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धरती रोती होगी

धरती 
रोती होगी,
जब 
किया जाता होगा 
उसके वृक्ष पुत्रों पर
धारदार हथियार से वार
भेदा जाता होगा
उसके
वक्ष स्थल को
गोदा जाता होगा
कटि को।


धरती 
रोती होगी
जब
होता होगा
उसकी
लता-पुत्रियों
का चीर हरण
वे पड़ी रहती होंगी
औंधी,
मृत,
मूल से कटी हुई।


धरती 
रोती होगी
जब 
नदी रूपी
उसकी धमनियों में
बहते हुए
जल रूपी 
रक्त को
किया जाता होगा
प्रदूषित,
पैदा किए जाते
होंगे
ब्लॉकेज।


धरती 
रोती होगी
जब 
अवैध खदानों
और 
उत्खनन से 
चीरा
जाता होगा
उसके कलेजे 
को
करते जाते हैं
उसे
मज्जाहीन,


धरती 
रोती होगी
जब
करते हैं
उसकी आवोहवा
को दूषित
नहीं छोड़ते
साँस लेने लायक़ भी
शुद्ध वायु।


धरती 
रोती होगी
जब 
ट्यूबवेल
और बोरवेल
के नाम पर
होता होगा
उसके शरीर में 
में 
कहीं भी सुराख
बेवज़ह 
बेतहाशा
बहाते हैं
उसके रक्त को।


धरती
रोती होगी
जब 
धीरे धीरे
सूखती जाती हैं 
शिराएँ,
होती जाती हैं
रक्तहीन
खोखली
पोली
और फिर फट 
जाती होगी
सूखकर।


धरती 
रोती होगी
जब 
हम नहीं लगाते
कोई वृक्ष
नहीं करते फ़िक्र
उसकी,
उस पर निर्भर
जीव-जन्तुओं
की,
करते जाते हैं
उनके निवास
स्थानों का भी अतिक्रमण
नहीं छोड़ते 
चींटियों के रहने
लायक़ भी कोई जगह।


धरती
रोती होगी
जब हम 
नहीं समझते
प्यार को,
अहसास को,
रिश्तों को,
सम्बन्धों को,
करुणा और दया को।
जाति, धर्म, 
राजनीति
के नाम 
करते रहते 
अपमानित,
लड़ते-लडा़ते 
रहते सदा
कर
रक्तरंजित
एक दूसरे को,


हमेशा
अपनी कुटिलता 
चालाकियों से
समझते रहते हैं
स्वयं को
बहुत शातिर
करते रहते हैं
एक दूसरे से
छलावा
स्वार्थ के 
वशीभूत होकर 
करते हैं
रिश्तों को तारतार 
मानवता को शर्मसार।


लेकिन
आज 
धरती नहीं रो रही
है,
वह दिखा रही है
अब अपने रंग,
कर रही
प्राकृतिक न्याय।


मिल रही 
करनी की
पूर्ण सज़ा
घर में बंद
मानव को
जो बहुत दुखी है,
अपने भविष्य
को लेकर,
जिसने नहीं की
पृथ्वी के 
भविष्य की चिंता


धरती
आज बेहद ख़ुश है
दिख रहा 
हिमगिरि साफ़
मीलों दूर से,


कर रहे मयूर नृत्य,
इंसानी निवासों
के नज़दीक
विचरण करते 
जंगली जीव
याद करते
अपनी पुरानी स्मृतियाँ
यह उनका भी 
घर रहा होगा कभी,
जिसे मानव ने
लिया छीन,


आज वह
ख़ुद क़ैद है
झाँक रहा
खिड़की से ही
बेबस
होकर
अपने किये
में
पछताकर।


प्रकृति खिलखिला रही है।
अब
मानव का हस्तक्षेप 
कम हो गया है।

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