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फ़ेसबुक : एक सशक्त माध्यम या ’छुट्टा साँड़’

जब से विश्व पटल पर इंटरनेट का आविर्भाव हुआ है तब से सोशल मीडिया से परहेज़ करता रहा हूँ। पहले “चैट” होती थी, फिर टैक्स्ट मैसेजेस आए और कुछ समय के पश्चात फ़ेसबुक आई जिसने पारस्परिक संबंध ही बदल डाले। अभी तक नाम मात्र को मैं फ़ेसबुक पर था, केवल अपने मित्रों की पोस्ट्स को पढ़ने के लिए या कभी-कभार उन पर अपनी टिप्पणी करने के लिए। मैसेंजर को छूता तक नहीं था। तीन सप्ताह पहले लगने लगा कि जब भी लोग फ़ेसबुक की बात करते हैं तो बोलते तो वह हिन्दी ही हैं परन्तु शब्द मुझे समझ नहीं आते। मैं अनपढ़ों और तरह पूछता रहता हूँ कि इसका अर्थ क्या है या यह किया कैसे जा सकता है? मुझे इस बात का आभास तो था कि यह संपर्क का शक्तिशाली माध्यम है। तीन सप्ताह पूर्व मैंने गंभीरता से फ़ेसबुक में पदार्पण किया और शीघ्र ही लगने लगा कि यह माध्यम एक “छुट्टे साँड़” की तरह है। यहाँ पर कोई नियम लागू नहीं होते। 

आरम्भ के दिनों में कुछ ग़लत लोगों की मित्रता को स्वीकार कर लिया। विकृत मानसिकता के लोग यहाँ पर भी उपस्थित थे जिनका अनुभव इंटरनेट के प्रारम्भिक दिनों में मुझे हो चुका था। उस ज़माने में एक साईट थी geocities.com, याहू ने इसे 1998 में ख़रीद लिया था। जियोसिटीज़ किसी को भी अपना व्यक्तिगत “पेज” निःशुल्क बनाने देता था। आप अन्य पेज भी इसके साथ “लिंक” कर सकते थे। मैंने उस समय एक वेबसाइट बनाई “उर्दू शायरी और हिन्दी कविता”। उन दिनों मैं अपना नाम “सुमन घई” लिखता था, कुमार नहीं लिखता था। क्योंकि शायरी थी और वेबसाइट भी कोई सुमन चला “रही” थी - प्रेमपत्र आने आरम्भ हो गए। मैंने फिर कुमार जोड़ लिया कि कुछ लोगों को शायद समझ आ जाए। इस बात को इसलिए यहाँ लिख रहा हूँ कि विकृत मानसिकता के लोग हर काल में और हर जगह उपस्थित रहे हैं। 

फ़ेसबुक के पहले सप्ताह के अनुभव ने मुझे “अनफ़्रेंड” करना सिखा दिया। एक बात मुझे समझ आती है कि फ़ेसबुक भी पीढ़ियों में बँट गई है। युवा पीढ़ी का एक बहुत बड़ा भाग फ़ेसबुक से पलायन कर चुका है क्योंकि वह अब इसे अधेड़ आयु से लेकर बूढ़ों का माध्यम घोषित कर चुका है। पचास से ऊपर की आयु के बहुत से लोग सुबह “गुड मॉर्निंग” के गुलदस्ते भेजने के लिए तत्पर रहते हैं। एक वर्ग ऐसा भी है जो जीवन में शायद कभी-कभार ही मन्दिर गया हो परन्तु फ़ेसबुक में देवी-देवताओं के चित्र और मूर्तियों पर ही पुष्प-वर्षा करते रहते हैं। यह तो हुआ धार्मिक या शिष्ट समूह है। परन्तु इस शिष्ट समूह की अशिष्ट शाखा भी है। यह शाखा या शाखाएँ बाक़ी के धर्मों के बखिये उधेड़ने का काम बख़ूबी करते हैं और ऐसा करके मानसिक और आध्यात्मिक शांति पाते हैं।

एक समाजिक समूह ऐसा भी है जो आपको सीधा मैसेंजर से फोन ही करता रहता है। इन लोगों को इस बात की लेशमात्र भी चिन्ता नहीं होती कि मैसेंजर के दूसरे छोर पर व्यक्ति किस देश में बैठा है और वहाँ समय क्या हुआ है। अभी तक आपसे कोई “चैट” भी नहीं की तो अगर वो आपकी कॉल का उत्तर दे भी तो बात क्या करे। भैया आपके पास तो बेकार का समय है जो बिन मतलब के कॉल कर रहे हो और दूसरी ओर का व्यक्ति व्यस्त है। ऐसा भी नहीं कि एक-दो बार इनको कॉल का उत्तर नहीं मिले तो हट जाएँ। ना! इनका तो दिन ही आपको कॉल करने से आरम्भ होता है। अगर आप उत्तर नहीं देते तो भैया यह एक गुलदस्ता और भेज देते हैं। एक कोई पुलिस ऑफ़िसर थे क्योंकि फ़ेसबुक पर कम से कम जो फोटो थी वह वर्दी में ही थी। गुलदस्ते के साथ मुझे “डियर” कह कर संबोधित करते थे। तंग आकर एक दिन मैंने लिख ही दिया “भैया मैं  67 वर्षीय पुरुष हूँ कोई “डियर” नहीं। विश्वास न आए तो मेरी फोटो देख लें - एकदम असली है।” तब  कहीं पीछा छूटा।

फ़ेसबुक पर राजनीति को भी कुछ लोग सँभाल रहे हैं। यह लोग अपने-अपने खेमों को उखड़ने से बचाने के लिए स्तम्भ बने, दूसरे खेमे वालों के साथ गाली-गलौज तक उतर आते हैं। अगर आपने किसी दल को वोट दिया है तो दूसरा दल तुरंत आपको बेवकूफ़ घोषित कर देता है। अगर इनका बस चले तो देश पर यह अपनी नीतियाँ लागू कर दें, क्योंकि हर समस्या का समाधान इनके पास है। अभी तक देश की नैया के खेवनहार मूर्ख ही रहे हैं - पता नहीं किनकी ग़लतियों भारत विश्व की एक आर्थिक और औद्योगिक शक्ति बन गया। ग़लतियों से ही बना होगा क्योंकि समस्याओं के समाधानों या नीतियों को तय करने से पहले इस समूह से तो पूछा ही नहीं गया।

तीसरा वर्ग है जिससे मैं संबंधित हूँ। वह है हिन्दी साहित्य। एक बात तो अभी तक समझ चुका हूँ कि जो लोग अपने नाम के आगे “कवि” या “शायर” लिखते हैं वह वास्तव में होते नहीं। एक दो दिन पहले सुधेश जी ने इसकी पुष्टि कर दी। बाक़ी आज मनीषा कुलश्रेष्ठ जी ने भी फ़ेसबुकियों का वर्गीकरण बहुत बढ़िया किया है - उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है।

क्योंकि साहित्य कुंज का उद्देश्य आरम्भ से मार्ग दर्शन का रहा है इसलिए यहाँ भी पीछे नहीं हटूँगा। अपने फ़ेसबुक के मित्रों से यही आग्रह है कि अगर आप इतने ही हिन्दी प्रेमी है जितना कि आप दम भरते हैं, तो कृपया भाषा का अपमान मत करें। पहले भाषा और इसकी व्याकरण सीखें। अगर आप कवि या लेखक हैं तो भाषा आपके भावों विचारों के सम्प्रेषण का माध्यम है। आपको भाषा सीखने की आवश्यकता है। अगर हिन्दीभाषी हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि आपके मुख से निकलने वाल प्रत्येक वाक्य व्याकरण के दृष्टिकोण से सही होगा और जो भी आप लिखेंगे उन शब्दों की वर्तनी भी सही होगी। अपने अनुभव के अनुसार कह सकता हूँ कि ग़लत व्याकरण और वर्तनी समस्या हिन्दीभाषी लेखकों में अधिक रहती है क्योंकि वह बोली को ही भाषा समझने लगते हैं। बोली के उच्चारण के अनुसार ही उनकी वर्तनी भी हो जाती है। यहाँ सजग रहने की आवश्यकता है। एक सुझाव दे रहा हूँ कि जिस भाषा से आप अच्छी तरह से परिचित नहीं हैं तो कृपया उस भाषा के शब्दों को उपयोग मत करें। क्योंकि वर्तनी की छोटी-छोटी ग़लतियों से अर्थ का अनर्थ हो सकता है। उदाहरण दे रहा हूँ “इश्क़” प्रेम है तो “इश्क” बौखलाहट; “शक” संदेह है तो “शक़” दरार। यह सूची बहुत लम्बी है। और ऐसा भी नहीं है कि उर्दू या अन्य भाषाओं के शब्दों के पर्याय हिन्दी में न हों।

एक शिकायत मुझे ग़ज़ल लिखने वालों से है। पहले तो वह ग़ज़ल नहीं “गजल” लिखते हैं - इस विधा के नियमों की तो बात ही मत करें। यह कठिन विधा है इसका बहुत से लोगों को भान है पर उनकी विचारधारा है - "सीखने में क्यों समय बरबाद किया जाए। लाईक्स तो मिल रहे हैं।" परेशानी तो तब होती है जब यह लोग साहित्य कुंज में प्रकाशित होना चाहते हैं। 

इतनी शिकायतें होते हुए भी फ़ेसबुक एक सशक्त माध्यम है, विचार-विमर्श के लिए। जानकारी को साझा करने के लिए। आवश्यकता होती है कि मित्रता अनुकूल विचारधारा वाले लोगों के साथ हो। शिष्ट और बुद्धिमत्ता के तर्कों से चर्चा हो। चाहे असहमति हो या सहमति तार्किक चर्चा निरंतर चलनी चाहिए। इन दिनों फ़ेसबुक मेरी फुलवारी की तरह है। जहाँ सुरभित पुष्प खिलते हैं तो वहाँ अनचाहे पौधे भी जन्म लेते हैं। धीरे-धीरे उन्हें समूल उखाड़ फेंकूँगा - प्रयास तो कर ही रहा हूँ।

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