चे नवार्णकोऽर्ण: स्यान्महदानंददायक:।” 

वाणी (ऐं), माया (ह्रीं), ब्रह्मसू-काम (क्लीं), इसके आगे छठा व्यंजन अर्थात् च, वही वक्त्र अर्थात् आकार से युक्त (चा), सूर्य (म), ‘अवामश्रोत्र’—दक्षिण कर्ण (उ) और बिंदु अर्थात् अनुस्वार से युक्त (मुं), टकार से तीसरा ड, वही नारायण अर्थात् ‘आ’ से मिश्र (डा), वायु (य), वही अधर अर्थात् ‘ऐ’ से युक्त (यै) और ‘विच्चे’ यह नवार्णमंत्र उपासकों को आनंद और ब्रह्मसायुज्य देनेवाला है। {इस मंत्र का अर्थ—हे चित्स्वरूपिणी महासरस्वती! हे सद्रूपिणी महालक्ष्मी! हे आनंदरूपिणी महाकाली! ब्रह्मविद्या पाने के लिए हम सब समय तुम्हारा ध्यान करते हैं। हे महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती स्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हें नमस्कार है। अविद्यारूपी रज्जु की दृढ़ ग्रन्थि को खोलकर मुझे मुक्त करो।} इस तरह के कई तांत्रिक मंत्र हैं, जो इस बात के प्रमाण है कि यह ग्रंथ तांत्रिक साधना का भी एक उत्कृष्ट ग्रंथ है। (इस लेख की मर्यादा एवं सीमा को देखते हुए यहाँ विशिष्ट तांत्रिक विवेचन करना समीचीन नहीं है)। 

संक्षेप में, जो साधक ध्यानपूर्वक एकनिष्ठ होकर इस पवित्र ग्रंथ का पारायण करते हैं, उनके पास भरपूर धन-धान्य आता है, दरिद्रता एवं रोग-शोक दूर हो जाते हैं और अंत में उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है।

“श्रीदुर्गासप्तशती” के मंत्रों के उच्चारण से पित्र दोष, वास्तु दोष, नवग्रह दोष, भय, घृणा, दुख आदि सभी दूर हो जाते हैं। 
 

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