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अन्वेषण

मैं निकाल पड़ी हूँ बाहर, 
अपने ही अन्वेषण में, 
पता नहीं क्या मिलेगा, 
अपने भीषण मन-तम में। 

अपनी खोजी प्रवृत्ति की, 
निकली ‌‌ ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌हूँ बुझाने प्यास, 
कुछ न कुछ तो मिलेगा, 
बँधी हुई है आस 
पर क्या जाने कुछ न हो गहन में। 

ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कुछ हुई थकान, 
बंधने लगी सिसकियाँ, 
मुश्किल में है प्राण, 
बिखरे टुकड़े बटोरती ज़ेहन में। 

था कभी अनुरागी यह, 
आज बस मुसाफ़िर बना, 
कोई उम्मीद ना है पाने की, 
इस शिथिल पड़ गए मन में। 

अचानक आहट हुई, 
चित्त के कपाट पर, 
मैंने खोल दिए द्वार
आ जाओ इस एकान्त निर्जन में। 

पर वह भी शायद खोजी हैं, 
पर थक गया मानो उसे, 
जान न सका वह भी, 
क्या मैं इस एकान्त मन में। 

कितना कुछ है पर नहीं है, 
कोई क्यों कुछ जान ना पाए, 
मेरे जीवन का ठौर कहाँ हैं? 
नहीं हैं कोई इस जीवन में। 

सब हैं पर मन अकेला, 
न सपने, न कोई मेला, 
बस शेष कतिपय क्षण
व्यतीत हो जाए क्षण में। 

पाकर कैसे खोते हैं, 
मैंने यह जान लिया, 
इस रहस्यमयी जीवन का, 
गंभीर रहस्य पहचान लिया
फिर क्यों अश्रु बहे कण में। 

अब मेरे अन्वेषण का निष्कर्ष
यही हैं मन अकेला सदा, 
एकाकीपन ही है नियति
फिर न कर विलाप मन में, 
मैं निकल पड़ी हूँ बाहर
अपने ही अन्वेषण में। 

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