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ग़रीबी में

घुप्प अँधेरी बरसती रात में,
गाँव के किसी कोने से,
जलती - बुझती एक मशाल की,
लौ दिखायी दे जाती है,
सन्नाटे से चीखती रात में,
बरसती बूँदों से लड़ते,
जले जाती मशाल, ग़रीबी में।

 

सुना फिर एक किसान ने,
शाम आत्महत्या की है,
बेटी के ब्याह की चिंता के अँधेरे में,
कर्ज़ की दीवारों से घिरे घर में,
बीमारी की रस्सी गले में डाल,
विवशता के छत से झूल,
हुई है आत्महत्या उसकी, ग़रीबी में।

 

घर वाले लगे हैं, अन्तिम खर्चीले काम में,
तीन फटे चद्दरों से बने कफ़न में,
ले चले लपेट मृत देह,
अँधियारे में गुज़रे उस जीवन को,
उजाले में ला रही है मशाल, 
होगा आज दहन फिर से,
ग़रीबी का, ग़रीबी में।

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