आस
काव्य साहित्य | कविता राजेंद्र कुमार शास्त्री 'गुरु’15 Apr 2020 (अंक: 154, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
छोटे छोटे तिनकों से
आशियाना बनाना नामुमकिन है
पर जब देखता हूँ उड़ते हुए पंछी को
मुझमें भी एक आस है
घबरा जाता हूँ -
जीवन की हर मुश्किल को देखकर
पर जब देखता हूँ,
उस फैले हुए रेगिस्तान को
मुझमें भी एक आस है
दुःख होता है,
जब ढलते हुए तुझे देखता हूँ
पर कल तू फिर आयेगा
नई उमंग लेकर. . .
ये आस है।
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