अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अमरनाथ यात्रा

पिछले दो दिनों से वह ज़िला सदर अस्पताल के चक्कर लगा रहा था, लेकिन उसे निराशा हाथ लग रही थी। उसे "अमरनाथ यात्रा" के लिए एक मेडिकल फ़ॉर्म पर सिविल सर्जन से हस्ताक्षर करवाने थे। इस कार्य के लिए आज वह तीसरे दिन फिर सिविल सर्जन कार्यालय का दौरा कर रहा था। पिछले दोनों दिन उसे सिविल सर्जन महोदय के बैठक, संचिकाओं का निबटारा तो कभी, "बोर्ड ऑफ़ डॉक्टर्स" में से किसी एक डॉक्टर के अनुपस्थिति का हवाला देकर वापस लौटा दिया जा रहा था। इनके साथ-साथ कुछ प्रतियोगी परीक्षा में भाग लेने वाले वैसे छात्र को भी निराशा हाथ लग रही थी, जिनको मेडिकल प्रमाणपत्र की ज़रूरत थी। 

आज तीसरे दिन वह संकल्पित होकर अस्पताल गया था, चाहे जो हो काम करवाकर की दम लूँगा। गंतव्य पर पहुँचते ही फिर उत्साह फीका पड़ गया, जैसे ही पता चला की आज सिविल सर्जन विलम्ब से आएँगे। अपनी समस्या बताने पर एक व्यक्ति ने अपनी ऊँगली से इशारा कर एक जगह के बारे में बताया की फ़लाने आदमी से मिल लें, काम हो जायगा। 

इस निठल्ली सरकारी तंत्र और प्रशासनिक अराजकता में आकंठ डूबे सरकारी (सदर) अस्पताल में त्वरित कार्य होने की उम्मीद लिए उसने वहाँ जाना ही उचित समझा। हालाँकि! वह इस बात को भली-भाँति जान गया था की वहाँ दलाल टाइप लोग हैं। वहाँ पहुँचकर दलाल से सौदेबाज़ू होने के बाद, वह "अमरनाथयात्रा" के लिए सरकार द्वारा निर्धारित मेडिकल फ़ॉर्म और दो सौ रुपया उस दलाल को सौंपकर, एक आश्वस्त भाव से घर वापस जाने लगा, तब दलाल ने कहा, "भाई साहेब आज साढ़े चार बजे आ जाइएगा आपका काम हो जायेगा"। बाबा "अमरनाथ" का मन से जयकार करते हुए उसने घर की ओर प्रस्थान कर दिया, उसकी वर्षो की अमरनाथ यात्रा की तमन्ना जो पूरी होने जा रही थी।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं