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अवनति

लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ, पत्रकारिता;
चाटुकारिता में गिर गया, अब भर-भरा। 

 

सुरक्षा कवच है जो, जनतंत्र का;
गोलियाँ वह भी अब, बरसा रहा।

 

न्याय की तलवार जिसके हाथ है;
पंगु होकर, वह भी चिल्ला रहा। 

 

सदन की गरिमा भी तार-तार है;
दौर चल पड़ा आरोप-प्रत्यारोप का। 

 

उस पर भी छाया है, सत्ता का नशा;
शहर जल रहे हैं लेकिन, उसका क्या?

 

बलात्कारी, भ्रष्टाचारी जो भी हैं इस देश में;
फूल और मालाओं से सम्मान उनका हो रहा।

 

है जन-मानस हिंदू-मुस्लिम में उलझा हुआ;
'जहान' कैसे हो रहा विनाश हमारे देश का?

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