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वह नहीं बदली

'साक्षी' यह कोई इतिहास की गवाही नहीं एक जीती जाती युवती है, हाँ युवती है जो एक स्वतंत्र परिवार में पली, क्रांतिकारी विचारों से लैस युवती है। साक्षी के पिता एक बैंक कर्मचारी तथा माँ शिक्षिका है। ऐसे अच्छे शिक्षित और संपन्न माहौल में जन्मी तथा पालन-पोषण हुआ, ऐसे में उसमें यदि विरोधी प्रवृत्तियों ने, लीक पर ना चलने की भावनाओं ने जगह बना ली तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। इन्हीं विचारों में पुरानी ऊन उधेड़ रही हूँ आज, क्यों? क्योंकि वर्षों बाद आज वही साक्षी आने वाली है, मेरी प्रिय सहेली हाँ! प्रिय सहेली साक्षी आने वाली है मेरे घर। 

साक्षी मेरी सहेली कम बहन ज़्यादा थी। हम दोनों विचारों में विपरीत पर अंतरंग साथी थीं। आज वर्षों बाद उसे इस क़द्र याद करने का अवसर मिला अन्यथा घर सँभालने में मैं इतना खो गई कि अपने जीवन के ख़ास हिस्से को ही खो दिया। यही तो है एक स्त्री का जीवन है अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु का त्याग ही उसकी नियति है। मुझ में इतना साहस कहाँ, मैं साक्षी नहीं हूँ पर अब लगता है काश मैं भी उस जैसी बन पाती पर विडंबना मेरे नाम में ही है “सीमा” जिसने मुझे इस सीमा में बाँध दिया और ना जाने क्या-क्या उधेड़ रही थी तभी आवाज़ आई, पति पूछ रहे थे, “सीमा क्या सोच रही हो? तुम्हारी प्रिय सहेली ने तार भेजा है और तुम बैठी हो?” 

अचानक तंद्रा टूटी मेरी पुरानी दुनिया में वापसी हो गई, तुरंत उठ खड़ी हुई, “हाँ आप आ गए, वही सोच रही हूँ क्या तैयारियाँ करूँ जो मेरी साक्षी को अच्छा लगे।”

सीमा के पति सुरेश एक बड़े कंपनी में कार्यरत हैं उसे एक पुत्र है, बड़ा घर नौकर-चाकर, वह एकाकी स्वामिनी थी इस अतुल्य साम्राज्य की। आज तक संतुष्ट थी परन्तु ना जाने साक्षी के ज़िक्र ने उसे बेचैन कर दिया। यह स्वामित्व भी उस भाव को खदेड़ ना पाया। सीमा ने पूछा, “कब आ रही है?”

सुरेश का जवाब आया, “कल। आजकल साली साहिबा बनारस में हैं, बीएचयू की प्राचार्या हैं, एक सफल लेखिका हैं और उन्हें अपने समाजसेवी कार्यों और साहित्य में योगदान के लिए सम्मान मिलने जा रहा है इसलिए दिल्ली आ रही हैं।”

मन पुलकित हो उठा जानकर कि साक्षी ने इतना कुछ पा लिया जीवन से फिर एक नज़र स्वयं पर गई और सीमा ठिठक गई। 

सीमा ने मन लगाकर तैयारियाँ कीं; बहुत गर्व के साथ अपने पड़ोसियों और मित्रों को बताया कि “साक्षी सिन्हा” उसकी सहेली है और उसके घर आ रही है। 

रात जैसे-तैसे कटी पुरानी बातें मानो सजीव हो उठीं। सुबह उठी तो जल्दी-जल्दी खाना बनाया जो साक्षी को पसंद था आज भी 10 वर्षों बाद सब याद है; मैं उसे भूली ही कब थी। 

साक्षी आ गई। मैं फूली न समाई तुरंत जाकर उससे लिपट गई। वह भी इतने वर्षों बाद मुझे महसूस करके द्रवित हो उठी। मेरे नैनों से अश्रु धार बह निकली। इतने वर्षों तक हृदय में जमा दर्द आँसू बनकर बह रहा था, क्या पीड़ा थी या ख़ुशी? कुछ समझ में नहीं आता था पर मैं स्वयं को रोक नहीं पा रही थी और अनायास ही साक्षी से लिपट कर क्रंदन करते हुए स्वयं को बोझ से मुक्त होता पा रही थी, तभी सुरेश ने कहा, “दरवाज़े पर ही खड़ा रखोगी मेरी महान साली साहिबा को?” 

मेरी निद्रा टूटी। मैं सपने से मनो जाग गई।

“आओ अंदर आओ।” 

तभी साक्षी की मीठी की ध्वनि सुनाई दी, “नहीं जीजा जी रहने दीजिए। सीमा मुझसे बहुत प्रेम करती है, मेरी बहन है, उसका उद्वेग निकल जाने दीजिए। यह वर्षों से जमा अवसाद है जिसका बह जाना ही उत्तम है।” 

वही बातें, वही विचार, वही ध्वनि की स्थिरता, वह बिल्कुल नहीं बदली। 

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