हम खिलौनों की ख़ातिर तरसते रहे
शायरी | ग़ज़ल चाँद शुक्ला 'हदियाबादी'1 Mar 2019
हम खिलौनों की ख़ातिर तरसते रहे
चुटकिओं से ही अक्सर बहलते रहे
चार सू थी हमारे बस आलूदगी
अपने आँगन में गुन्चे लहकते रहे
कितना खौफ़ आज़मा था ज़माने का डर
उनसे अक्सर ही छुप छुप के मिलते रहे
ख़्वाहीशें थीं अधूरी न पूरी हुईं
चंद अरमां थे दिल मैं मचलते रहे
उनकी जुल्फें परीशां जो देखा किये
कुछ भी कर न सके हाथ मलते रहे
चाँद न जाने कैसे कहाँ खो गया
चाँदनी को ही बस हम तरसते रहे
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