एक दिया
काव्य साहित्य | कविता इन्दिरा वर्मा1 Aug 2020 (अंक: 161, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
आज मैंने भी एक दिया जलाया,
देखती रही उसे देर तक!
सोचती रही,
सब इसकी लौ में लपेट लूँगी।
और ले जाऊँगी कहीं दूर
एक छोटी सी पोटली में बाँध कर!
वही, ज़िन्दगी के सुनहरे लम्हें,
जो उस दिन –
अलाव पर हाथ सेंकते हुये दिये थे तुमने,
और देते ही रहे,
हैं मेरे पास, आज भी।
उन्हीं से सुलगाती रहती हूँ...
वह अनमने से,
अकेले से पल,
जो घने बादलों की भाँति
ओढ़ लेते हैं
मेरी खिड़की से आती हुई
उस हल्की हल्की गरमाई को!
आज मैंने भी एक दिया जलाया!
देखती रही उसे देर तक!
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