वह फूल
कथा साहित्य | लघुकथा इन्दिरा वर्मा15 Aug 2025 (अंक: 282, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
वह फूल . . . मैं रोज़ सवेरे अपने डेक पर जाकर देख लेती हूँ वह फूल, जो मैं हर साल गर्मी आने से पहले लगाती हूँ, कभी खिलते हैं, कभी खिलने से पहले पंखुड़ियाँ मुरझाने सी लगती हैं—मेरे सूने मन की तरह।
कभी मैं उनमें यादों के रंग देख कर बहला लेती हूँ अपने मन को, ‘अरे देख तो, इसी पीले रंग की फ़्रॉक तो बनाई थी ना माँ ने? जिसमें फूल काढ़ दिये थे रंग बिरंगे धागों से मेरे जन्मदिन पर, और मैं पहन इठलाती फिरी थी!’ एक लहर-सी, सिहरन-सी दौड़ कर आ जाती है कहीं दूर से।
वह सिंदूरी बूगनविला इस बार बारिश में बहुत भीग गया, पत्ते गल गये जैसे मथ-सा दिया हो किसी ने। उन्हें पेड़ से अलग तो कर दिया पर जैसे पुरानी चोट हो, दुख जाती है कभी-कभी। अलगाव कहाँ हो पाता है जल्दी! बस प्रयत्न तो करना ही है—जो करती रहती हूँ। समय के साथ शायद हो जाये जिसे अंग्रेज़ी में डिटैचमेंट भी कहा जाता है। क्या, क्यूँ और कैसे होता है पता नहीं पर कहते हैं कि हो जाता है धीरे-धीरे।
हाँ, स्वीटपीज़ लगाये हैं इस बार, बहुत लोग जानते नहीं हैं इन फूलों के विषय में। भारत में सरलता से लग जाते थे। कहते हैं यह फूल अंग्रेज़ों की देन है, तो क्या हुआ? फूलों पर किसी का अधिकार तो है नहीं, प्रकृति तो सबकी है, पर भारत की वह ऋतु ही कुछ और थी, सुगन्धित प्यारी! इसी लिये अब मैं यहाँ भी लगाती हूँ यह फूल, हर वर्ष इन्हीं दिनों, बहुत मेहनत करती हूँ, यदा-कदा दो-चार फूल आ जाते हैं। भीनी-भीनी उनकी सुगन्ध महका देती है मेरा मन; किसी सुन्दर कहानी की भाँति जो इन फूलों में छिपी रहती है।
इस साल भी लगाये हैं और नित्य ही देख लेती हूँ। लगता तो है कि फूल आयेंगे।
स्वीटपीज़ में रंग-बिरंगे फूल आते हैं, गुलाबी, लाल, सफ़ेद और बैंजनी भी। गुलदस्ते में सजे बहुत अच्छे लगते हैं।
कितनी सुंदर देन है यह प्रकृति की हमें। तभी हर अवसर पर फूल देने व भेजने की प्रथा है इस समाज में शायद।
हाँ . . . यदि इतना प्रयास करने के बाद भी यह फूल न लगे तो समझ लूँगी कि मेरे हिस्से में इनका सुख नहीं था।
रही सूनेपन की बात तो किसी कवि ने लिखा है कि अकेले दुखी मन से टहलते हुए उसे एक सुन्दर फूलों का बड़ा सा बग़ीचा दिखा बस फिर क्या था, वह उन फूलों में ऐसा मगन हुआ, अपने समस्त दुःख भूल गया और पता नहीं कितनी कविताओं का जन्म हुआ होगा उसके मन में।
बस मेरे फूल भी पहुँचा देते हैं कहीं और मुझे, कस्तूरी-सी सुगन्ध आसपास ही रहती है, दूर भगाती रहती है मेरा सूनापन!
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