अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

आत्मनिर्भर

क्या कहा साहेब!
अब हम आत्मनिर्भर
बनेंगे?
हम आप पर निर्भर रहे
कब?
कड़कती सर्दी में
खेतों में धान लगाया हमने
चिलचिलाती धूप में हल
चलाया हमने।
और मुनाफ़ा तुम्हारा रहा।
खेत मज़दूर  बन हमने
दुनिया का  पेट भरा
फिर भी आज हमेशा
इस देश में मेरा ही बच्चा
भूख से मरा।
तुम्हारे घर बनाए मैंने
ऊँची ऊँची इमारतों को
मिश्रित ख़ून-पसीने से
और  ख़ुद का घर सदा
एक ख़्वाब ही रहा।
बल्कि तुमने तो हमे
इस महामारी में अपने
ही देश में घर से
बेघर कर दिया।
तुम्हारी फ़ैक्टरियों, 
कारखानों, कपड़ा मिलों
में दिन रात एक कर
कपड़ा, बनाया, जूता बनाया
हमने और आज मेरे ही
बच्चों को
कपड़ा और जूता
नसीब न हुआ।
क्या चाहा था आख़िर!
इस संकट की घड़ी में घर
ही तो लौटना चाहते थे।
अपनों के पास।
एक वही
तो  कहने को 'अपना' है
हमारे पास।
वो भी न कर सके तुम
कर दिया हमें रोते बिलखते
सड़कों पर चलने को मजबूर
पर याद रखना  साहब
हम मज़दूर हैं, मजबूर नहीं।
तुम क्या हमें 'आत्मनिर्भर'
बनाओगे।
बीस लाख करोड़ का
झूठ ढोल जनता में
आख़िर कब तक पिटवाओगे
ज़रा रुको! तुम जल्द ही
मुँह की खाओगे।
वह क्षण दूर नहीं जब
चरमरा कर गिरेगी तुम्हारी
अर्थव्यवस्था।
अभाव में श्रमिकों के
ढह जाएगा, "विश्वगुरु" बनने
का खोखला ख़्वाब।
तब तुम
कहाँ मुँह छुपाओगे।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं