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उबलता हुआ भात

सड़क पर चलते हुए
किसी फुटपाथ के किनारे
देखा है उबलता हुआ भात? 
उसके साथ और भी बहुत
कुछ उबलता है। 
 
उन तरसती आँखों की
भूख, जो नंगे खड़े हैं
घेरे बिना ढाँचे के
चूल्हे को, 
जिसकी आग की
तपिश बहुत कम है
हो सकता है इनके
आग की गुणवत्ता भी
हमारी आग की गुणवत्ता
से कम है। 
 
अंतर है भूख में भी, 
तीन वक़्त खाने
वाले और तीन दिन
मैं एक बार खाने
वाले के भूख का, 
मिल पाना तो असंभव
ही जान पड़ता है। 
 
इस भात को पकाने वाली
हमारी ही तरह
ममता से भरी माँ
है, जिसकी ममता
भी उबल रही है, 
इस ऊबलती हुई
भात के साथ। 
 
जाने कब वह फिर
उबाल पायेगी, 
कब दाने मिलेंगे
और भरेगा पेट, 
इन पिल्लों का जो
सदा कलेजा खाये रहते हैं—
माँ भूख लगी है। 
 
बर्तन भी एक है
बस उबालने को
भात, गृहस्थी भी
है वह सड़क
का फुटपाथ, 
और निरंतर
ऊबलता रहता
है जहांँ भात। 
 
और भी बहुत कुछ
ऊबलता हैं, 
हम सब जानते
हैं, पर नकारते
हैं, ख़ैर इन्हें
ऊबालने दो भात। 
 
हम, 
कर भी क्या
सकते हैं? यह
इनकी नियति है, 
यही सोचकर
हम आगे बढ़़
जाते हैं, और
भूल जाते हैं
ऊबलती हुई भात। 

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टिप्पणियाँ

ज्योति नागरथ 2022/08/29 01:17 PM

..

अरुण कुमार प्रसाद 2022/08/21 08:10 PM

मार्मिक।

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