अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मुनाफ़ा

इस इस मुश्किल वक़्त में वो 
मुनाफ़ा कमाए जा रहा है।
गुज़र गये लोग, गुज़ारा न होने से, 
और  वो है कि दाम बढा़ए जा रहा है।


दुश्मन इस मुल्क और दुनिया का 
जो बेरहम हो गया है,
ग़रीबों पर रहम के बजाए 
उनके चिथडे़ उडा़ए जा रहा है। 


हैवानियत की हद है इस दौर में 
वो मुब्तिला बराबर है, 
वो भ्रम में है कि बहुत कुछ 
कमाए जा रहा है।

 

मुब्तला=पड़ना, फँसना

 

एक झटके में पलटती है दुनिया, 
सब देखते रह जाते हैं,
पर नहीं, वह अपनी आदतों से 
मात खाए जा रहा है।


ख़ुदा इस वक़्त अक्ल दे 
अँधेरे में वो गुमराह हो चुका है, 
जो इंसानियत के वक़्त में 
अदावत दिखाए जा रहा है।

 

अदावत=शत्रुता, वैर, दुश्मनी

 

लोग मुँह छुपाए घूम रहे हैं 
फैला है क़हर चारों तरफ़,
और वो बेशरम मुँह खोले 
माल कमाए जा रहा है।


देखो क़यामत बरपी है 
इस ख़ूबसूरत कायनात में,
न डर रसूल का उसे,  
अपना ईमान गँवाए जा रहा है।


मौला देख रहा है कि 
किसके नसीब में हैं नेकियाँ,
और इंसान है कि ख़ुद 
अपने जाल में फँसाए जा रहा है।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

1984 का पंजाब
|

शाम ढले अक्सर ज़ुल्म के साये को छत से उतरते…

 हम उठे तो जग उठा
|

हम उठे तो जग उठा, सो गए तो रात है, लगता…

अंगारे गीले राख से
|

वो जो बिछे थे हर तरफ़  काँटे मिरी राहों…

अच्छा लगा
|

तेरा ज़िंदगी में आना, अच्छा लगा  हँसना,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

नज़्म

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं