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एक विचारणीय प्रश्न : गाड़िया लोहार

दूर से उड़ता दिखा, 
इक रेत का छोटा बवंडर,
आ रही इक बैलगाड़ी, 
मंद गति से चरमराकर।
हाँकता कृषकाय सा नर, 
गीत गाता गुन-गुनाकर,
बैल ग्रीवा की वो घण्टी, 
देती समर्थन झुन-झुनाकर।

 

सामने विस्तृत मरुस्थल पड़ा अपार है,
वो गाड़िया लोहार है, वो गाड़िया लोहार है॥

 

एक विशाल वट-वृक्ष के 
नीचे डेरा डालकर,
हो रहा न तनिक विचलित, 
मुश्किलों को पालकर।
जी रहा इस ज़िंदगी को, 
संस्कृति निज मानकर,
हो रहें हैं  नत मनुज 
इतिहास उसका जानकर।

 

सह रहा है जो ये सब, वो प्रताप का अवतार है,
वो गाड़िया लोहार है, वो गाड़िया लोहार है॥

 

दे रहा आश्रय वो अंबर, 
नीली छत्र-छाया तानकर,
लेता परीक्षा कड़ी भास्कर, 
भट्ठी-सी धरती को तपाकर।
करुण क्रंदन कर रहे शिशु, 
भूख से दो बिल-बिलाकर,
ले रही निःश्वास माता, 
भूखे ही बालक को सुलाकर।

 

झेलता जाता है सब, न कर रहा गुहार है,
वो गाड़िया लोहार है, वो गाड़िया लोहार है॥

 

संदर्भः- उपर्युक्त कविता के माध्यम से मेवाड़ (राजस्थान) मुग़ल युद्ध में महाराणा प्रताप का साथ देने वाली एक जनजाति की वर्तमान दुःखद स्थिति का चित्रण किया गया है, जिसके बलिदान को इतिहास के महज़ कुछ पन्नों में समेट कर समाज ने उनके प्रति अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर ली है। हमारा यह कर्त्तव्य है कि हम उन्हें वह सम्मान दिलाएँ जिसके वो हक़दार हैं।      

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टिप्पणियाँ

Subhash chand 2023/08/27 02:24 AM

Very nice poem ....about this brave race .

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