अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

वह फूल

 

वह फूल . . . मैं रोज़ सवेरे अपने डेक पर जाकर देख लेती हूँ वह फूल, जो मैं हर साल गर्मी आने से पहले लगाती हूँ, कभी खिलते हैं, कभी खिलने से पहले पंखुड़ियाँ मुरझाने सी लगती हैं—मेरे सूने मन की तरह। 

कभी मैं उनमें यादों के रंग देख कर बहला लेती हूँ अपने मन को, ‘अरे देख तो, इसी पीले रंग की फ़्रॉक तो बनाई थी ना माँ ने? जिसमें फूल काढ़ दिये थे रंग बिरंगे धागों से मेरे जन्मदिन पर, और मैं पहन इठलाती फिरी थी!’ एक लहर-सी, सिहरन-सी दौड़ कर आ जाती है कहीं दूर से। 

वह सिंदूरी बूगनविला इस बार बारिश में बहुत भीग गया, पत्ते गल गये जैसे मथ-सा दिया हो किसी ने। उन्हें पेड़ से अलग तो कर दिया पर जैसे पुरानी चोट हो, दुख जाती है कभी-कभी। अलगाव कहाँ हो पाता है जल्दी! बस प्रयत्न तो करना ही है—जो करती रहती हूँ। समय के साथ शायद हो जाये जिसे अंग्रेज़ी में डिटैचमेंट भी कहा जाता है। क्या, क्यूँ और कैसे होता है पता नहीं पर कहते हैं कि हो जाता है धीरे-धीरे। 

हाँ, स्वीटपीज़ लगाये हैं इस बार, बहुत लोग जानते नहीं हैं इन फूलों के विषय में। भारत में सरलता से लग जाते थे। कहते हैं यह फूल अंग्रेज़ों की देन है, तो क्या हुआ? फूलों पर किसी का अधिकार तो है नहीं, प्रकृति तो सबकी है, पर भारत की वह ऋतु ही कुछ और थी, सुगन्धित प्यारी! इसी लिये अब मैं यहाँ भी लगाती हूँ यह फूल, हर वर्ष इन्हीं दिनों, बहुत मेहनत करती हूँ, यदा-कदा दो-चार फूल आ जाते हैं। भीनी-भीनी उनकी सुगन्ध महका देती है मेरा मन; किसी सुन्दर कहानी की भाँति जो इन फूलों में छिपी रहती है। 

इस साल भी लगाये हैं और नित्य ही देख लेती हूँ। लगता तो है कि फूल आयेंगे। 

स्वीटपीज़ में रंग-बिरंगे फूल आते हैं, गुलाबी, लाल, सफ़ेद और बैंजनी भी। गुलदस्ते में सजे बहुत अच्छे लगते हैं। 

कितनी सुंदर देन है यह प्रकृति की हमें। तभी हर अवसर पर फूल देने व भेजने की प्रथा है इस समाज में शायद। 

हाँ . . . यदि इतना प्रयास करने के बाद भी यह फूल न लगे तो समझ लूँगी कि मेरे हिस्से में इनका सुख नहीं था। 

रही सूनेपन की बात तो किसी कवि ने लिखा है कि अकेले दुखी मन से टहलते हुए उसे एक सुन्दर फूलों का बड़ा सा बग़ीचा दिखा बस फिर क्या था, वह उन फूलों में ऐसा मगन हुआ, अपने समस्त दुःख भूल गया और पता नहीं कितनी कविताओं का जन्म हुआ होगा उसके मन में। 

बस मेरे फूल भी पहुँचा देते हैं कहीं और मुझे, कस्तूरी-सी सुगन्ध आसपास ही रहती है, दूर भगाती रहती है मेरा सूनापन! 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

कविता

स्मृति लेख

व्यक्ति चित्र

आप-बीती

सामाजिक आलेख

काम की बात

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं