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तुम . . . 

नवपुष्प के खिलने की, 
आस में प्रतीक्षारत सदा, 
मैं पतझर के ख़ाली ठूँठ सी, 
तुम ऋतुराज वसंत हो! 
 
भावों के मंजुल छलावे में फँस, 
चेतना माँगती मैं प्रतिपल, 
भाव-शून्य हुई शन्त सी, 
और . . . तुम . . . जीवन्त हो! 
 
निष्प्राण सी होकर के अब, 
नित खोजती नव-ऊर्जा, 
हुई हूँ कांतिहीन मैं, 
तुम कलित अत्यंत हो! 
 
स्थिर हो जाने को कुछ क्षण, 
दौड़ रहा ये मन मेरा, 
व्यग्र हो मैं छटपटाती, 
तुम श्रांत हो, निश्चिंत हो! 
 
तमिस्रा से भयाक्रांत हो, 
एक ज्योतिपुंज की चाह में, 
भटक रही मैं इधर-उधर, 
तुम अंशु से द्युतिमंत हो! 
 
“मैं अधिक, तुमसे अधिक“ की, 
प्रतिस्पर्धा नहीं मेरे प्रेम में, 
मैं शून्य जैसी हूँ नगण्य, 
तुम शून्य ही से अनन्त हो! 
 
ये “सांझ“ हुई है तिमिरांकित . . ., 
दुर्ग्राह्यतापूर्ण रात्रि . . . की छाँव में, 
आशा भरे याम की इक नवभोर से, 
इस अहर्निश के . . . तुम . . . आद्यंत हो!! 

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