आत्मनिर्भर
काव्य साहित्य | कविता डॉ. पूनम तूषामड़15 Sep 2020 (अंक: 164, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
क्या कहा साहेब!
अब हम आत्मनिर्भर
बनेंगे?
हम आप पर निर्भर रहे
कब?
कड़कती सर्दी में
खेतों में धान लगाया हमने
चिलचिलाती धूप में हल
चलाया हमने।
और मुनाफ़ा तुम्हारा रहा।
खेत मज़दूर बन हमने
दुनिया का पेट भरा
फिर भी आज हमेशा
इस देश में मेरा ही बच्चा
भूख से मरा।
तुम्हारे घर बनाए मैंने
ऊँची ऊँची इमारतों को
मिश्रित ख़ून-पसीने से
और ख़ुद का घर सदा
एक ख़्वाब ही रहा।
बल्कि तुमने तो हमे
इस महामारी में अपने
ही देश में घर से
बेघर कर दिया।
तुम्हारी फ़ैक्टरियों,
कारखानों, कपड़ा मिलों
में दिन रात एक कर
कपड़ा, बनाया, जूता बनाया
हमने और आज मेरे ही
बच्चों को
कपड़ा और जूता
नसीब न हुआ।
क्या चाहा था आख़िर!
इस संकट की घड़ी में घर
ही तो लौटना चाहते थे।
अपनों के पास।
एक वही
तो कहने को 'अपना' है
हमारे पास।
वो भी न कर सके तुम
कर दिया हमें रोते बिलखते
सड़कों पर चलने को मजबूर
पर याद रखना साहब
हम मज़दूर हैं, मजबूर नहीं।
तुम क्या हमें 'आत्मनिर्भर'
बनाओगे।
बीस लाख करोड़ का
झूठ ढोल जनता में
आख़िर कब तक पिटवाओगे
ज़रा रुको! तुम जल्द ही
मुँह की खाओगे।
वह क्षण दूर नहीं जब
चरमरा कर गिरेगी तुम्हारी
अर्थव्यवस्था।
अभाव में श्रमिकों के
ढह जाएगा, "विश्वगुरु" बनने
का खोखला ख़्वाब।
तब तुम
कहाँ मुँह छुपाओगे।
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